कृष्ण भक्त अंग्रेज 'रोनाल्ड निक्सन' !!


बीसवीं सदी में इंग्लैंड में एक महान कृष्ण भक्त हुए हैं, जिनका नाम था- रोनाल्ड निक्सन। श्रीकृष्ण के प्रेम में आकंठ डूबे रहने के कारण इनका नाम कृष्णप्रेम विख्यात हुआ।
          रोनाल्ड निक्सन के जन्म 20 मई 1818 को इंग्लैंड के एक आस्थावान परिवार में हुआ था। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से उच्च सम्मान के साथ स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उनमें आध्यात्मिक ज्ञान-पिपासा जाग उठी थी और उन्होंने ईसाई-धर्म, बौद्ध-धर्म, और थिओसोफी-ग्रंथों का अध्ययन किया। इसी बीच प्रथम विश्वयुद्ध छिड चूका थारोनाल्ड निक्सन वायु सेना में भर्ती हो गये अधिकारी का आदेश मिलने पर वे अपना विमान लेकर बेल्जियम पर बमवर्षा  करने हेतु निकल पड़ेदुश्मन की सतर्कता से उनके अनेक साथी वीरगति को प्राप्त हुए निक्सन के विमान पर भी हमला हुआ, किंतु तभी उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि दूर आकाश में एक गुफा से निकलकर कोई दिव्य प्रकाश उनके भीतर प्रविष्ट हो गया है। वह प्रकाश ही मनो अर्धचेतना -अवस्था में उनके विमान को बहुत ऊपर उडाये ले जा रहा है अमिट ऊँचाइयों पर उनकी चेतना लुप्त हो गयी।
          होश आने पर उन्होंने देखा कि वह लंदन के एक अस्पताल में भर्ती हैं। उन्हें फिर उसी दिव्य प्रकाश की अनुभूति हुई और ऐसा आभास हुआ कि कोई उन्हें भारत जाकर नअध्यात्मिक चेतना के संधान की प्रेरणा दे रहा है। आखिर वे रॉयल एयरफ़ोर्स से इस्तीफा देकर भारत आ गए। वह लखनऊ आकर लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर ज्ञानेंद्रनाथ चक्रवर्ती से मिले चक्रवर्ती साहब ने रोनाल्ड निक्सन की साहित्य-निपुणता के साथ-साथ धर्म-संस्कृति एवं  अध्यात्म की जिज्ञासा देखकर उन्हें अपने विश्वविद्यालय में अंग्रेजी-प्राध्यापक के पद पर नियुक्त कर दिया।
          डॉ चक्रवर्ती के साथ उनके घर पर रहकर अध्यापन का कार्य करने लगे। चक्रवर्ती की पत्नी श्रीमती मणिका देवी सुशिक्षित महिला होने के साथ-साथ अत्यंत उदार, स्नेहमई एवं धार्मिक प्रवृत्ति की थी। वे सहज स्नेहवश निक्सन को गोपाल कहतीं और निक्सन उन्हें मां कह कर बुलाते। इसी बीच निक्सन पाली-भाषा सिख बौद्ध ग्रंथ का अध्ययन किया, तदनुसार योग का अभ्यास भी किया किंतु आत्मा की भूख शांत नहीं हुई। फिर उन्होंने संस्कृत भाषा सीखकर वेद, उपनिषद, गीता आदि का गहन अध्ययन किया
          श्रीमती मणिका देवी जो बाह्य वेश-भूषा एवं आचार-विचार में पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित दिखाई पड़ती थी, किंतु उनके अन्तःकरण में श्री कृष्ण प्रेम एवं भक्ति की दिव्य सलिला प्रवाहमान रखती थी और उनका बेटा निक्सन (गोपाल) मां से उनके आध्यात्मिक संपदा की भिक्षा मंगा करता था।
          आखिर मां ने इस अंग्रेज बेटे के सामने अपनी कृष्ण-प्रेम के रहस्य प्रकट करती है और बेटा भी अब समस्त चेतना को भक्ति मार्ग के पथिक रुप में श्रीकृष्ण की मधुर-मोहन भाव मूर्ति में सन्निविष्ट कर नवीन भावलोक का यात्री बन गया। डॉ चक्रवर्ती जब बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में बनारस आ गए तो मां के साथ साथ उनका बेटा भी लखनऊ से वहां आ गया।
