संकट में हिमालय !!
समस्त राष्ट्रीय सुरक्षा की उपेक्षा कर भारत की अब तक की तमाम केंद्र सरकारें एवं हिमालय क्षेत्र में स्थित राज्यों
की सरकारें नगाधिराज हिमालय के विनाश के लिए कटिबद्ध हो चुकी हैं, जबकि हिमालय के विनाश का अर्थ है
संपूर्ण आर्यावर्त की संस्कृति
सभ्यता परंपरा एवं वहां के
जन सामान्य के जनजीवन का विनाश। भारत ही नहीं, अपितु विश्व की समस्त भूगर्भशास्त्रियों एवं मूर्धन्य पर्यावरणविद ने
अनावश्यक रुप से हिमालय के साथ छेड़छाड़ करने को समस्त उत्तराखंड ही नहीं अपितु
संपूर्ण उत्तर संपूर्ण भारत के विनाश के लिए खुली चुनौती के रूप में स्वीकार किया
है; क्योंकि हिमालय एक संवेदनशील पर्वत
है।
इसकी विशेषता, महत्ता एवं उपयोगिता विश्व के अन्य पर्वतों से
अधिक है; क्यूंकि इस पर अनेक जीवनदाई वृक्ष-वनस्पतियों, औषधियां तो प्राप्त होती है, जल
का विशाल स्त्रोत भागीरथी गंगा के
रूप में भी हमें उपलब्ध होता है। यमुना को छोड़कर उत्तराखंड की समस्त नदियों
का मिलन गंगा में उत्तराखंड की भूमि में ही होता है। जो इतना
संवेदनशील पर्वत हो, उस पर गंगा जैसी नदी
को रोककर अनेकों बाँध बनाना तथा उसके
समस्त प्राकृतिक मार्ग को अवरुद्ध कर सुरंगों से
निकालना एक भयंकर विनाशकारी प्राकृतिक आपदा का निमंत्रण देना ही है। सुरंगों के निर्माण में जितने बारूद एवं विस्फोटक
सामग्री का प्रयोग होता है, उससे आस-पास रहने वाले सामान्य जीव-जंतु
से लेकर हिमालय के पुत्र मनुष्यों पर इतना विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है कि वहां का
पर्यावरण दूषित हो जाएगा और जापान के नागासाकी तथा हिरोशिमा- जैसी भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। ऐसी
परिस्थिति में पर्वत पुत्र हिमालय वासियों को अपनी जन्मभूमि का परित्याग करने के
लिए या उसी दूषित वातावरण में रहकर जीवन नष्ट करने के लिए विवश होना पड़ेगा।
हमारी सरकारें अपनी अदुर्दर्शिता के कारण इस भयावह सत्य न स्वयं समझती है और जनता को समझने देती है। गंगा जैसी विशाल, सदानीरा, सतत प्रवाहमान नदी को केवल तुच्छ लाभ (विद्युत-उत्पादन) के वशीभूत होकर प्रदेशवासियों एवं
देशवासियों को मिथ्या विकास दिखाकर (वास्तव में विनाश) सरकार उनसे छल
कर रही है।
टिहरी बांध की योजना की पोल तो खुल ही चुकी है, जिसके संबंध में महान लाभों
का सपने दिखा कर स्थानीय जनता एवं प्रदेशवासियों को धोखा दिया गया था।
वैज्ञानिकों के द्वारा इस बांध के निर्माण की योजना को अस्वीकार किए जाने पर भी
विदेशी ऋण प्राप्त करने के लोग में जब इसका निर्माण अपनी हठधर्मिता के कारण सरकार
ने प्रारंभ किया, तब अनेक दूरदर्शी व्यक्तियों ने बांध-निर्माण
की हानी को दर्शाते हुए
अनेकों लेख लिखे तथा
वहां जाकर उस स्थल का निरीक्षण भी किया।
वहां के निवासियों को क्रूरता पूर्वक उजाड़
दिया गया बिना कुछ व्यवस्था के ही दर-दर भटकने के लिए विवश किया गया तथा आज तक भी निर्वासित पर्वत पुत्र
हिमालय वासियों के पुनर्वास में कोई समुचित व्यवस्था नहीं की गई।
बांध की चपेट में आने वाले भू-भागों में
अनेक प्रकार की दुर्लभ एवं दिव्य औषधियों का
विनाश तो हुआ ही, वहां का पर्यावरण भी भयंकर रूप
से प्रभावित हुआ। स्थानीय लोगों का कहना है कि टिहरी बांध से पहले तथा सुरंगों में गंगा को डालने से पूर्व यहां कोहरा नहीं पड़ता था।
