'संवेदनशील व्यक्ति को गढ़ता' प्रेमचंद का बाल साहित्य !!


बाल साहित्य का अर्थ उस साहित्य से है यह बालक और किशोरों के मानसिक स्तर के अनुरूप उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर उन्हें सामाजिक परिवेश के बारे में सजग करने के उद्देश्य से लिखा गया हो। श्रेष्ठ बाल साहित्य बालकों का केवल मनोरंजन ही नहीं करता अपितु वह उन्हें एक संवेदनशील मनुष्य के रूप में विकसित होने की स्थिति अभी देता है। गलत एवं सही को समझने की सीख देता है।  अतः आवश्यक है कि बाल साहित्य सैद्धांतिक विचारधारा से हटकर बाल मनोविज्ञान पर आधारित हो
          हिंदी बाल साहित्य लेखन की ऐतिहासिक परंपरा पर नजर दौडाएं तो पाते हैं कि पंचतंत्र की कथाएं बाल साहित्य का एक सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत है। इसके साथ ‘हितोपदेश’, अमर कथाएं’, एवं अकबर-बीरबल के किस्से बच्चों के साहित्य में सम्मिलित है। विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की कहानियों के माध्यम से शरारती राजकुमारों को अल्प समय में संस्कारित करने के लिए पशु-पक्षियों को माध्यम बनाकर उन्हें शिक्षाप्रद प्रेरणा दी। अरस्तू ने भी माना है कि बच्चों की शैतानियों को सीमित और नियंत्रित करने के लिए उन्हें रोचक कहानियां सुनानी चाहिए प्रेमचंद ने बाल मनोविज्ञान को केंद्र में रखकर ही बाल कहानियों की रचना की। ऐतिहासिक दृष्टि से यह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अंतर्गत पश्चिमी संस्कृति के विरोध और स्वदेशी की भावना से प्रेरित। हिंदी के साथ साथ विभिन्न भाषाओं के रचनाकार टिप्पणी के साथ बच्चों को भी राष्ट्रीय भावना स्वदेशी चेतना व सामाजिक नैतिक मूल्यों के विकास के लिए रचना रत थे। प्रेमचंद्र ने 1930 में हंस के संपादकीय बच्चों को स्वाधीन बनाओ शीर्षक के अंतर्गत लिखा था- बालक को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके। बालकों मैं इतना विवेक होना चाहिए कि वह हर एक काम के गुण-दोष को भीतर से देखें.... स्वयं की इस कसौटी पर प्रेमचंद की कहानियां बच्चों के मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ सामाजिक आचार-विचार, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का संदेश देती है।
          बच्चों के साहित्य में ज्यादा महत्वपूर्ण यह होता है कि सूक्ष्म से सूक्ष्म बात को जितना सह उतना आश्चर्यजनक बनाकर कैसे प्रस्तुत किया जाए। इसी सहजता व आश्चर्य के सहारे ही हम उन्हें समाज, राष्ट्र, विचारधारा से जुड़ सकते हैं। प्रेमचंद द्वारा रचित आरंभिक कृतियों में महात्मा शेखशादी तथा रामचर्चा की गणना की जाती है। रामचर्चा नामक पुस्तक पर उन्होंने भगवान श्री राम की कथा को सीधे साधे शब्दों पर लिखकर उनके जीवन और आदर्श से बालकों का परिचय करवाया है 'जंगल की कहानियां' संकलन में बच्चों के लिए 12 कहानियां हैं। जिसमें शेर और लड़का, 'पागल हाथी', 'मिट्ठू', 'पालतू भालू', 'मगर का शिकार' तथा 'जुड़वा भाई' आदि कहानियां प्रमुख है। 