वर्तमान परिदृश्य में हमारी शिक्षा एवं शिक्षक की भूमिका !!
मानव विकास की यात्रा का अत्यधिक रोचक है। सभ्यता
के प्रथम चरण के शैशव में मनुष्य अपनी उन जीविका के लिए
प्रकृति पर निर्भर था। शिक्षा का श्रीगणेश हुआ तब उसने कृषि-कार्य
अपनाया तथा अपने जीवन में सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों को भी धारण किया। वैदिक
युग में ऋषीयों ने शिक्षा के दो प्रमुख
उद्देश्य निर्धारित किए। प्रथम उद्देश्य के अनुसार ‘प्रत्येक शिक्षित
व्यक्ति को आत्मनिर्भर होना चाहिए’ तथा द्वितीय उद्देश्य के
अनुसार ‘प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति को परोपकारी होना चाहिए।‘
शिक्षा
शब्द का अर्थ अत्यंत व्यापक है। यह जीवन की दीप शिखा है। शिक्षा
और श्रम का अंतरंग संबंध है। आज समाज के लोग दो श्रेणियों में बटें
हैं। ‘एक बुद्धिजीवी समाज है और दूसरा श्रमजीवी समाज है।‘
हम नए समाज की संकल्पना के अनुसार यह चाहते हैं कि लोगों में
शिक्षा के माध्यम से सूझ-बुझ, समझदारी,
निर्णय की शक्ति, आत्मबल, वैचारिक साहस, बुद्धिमत्ता तथा वैज्ञानिक
चेतना विकसित हों। इसके लिए हमारी बुद्धि, हमारी विवेक को
शरीर-श्रम के साथ संयुक्त करना आवश्यक है। भावी पीढ़ी
के लोगों को अपना जीवन-यापन, शरीर-श्रम
एवं विज्ञान-सम्मत विचारों के आश्रय से करना होगा। अपनी जीविका के
लिए स्वयं पेशा, हुनर
को
सीखना होगा। स्वरोजगार भविष्य मात्र की नहीं वर्तमान की अनिवार्यता बन गया है। मानसिक श्रम
की भी आवश्यकता समाज सेवा के लिए अनिवार्य है क्योंकि शिक्षित व्यक्ति को व्यवसाय,
संगठन, कला, साहित्य आदि सभी प्रकार की
रुचियों को सामाजिक विकास के लिए सेवा-कार्य
के रूप में स्वीकार करना होगा।
शिक्षा
चाहे
वह स्वदेशी हो, या विदेशी;
भारतीय
हो या अंग्रेजी मानव जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया है जो व्यक्ति को पशुता
से ऊपर उठकर मानव बनाने, असुंदरता से
सुंदरता, अकल्याण से कल्याण,
असत्य से सत्य की ओर ले जाने वाली प्रेरणा तथा क्षमता प्रदान करती है।
लेकिन
आज शिक्षा की स्थिति दयनीय है, और उसके नाम पर रह जिन परतन्त्रताओं का पोषण किया जाता है, उनमें
‘एक स्वतंत्र और स्वस्थ मनुष्य का जन्म संभव नहीं है।‘
शिक्षा ने मनुष्य को प्रकृति से अलग कर दिया लेकिन संस्कृति उससे
पैदा न हो सकी, पैदा हुई- विकृति। इसी विकृति को प्रत्येक
पीढ़ी नई पीढ़ीयों पर थोपने का कार्य कर रही है,
जिसके
कारण
मानवता खतरे में पड़ गई है। इसका मूल-भूत कारण शिक्षा में
ही निहित है। अगर यह बात में
सच्चाई
नहीं होती तो मनुष्य का जीवन इतनी घृणा,
अहिंसा और अधर्म का नहीं होता। ‘बीज अगर विषाक्त होगा तो फल अच्छा कैसे हो सकता
है। मनुष्य गलत है तो निश्चित ही शिक्षा सम्यक नहीं है।‘
शिक्षा
के समक्ष आज सबसे अहम समस्या है- मनुष्य की
दृष्टि। क्या यह अब संभव नहीं हो सकता है कि हम जीवन को उसी नजरिये से देखें, जैसा कि हमारे पूर्वजों ने देखा होगा?
