नए “आचार्य कुल” की स्थापना का प्रश्न !!
'अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजन
शलाकया।
चक्षुन्मोर्लितं
येनः तस्मै श्री गुरुवे नमः।।'
भारतीय
वेद, शास्त्र और साहित्य में आचार्य की
अभूतपूर्व महिमा, उनकी विलक्षण शक्ति का महती उद्घाटन हुआ है।
जीवन की विशाल परिधि में वह सूर्य का आलोक बिखेरकर चेतना को
जागृत कर मानव-मन के अंदर जागृति का स्वर भरता है जिससे मानव अविधा/अज्ञान
से ऊपर उठकर लौकिक और पारलौकिक ज्ञान की प्राप्ति
करता है, गुरु समग्रता में है। वह पूर्ण है। उसमें संपूर्ण
ज्ञान समाया है। वह सांसारिक विद्या की चेतना का प्रकाश प्रदान कर आध्यात्मिक
शक्ति का संचरण करता है, जिसके संचरण से देवता की
शक्ति जागृत होती है, मनुष्य के गुणों का विकास होता है।
आदिकाल
से ही गुरु को देवता की उपाधि देने की परंपरा भारतीय संस्कृति की अपनी विशेष पहचान
रही है। “आचार्य देवो भव” अर्थात आचार्य
में देवता के सभी गुण समाहित है।
अथर्ववेद
के प्रथम सूक्त में आचार्य को “वाचस्पति”
कहा गया है। वाचस्पति यानि ‘वाणी के
पति’। इन अर्थों में, गुरु की वाणी
में सरस्वती का निवास होता है।
अथर्ववेद
के ब्रह्मचर्य
सूक्त में, आचार्य के गुणों को इस प्रकार वर्णन किया गया है-
“आचार्यो
मृत्युर्वरूपः
सोम ओषधयः पयः।‘
अथर्ववेद
में
एक जगह आचार्य
को “अग्नि”
कहा गया है। यास्क मुनि ने “अग्नि”
शब्द की व्युत्पत्ति “अग्रणी” से की है अर्थात
आगे रहने वाला, नेतृत्व करने वाला। अग्नि का धर्म प्रकाश देना है और
कर्म को प्रतिष्ठित करना है। इस प्रकार, आचार्य शिक्षकों
में उच्च और उद्दात्त भावनाओं का
प्रतिष्ठापन करता है। इस अर्थ में आचार्य में देवत्व गुणों का
समावेश है। इसलिए आचार्य को देवता की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय संस्कृति में
जिस प्रकार शास्त्रों, वेदों में आचार्य को महिमामंडित किया
गया, व्यवहार में भी प्रकारांतर
में गुरु की कल्पना शासन सम्मत रही। हमारे आचार्यों
की लंबी परंपरा है, जिन्होंने
कीर्तिमान
स्थापित किए हैं और ऐसे शिष्य भी हुए हैं जिन्होंने आचार्य की आज्ञा,
इच्छा को पूरा करना पहला कर्तव्य माना। उपमन्यु
जैसे शिष्य ने गुरु
की आज्ञा मानकर भूख-प्यास से तड़पकर आम्र-पल्लव का सेवन किया और
मुर्चित होकर कुएं में गिर पड़े, तब भी
आक्रोश से ग्रसित नहीं हुए। एकलव्य जैसे अविस्मरनीय शिष्य
ने इतिहास में गुरु दक्षिणा के रूप में अपना अंगूठा काटकर आचार्य द्रोण को देकर
अपना नाम अमर कर दिया। वह श्रधा, भक्ति
और विश्वास गुरु के प्रति अप्रतिम व्यक्तित्व, विलक्षण ज्ञान के प्रति था, जो शिष्य को
आचार्य से प्राप्त होता था।
आचार्य
शिष्य के जीवन में कौशल पैदा करता है जिसके कारण ज्ञान के व्यवहारिक चेतना से
व्यक्ति जीवन के अर्थ वैभव को समझता है। सामाजिक उपयोगिता को समझता है। जिस प्रकार
देवता संसार की सृष्टि के हितचिन्तना करते हैं उसी प्रकार आचार्य भी समाजनीति, राष्ट्रनीति और व्यक्ति की समग्र चेतना को जागृत