'दुर्गादास' नामक ऐतिहासिक उपन्यास वीर दुर्गादास राठौर के जीवन की संघर्षपूर्ण वीरगाथा है, जो अपनी मातृभूमि के लिए अपने बलिदान हेतु कृतसंकल्प थावीर दुर्गादास की जीवन और आदर्शों की वर्णन द्वारा बालकों में देशप्रेम की भावना जागृत करना लेखक का उद्देश्य रहा इसकी भूमिका में उन्होंने माना है कि- “बालकों के लिए राष्ट्र के सपूतों के चरित्र से बढ़कर उपयोगी साहित्य कोई दूसरा नहीं है। इनसे उनका चरित्र ही बलवान नहीं होता है,उनमें राष्ट्रप्रेम और सहस का संचार भी होता है कलम, तलवार और त्याग  दो भागों में प्रकाशित इस रचना में  लेखक ने  राणा प्रताप, रणजीत सिंह, अकबर, विवेकानंद, गोपाल कृष्ण गोखले, सर सैयद अहमद खां आदि देश के विभिन्न महापुरुषों के प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए हैं। इन सभी ऐतिहासिक और राजनीतिक नेताओं के चरित्रों के माध्यम से लेखक बच्चों में वीर, उत्साह और देशप्रेम की भावनाओं के साथ सच्ची लगन और अदम्य साहस का बीजवपन भी करना चाहता है जो केल तत्कालीन समय ही नहीं वरन आज की भी समय में की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त ईदगाह, बड़े भाई साहब, गुल्ली डंडा, दो बैलों की कथा, परीक्षा, कजाकी, मंत्र आदि कहानियां भी सम्मिलित की जाती है। इस रचना संसार में गांव कस्बा, शहर, जाति-पाति, हर वर्ग व मानसिक स्तर के पात्र हैं जो किसी न किसी रूप में प्रभावित करती है। वस्तुतः प्रेमचंद कथा कहते नहीं रते हैं। प्रेमचंद की बाल कहानियां बाल पाठक को अपने अपने पाठ्य पुस्तकों में पढ़ी है, जिससे उनमें साहित्य की पठन रूचि की अभिवृद्धि  हुई। लेखक की यह सभी कहानियां हमारे आस पास के बाह्य जगत के साथ हमारे अंतर्जगत की भी अद्भुत सैर करवाती है। इनमें पशु-पक्षी, स्थावर-जंग भी मनुष्य रूप में व्यवहार और बातें करते, अपना निर्णय व्यक्त करते दिखाए गए हैं। चाहे वह मिट्ठू कहानी का बंदर हो या पागल हाथी का मोती हाथी अथवा दो बैलों की कथा के हीरा- मोती जैसे यादगार चरित्र।
          कुत्ते की कहानी बाल/किशोर उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया अपने कथ्य और शिल्प में अनूठा उपन्यास है जिसे प्रेमचंद ने अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले ही लिखा था। 14 जुलाई 1936 को इसकी भूमिका में बच्चों से बात करते हुए उन्होंने लिखा- प्यारे बच्चों तुम जिस संसार में रहते हो वहां कुत्ते-बिल्ली ही नहीं पेड़-पत्ते और ईट-पत्थर तक बोलते हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे तुम बोलते हो और तुम उन सब की बातें सुनते हो और बड़े ध्यान से कान लगाकर सुनते हो, इन बातों में तुम्हें कितना आनंद आता है। तुम्हारा संसार सजीवों का संसार है उसमें सभी एक जैसे जीव बसते हैं। उन सब लोगों में प्रेम है, भाईचारा है, दोस्ती है और जो सरलता साधु-संतों को बरसों के चिंतन और साधना से प्राप्त नहीं होती...... तुम देखोगे कि यह कुत्ता बाहर से कुत्ता होकर भी भीतर से तुम्हारे ही जैसा बालक है वही प्रेम और सेवा तथा साहस और सच्चाई है, जो तुम्हें इतना प्रिय है।"
          मानव समाज की विसंगतियों पर सटीक व्यंग करता यह बाल उपन्यास केवल मनोरंजन कथा ही नहीं है बल्कि बच्चों के ह्रदय में जीव-जंतुओं के प्रति करुणा, सम्मान का भाव जागृत करना भी सका उद्देश्य है। जीव-जंतुओं का यह जगत लेखक के ग्रामीण परिवेश का ही अटूट हिस्सा है। यह सच है कि पशु-पक्षियों का संसार बच्चों का प्रिय संसार है। इसलिए ऐसे पात्रों से बच्चे ज्यादा लगा महसूस करते हैं। इस उपन्यास का नायक ‘कल्लू’ कुत्ता बच्चों में सहृदयता और संवेदनशीलता