आज
की शिक्षा
व्यक्ति के चित्त को इतना बोझिल तथा बूढ़ा बना दिया है कि
इसका जीवन से सीधा संपर्क छिन्न-भिन्न हो गया है। बूढा चित्त
जीवन के ज्ञान, आनंद और सौंदर्य
सभी से वंचित रह जाता है। इस अनुभूति के लिए युवा चित्त
चाहिए। ऐसा चित्त ही धार्मिक चित्त है। आज
व्यक्ति सिर्फ दूसरों के विचारों और शब्दों में कैद हो जाते हैं,
तो सत्य के आकाश में स्वयं की उड़ान की क्षमता ही नष्ट हो जाती है।
विचार संग्रह
से विचार और विवेक का जन्म नहीं हो सकता। यह जो जड़ता
दिखाई
पड़ती है, उसको पैदा करने में शिक्षा और शिक्षक ने अहम भूमिका निभाया। शिक्षा
के माध्यम से मनुष्य के चित्त को परतन्त्रताओं की जंजीरों से
बांधा जाता रहा है। शोषण पुराना है और इसके कारण हैं-
धर्म, राजतंत्र, समाज के न्यस्त स्वार्थ, धनपति, सत्ताधिकारी।
शासक
कभी भी नहीं चाहेगा कि मनुष्य के मन में विचारों की उत्त्पत्ति हो, क्योंकि जहाँ
विचार है वहां विद्रोह का बीज है। क्योंकि विचार के पास देखने,
सुनने, परखने की अतुल शक्ति होती है।
इसलिए शासक सिर्फ विश्वास के पक्ष में रहता है, क्योंकि यह अंधा
होता है। मनुष्य अंधा हो तो उसका शोषण हो सकता है। इसलिए विश्वास सिखाई
जाती है, आस्था सिखाई जाती है, श्रद्धा सिखाई
जाती है। शासनाधिपति को विचार से भय हैं, विचार जागृत
होगा तो न तो वर्ण होगा और न ही वर्ग हो सकते हैं। विचार के साथ
क्रांति आती है और मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाली कोई दीवार नहीं बच
सकता है। विचार के अभाव में व्यक्ति निर्मित नहीं हो सकता है। स्वतंत्र चिंतन
और विचार- आज की शिक्षा का आधार होना चाहिए तभी हम मानवता को
बचा सकते हैं।
विद्यालय
में
अगर अनुशासन की जगह विवेक सिखाया जाए, आज्ञाकारिता की जगह विचार
सिखाया जाए तो निश्चित ही दुनिया दूसरी हो सकती है। शिक्षा अनुशासन देने की नहीं,
आत्म- विवेक देने कि होनी चाहिए। आज जीवन-मूल्य
को बदलाव बदलना होगा, तभी नए मनुष्य का जन्म हो सकता है। शिक्षा
ऐसी होनी चाहिए जो अभय सिखाए, अलोभ में प्रतिष्ठा
दे। साहस दे, अज्ञात की
चुनौती को मानने की हिम्मत दें। इर्ष्या,
प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम सिखाएं। यह काम शिक्षक ही कर सकता है जब
वह स्वयं आग्रही और पक्षपातों से मुक्त हो। इसलिए शिक्षक
होना बड़ी साधना है। इसके लिए उसमें अत्यंत विद्रोही, सजग तथा
सचेत आत्मा चाहिए। शिक्षक को बहुत विध्वंस करना होगा अभी वह सृजन कर सकता है,
उसे परंपराओं से छोड़ा गया बहुत सा घांस-पात
जलाना होगा तभी उस पर प्रेम के और सौन्दर्य
के फूल की खेती हो सकेगी। यदि शिक्षक इसे पूरा कर दे तो एक नए मानवता का जन्म हो सकता है।
शिक्षा
की प्रक्रिया जीवन
के अनुभव
की सबसे बड़ी पाठशाला है। शिक्षा, अनुभव की प्रोढ़ता से जीवन परिवार, समाज,
राष्ट्र की गुत्थियों को सुलझाने एवं निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करती है।
प्लेटो के शब्द आज भी विचारणीय है ‘देह
और आत्मा में अधिक से अधिक जितने सौंदर्य और जितनी संपूर्णता
का विकास हो सकता है, उसे ही संपन्न करना शिक्षा का उद्देश्य है।‘
स्वामी विवेकानंद ने ठीक ही
कहा है कि ‘शिक्षा जीवन की
सम्पूर्ण शिक्षा है और सम्पूर्ण जो मानव के अन्दर गुप्त रूप से विद्धमान रहती है, उसे प्राप्त
करना शिक्षा का कार्य है। परन्तु दुर्भाग्य से यह भी लिखना पड़ रहा है कि इंग्लैंड
के प्रख्यात दार्शनिक तथा गणितज्ञ हेनरी टामस कोलब्रुक (1765-1837) जिन्हें 'यूरोप का प्रथम
महान संस्कृत विद्वान' माना जाता है, ने भारतीयों
को गुरु के रुप में स्वीकार करने के वाबजूद कहा है कि ‘The Hindus where
teachers but not learners.’
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