यहां तक कि हम कोहरे के विषय में अपरिचित से थे। अब प्रातः १० बजे तक कभी-कभी तो पुरे दिन ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं पंजाब, हरियाणा की भांति यहाँ कोहरा पड़ता है। जहाँ
प्रातः काल जनवरी-फरवरी के महीने में धूप खिली रहती थी, वहीँ अब दिन-भर
कोहरा छाया रहता है,जिससे वहां की वृक्ष-वनस्पतियाँ,
जो टिहरी बांध के जलागार में
नहीं आई थी अर्थात उसकी सीमा से बच गई थी दुष्प्रभावित हो गई है।
किसी भी सरकार को वहां के नागरिकों के ऊपर अत्यंत नृशंस अत्याचार करने का
अधिकार नहीं है, परंतु विडंबना है कि यह सब कुछ अकल्पनीय अत्याचार
राजतंत्र में नहीं, अपितु विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र
कहे जाने भारत में ही हुआ है और हो रहा है। अनेक वर्ष हो
गए जिस कुंड को बरसाती जल से भरने की योजना बताई
गई एवं जनता को झूठा आश्वासन दिया गया, वह
कुंड मार्च, अप्रैल, मई में आश्वासन
के विरुद्ध उस जल से भरा जाने लगा,
जिससे कृषक अपना खेत सींचते थे, उनके सामने समस्या हुई और हाहाकार मचा।
सुना जाता है कि जितने जल से टिहरी बाँध का विशाल
सरोवर भरा जा सकता था, उससे अधिक जल उसमें में
आ चुका है, किंतु वह आज भी अपूर्ण है। विशेषज्ञों एवं प्रत्यक्षदर्शियों
के अनुसार जल दोनों की पहाड़ियों के नीचे जा रहा है और अब तो पार्श्ववर्ती पहाड़ियाँ नीचे धंसने लगी
है और उसमें दरार भी आ गई है। यह सारे ही लक्षण
हिमालय के विनाश की सूचना दे रहे हैं, किंतु प्रजातांत्रिक जाने वाली सरकार
के कान पर जूं नहीं रेंगती हुई दिखाई देती है। सरकार
दृष्टिहीन एवं मूक बनी हुई है। जब उस भयानक कुकृत्य को रोकने के लिए सरकार
पर प्रभाव डाला जाता था तो वहां से जो उत्तर आता था वह किसी स्वस्थ मस्तिष्क का परिचायक
नहीं होता था। सरकार का मानना है कि इस कार्य पर बहुत अधिक रुपया किया
जा चुका है इसलिए अब रोकना
उचित नहीं है, जो मूर्खतापूर्ण ही नहीं बल्कि बौद्धिक दिवालियेपन की प्रतिक है। वास्तविकता यह
है कि इस बांध तथा अन्य बांधों के निर्माण की योजना प्रकृति के कोप को आमंत्रित करने वाली है। यह
गंगा का विनाश अत्यंत हानिकारक होगा।
यही नहीं, इस प्रकार से गंगा के विनाश के साथ ही उत्तराखंड
एवं हिमालय का विनाश कर हिंद महासागर एवं अरब सागर से उठने वाला मानसून को रोककर समस्त उत्तर
भारत, पूर्वोत्तर प्रदेश तथा पश्चिम प्रदेश;
यहां तक की संपूर्ण भारत को मानसून-वृष्टि के
द्वारा हरा-भरा बनाने वाले तथा जीवन प्रदाता हिमालय का विनाश करने वाले लोग
भयंकर राष्ट्र घातक कहे जा सकते हैं;
क्योंकि हिमालय के विनाश से भारत का
पूर्ण भूभाग मरुभूमि में परिणत हो जाएगा। अपने संतानों की जीवन की रक्षा एवं
विश्व-पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हिमालय की
प्राणभूत गंगा का विनाश करना अक्षम्य अपराध है। यह हमारा दायित्व है कि हम गंगा को प्राकृतिक रूप में बहने दें तथा
उसके प्राकृतिक रूप में प्रवाहमान स्थिति में जो कुछ
अपना सहयोग कार सकते हैं, करें। गंगा बचेगी तो हिमालय बचेगा और हिमालय
बचेगा तो भारत बचेगा। गंगा का विनाश हिमालय का विनाश है और हिमालय का विनाश
आर्यावर्त राष्ट्र का है और तब हम यह कैसे कह पाएंगे कि हमारे देश की उत्तर दिशा में पर्वतराज हिमालय
है जो पृथ्वी के मानदंड सदृश है।
अतः पृथ्वी के इस मानदंड की रक्षा करना हम-आप सभी का धर्म एवं पुण्य कर्म है।
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