का बीजवपन करने में पूरी तरह समर्थ है। यहां लेखक समाज की विद्रूपताओं और भ्रष्ट व्यवस्था की पोल खोलता बताता है- चौधरी बोले- जी पुलिस का ढकोसला बहुत बुरा होता है, अभी आकर कुछ न कुछ चूसते ही हैं। मैंने तो इतनी उम्र में सैकड़ों बार इत्तिलाएं की, मगर चोरी गई हुई चीज कभी वापस न मिली। यह संवाद बताता है कि देश की पुलिस का चरित्र इतने बरस बीतने पर भी नहीं बदला। तुलसीदास तो बहुत पहले कह गए थे ‘पेट कि अग्नि’ सबसे बड़ी है प्रेमचंद यहाँ इसे कुछ और स्पष्ट करते हुए कहते हैं- पेट भी क्या चीज है, इसके लिए लोग अपने पराए को भूल जाते हैं, नहीं तो अपनी सगी माता और अपना सगा भाई क्यों दुश्मन हो जाते पेट की इसी व्यवस्था के चलते लेखक बच्चों के खेलने में नैतिक मूल्यों, मानवीयता संवेदनशीलता का स्त्रोत पर प्रवाहित करना चाहता है।
          श्रेष्ठ बाल साहित्य के बारे में धारणा यह है कि वह बच्चों को गुदगुदाय, उनका मनोरंजन करे। साथ ही उनकी समस्याओं और जिज्ञासाओं का समाधान उपदेश या यथार्थ से हटकर दें। दो अलग-अलग तरह के बाल मनोविज्ञान प्रस्तुत करती बड़े भाईसाहब कहानी शिक्षण व्यवस्था पर व्यंग का तोता रटंत प्रणाली और परीक्षा पद्धति पर प्रश्न चिन्ह अंकित करती है। कहानी को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए लेखक ने छोटे भाई को चुना। यहां बड़ा भाई परंपरावादी और सिद्धांतवादी है जबकि छोटा भाई समय व परिस्थिति के हिसाब से पढता है और पास होता जाता है  अंत में बड़े भाई साहब लकीर का फकीर, किताबी कीड़ा और खोखली परंपरा की दीवारों को लांघकर छोटे भाई की कलाई थामे अपनी उमंगो और आकांक्षाओं के आसमान की दौड़ने की ठानते हैं। यहां बड़े भाई की डांट व  उपदेश तथा छोटे भाई की शरारतें और उसका भय पूरी तरह से बाल मनोविज्ञान को उजागर करता है- मैं फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता था'दो बैलों की कथा में मोती बदला लेना चाहता है, उस मालिक से जो उसे झूरी के यहां से जबरदस्ती ले आया है, लेकिन उसके मन में तुरंत ख्याल आता है इससे तो वह बालिका अनाथ हो जाएगी, जो उसे रोटी खिलाती है। यहाँ हीरा-मोती बैलों के जरिए लेखक अपने मालिक के प्रति वफादारी, आजादी की प्रतिध्वनि, मानवीयता और करुणा को सामने लाते हैं। इस कहानी में जीवों में निकृष्ट, मूर्ख, सीधा कहे जाने वाले गधे की प्रवृत्ति और मनोदशा का वर्णन करते हुए लेखक अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों के सद्गुणों के प्रति आदर भाव को विकसित करना चाहता है- “उसके चेहरे पर विषाद अस्थाई रूप से छाया रहता है। सुख-दुख हानि-लाभ किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं दिखता। ऋषि मुनियों के जितने गुण है, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुंच गए हैं पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर। प्रेमचंद बाल कहानियों की रचना करते समय सदा सजग रहते हैं कि बाल साहित्य सैद्धांतिक विचार भूमि से हटकर सरल सहज बाल मनोविज्ञान पर आधारित हो। स्वयं उनके शब्दों में- “तत्वहीन कहानी से चाहे मनोरंजन भले हो जाए, मानसिक तृप्ति नहीं होती। यह सच है कि हम कहानियों में उपदेश नहीं चाहते, लेकिन विचारों को उत्तेजित करने के लिए मन के सुंदर भाव को जागृत करने के लिए कुछ न कुछ अवश्य चाहते हैं....