करता है। इन्हीं गुणों के कारण आचार्य को परमात्मा से भी श्रेष्ठ बताया गया
है। आचार्य शील गुणों का खान होता है। संत कबीर ने कहा
है
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काकुं लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोविंद दियो बताए।।
गुरु
के बिना
ज्ञान नहीं मिलता, और जब ज्ञान न मिले तो जीवन अकारथ है। जीवन के सैद्धांतिक पक्ष
को लेकर व्यवहारिक पक्ष की व्याख्या करने वाले, धर्म,
स्वावलंबन, निर्भीकता, गृहस्थ-धर्म,
राष्ट्रीयता, मानवता की शिक्षा देने वाले आचार्य शिष्यों
के लिए संजीवनी का काम करते रहे हैं। कपिल, कणाद, याज्ञवलक्य, संदीपनि, चाणक्य जैसे आचार्य परंपरा से मानव के अंदर देवत्व का शंखनाद किया, उसकी अपनी
शक्ति
की पहचान करायी और शिक्षा की यशःकीर्ति की
विस्तृति दी।
प्राचीन
भारत
में गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में आचार्य समस्त विकास विचारणा
की धूरी होते थे। वे अपने आचार्यत्व काल में जिज्ञासु शिष्यों
को स्वीकारते थे और उन्हें अपना अंग बना लेते थे। गुरु छात्र के और छात्र गुरु पर
हो जाते थे। प्रेम पीयूष की परिवारिक क्रियाशील अविछिन्न धारा के अमृत से
शिष्य जीवन अनुभवों का संचालन करते और पूर्णता की प्राप्ति भी। ज्ञान और कर्म
का अद्भुत समन्वय था। श्रम शक्ति है, जीवन व्यवहार है,
यह आचार्य के व्यक्तित्व-व्यवहार से परिलक्षित होता था। आचार्य की
शिक्षा-दीक्षा व्यवहार की आधारशिला पर टिकी हुई थी। आचार्य मातृ/पितृ /देवगुणों
के आगार थे। ऐसे वैभवशाली थे आचार्य।
परंतु
आधुनिक संदर्भ में भी आचार्यत्व की व्याख्या की आवश्यकता आज प्रतीत होती है।
देवतुल्य आचार्य आज अपनी गरिमा को खो चुके हैं। शिष्य की
भक्ति परंपरा भी नष्ट हो गई। भौतिकता की लगाम दोनों पर नियंत्रण
कर रही है।
समाज में मानवीय अवमूल्यन के कारण शिक्षक उपेक्षित हो गए हैं।
शिक्षक भी देवत्व की परिभाषा भूल गए। विद्यालय एवं विश्वविद्यालय,
राजनीति मूल्यहीनता, अवसरवादिता के अखाड़े बन रहे हैं। शिक्षक एक विदूषक
की भूमिका अदा कर रहा है। छात्र सोचता है “मैं पैसा देता हूं,
इसलिए पढ़ता हूं” शिक्षक सोचता है, “मुझे वेतन से काम
है।“ छात्र और गुरु के
बीच संवाद की स्थिति नगण्य होती जा रही है। यह मूल्यहीनता शिक्षा जगत में अराजकता
से पैदा कर रही है। श्रद्धा और आत्मीयता की कमी दोनों के आपसी
रिश्ते को खत्म कर रही हैं। इस संदर्भ में शिष्य और गुरु के बीच स्वस्थ परंपरा लगभग खत्म होती जा रही है।
वर्तमान
परिपेक्ष में यह सवाल ज्यादा कटु और प्रासंगिक है कि
प्राचीनकालीन “आचार्यतत्व” की गरिमा की स्थापना को कहाँ तक
बचाया
जा सकता है।
ऐसे
समय में, जबकि यांत्रिक सभ्यता और मूल्यहीन
राजनीति
मानव-संस्कृति का संहार करने के लिए अपने दांत पैने कर रही है। क्या आज के आचार्य और शिष्य एक साथ मिलकर बैठकर ‘नए मूल्य’ की
खोज कर सकेंगें?, नए आचार्य-कुल’ की स्थापना कर सकेंगें?
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