          ईदगाह के चिरस्मरणीय पात्र हामिद के चरित्र को पढ़कर यह सवाल उठता है कि इतनी छोटी उम्र का बच्चा यकायक अपनी उम्र से अधिक बड़ा होकर अपनी दादी के प्रति आखिर इतना संवेदनशील कैसे हो गया? बाल स्वभाव तो चंचल, बेपरवाह और मस्त मौला होता है। मेले में जहां अन्य बच्चे अपने लिए खिलौने, मिठाइयां लेकर, झूला झूल कर आनंद लेते हैं वहीँ हामिद लोहे का चिमटा कैसे ले सकता है? लेकिन यह कहानी मानवीय मूल्यों और बालिकाओं की कहानी है। यहां बच्चे का अपने बूढी निराश्रित दादी के प्रति अगाध प्रेम भी है उसे समय परिपक्व बना देता है। यह कहानी बच्चों को एक सीधा सरल संदेश देती है कि हमें अपनी खुशियों, आनंद और स्वार्थ के साथ साथ दूसरों के कष्टों और उनकी खुशियों की चिंता भी करनी चाहिए चाहे वे ‘फौलादी हथियार’ चिमटा के प्रति आकर्षित होते मित्रगण हों या रोटी बनाते समय दादी की जलते हाथों की। इसी तरह कजाकी कहानी एक डाकिये और बालक के निश्चल प्रेम की कथा है। काम में देरी होने पर पिता द्वारा उसे काम से निकाले जाने पर भावुक  बच्चे का अहं और मासूम सोच संवेदनशीलता और बाल मनोविज्ञान की एक नई परिभाषा गढ़ती है- “उस वक्त मेरा जी चाहता था कि मेरे पास सोने की लंका होती तो कजाकी को दे देता और बाबूजी को दिखा देता कि आपके पास निकाल देने से कजाकी का बाल भी बांका नहीं हुआ या कजाकी को रोज बुलाने के लिए मेरे पास कोहिनूर हीरा भी होता तो उसको भेंट करने में मुझे पसोपेश ना होता
          अन्य कहानियों में नादान दोस्त केशव और श्यामा नामक भाई बहन की कहानी है जो चिड़ियों के अंडों (बच्चों) के लिए खाने-पीने और देखभाल की व्यवस्था करते हैं पर जो अनजाने में ही रक्षा में हत्या का कारण बनती है। बालमन से व्याप्त पंछी-प्रेम सहानुभूति, परोपकार और बाल-नादानी की कथा अत्यंत रोचक है।
          मित्रता के सरल भाव, उत्साह, अनुशासन तथा जाति वर्ग भेद स परे साख्य प्रेम को दर्शाती गुल्ली-डंडा कहानी लोक प्रचलित पारंपरिक खेल गुल्ली डंडे को भी स्थापित करती है। परीक्षा नामक कहानी जानकीनाथ के माध्यम से ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, आत्मबल और धीरता की सीख देती है। इसी तरह मंत्र कहानी गरीब फटे-हाल बूढ़े वैद्ध भगत के माध्यम से सज्जनता, उदारता, दया और मानवीयता का संदेश देने में पूरी तरह समर्थ है। यह सभी कहानियां बच्चों को एक संवेदनशील मनुष्य के रूप में विकसित होने की स्थितियां देती है साथ ही उनकी कल्पना शक्ति को भी उर्वर बनाती है तथा सामाजिक नैतिक मूल्यों के प्रति जागरुक भी करती है।
          इन कहानियों की चित्रात्मकता हृदयग्राही है। सरल भाषा-शैली और संक्षिप्त रोचक सह संवाद बालमन और ज्ञान के अनुरूप जिज्ञासा का शमन करने वाले हैं। सजीवता, गतिशीलता नाटकीय तत्वों से भरपूर इन कहानियों के संवाद चरित्रों की पूरी छाप छोड़ने में सक्षम हैं
          
          आज के बच्चे कंप्यूटर गेम्स और महंगे मोबाइल के छदम जाल की गिरफ्त में कैद होते जा रहे हैं, जिससे उनमें संयम, धैर्य, उदारता, सौहार्द, मानवीयता, सम्मान जैसे नैतिक मूल्यों का क्षय हो रहा है। वह सकारात्मकता की प्रवृत्ति छोड़ नकारात्मकता की ओर बढ़ रहे हैं। आज हमारा समाज विभिन्न विसंगतियों, वैषम्यों, विद्रूपताओं और विकृतियों से जूझता हुआ नैतिक अवमूल्यन के दौर से गुजर रहा है जहाँ मानवीय संबंध तार-तार हो रहे हैंजाति, वर्ग, धर्म,छद्म अस्मिताएं अपने ध्वज फहरा रही हैं और सामाजिक संबंधों का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा हैऐसे समय में प्रेमचंद के बाल साहित्य की आवश्यकता और बढ़ गई है जो आज के संदर्भ में एक बार फिर बच्चों को दिशा बोध देकर एक अच्छा नागरिक बनने की प्रेरणा दे सकता है, सकारात्मक मूल्यों का विकास कर सकता है।





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