कुछ समय पश्चात डॉ चक्रवर्ती का स्वर्गवास हो गया। बाद में मणिका देवी की उपस्थिति में गंगातट स्थित राधाबाग में नियमित रूप से भगवत पाठ एवं कीर्तन होने लगा कुछ दिनों पश्चात मणिका देवी वृन्दावन चली गयीं एवं वहां से दीक्षित होकर यशोदा माँ हो गयी एवं बाद में उन्होंने निक्सन(गोपाल) को भी खुद दीक्षित किया और निकासन का नाम अब कृष्णप्रेम हो गया उसके बाद यशोदा माँ(मणिका देवी)ने हिमालय की गोद में अल्मोड़ा के निकट एक आश्रम बनाया उत्तर वृंदावन। यहां वह अपनी पुत्री मतिरानी और धर्मपुत्र कृष्णप्रेम के साथ श्री कृष्ण की प्रेमभक्ति में निमग्न रहने लगी
           यशोदा मां के निकट कृष्ण प्रेम की साधना भक्ति नित्य-नूतन अधिकाधिक गहन होती गई। यशोदा मां के बाल-गोपाल उनके भाव जगत में नित्य-नई लीला करते और मैं अक्सर उसी आनंद में डूबी रहतीं। कृष्णप्रेम स्वामी विवेकानंद की भांति उनके सामने अनेक आध्यात्मिक, भक्तिपरक जिज्ञासाएं प्रकट करते हो और मां गुरु परमहंस रामकृष्ण की भांति उनका सहज समाधान कर देतीं। यशोदा मां के सम्मुख उनका ठाकुर बालरूप में लीलाएं करता, कभी बाह्य जगत में तो कभी आतंरिक जगत में  
          एक बार यशोदा मैं गहरी नींद में सो रही थी कि उनके ठाकुर बाल-गोपाल उन्हें आकर झझकोर कर उठायामाँ ! माँ! देखो मुझे चीटियां काट रही है तुम यहां आराम से सो रही हो। माँ अचकचा कर उठ बैठीं। देखा- नन्हे गोपाल के दोनों होंठ सूज कर लाल हो रहे हैं। वे तुरंत पूजा गृह में गयीं। देखा- शहद की शीशी ठाकुर के पास रखी है और उसमें चीटियाँ इकट्ठी हो गई है। मां के नेत्र सजल हो उठे। मेरे बाल-गोपाल को इतना कष्ट ! क्षमा मांगी। शहद की शीशी वहां से हटाई। गोपाल के शरीर से चीटियां झाड़ी और अपने ही निकट बिस्तर पर सुला लिया।
          यशोदा मां से उनकी वात्सल्य भक्ति की यह गाथा सुन कृष्णप्रेम के नेत्र भी जल धारा स्त्रावित करने लगे। उनका विश्वास दृढ हो गया कि उनका सेवित बाल-गोपाल मूर्ति नहीं अपितु सजीव है और भक्त की भावना के अनुसार प्रकट होकर लीला भी करता है। उनका स्वयं उन ठाकुर के प्रति बड़े भ्राता का भाव जाग्रत हो उठा छोटे-से लाडले भाई के समान अब वे ठाकुर बाल-गोपाल से व्यवहार करते और अपने समर्पण भाव तथा नित्य-नूतन प्रेम से उन्हें रिझाते
          एक बार कृष्ण प्रेम ने बड़े प्रेम से ठाकुर के लिए हलवा बनाया। भोग निवेदन कर पूजागृह के द्वार बंद कर दिए और स्वयं ध्यानमग्न हो गए। उन्हें आभास हो गया कि आज ठाकुर ने बड़े प्रेम से हलवा ग्रहण है। उन्होंने द्वार खोले तो देखा कि ठाकुर आधे से अधिक हलवा खा गए हैं उनकी नन्हे उंगलियों के निशान हलवे में बने हैं। कृष्णप्रेम यह देखकर भावुक होकर नृत्य करने लगे।
          एक दिन कृष्णप्रेम गहरी नींद में सो रहे थे कि उनके कानों में मंदिर से आवाज आई- दादा ! दादा ! उन्हें लगा शायद मेरा भ्रम हैभला मंदिर में कौन बोल सकता है? वह नहीं उठे। फिर उन्हें दादा.... की पुकार सुनाई दी। वे उठकर मंदिर में पहुंचे। निकट पहुंचते ही ठाकुर बाल-गोपाल उनसे बोले- दादा ! ठंड लग रही है,  देखो जंगला खुला है। कृष्णप्रेम ने झट जंगला बंद किया और ठाकुर जी को गर्म शाल ओढ़ाकर सुलाया, मगर उनसे कहने लगे ठाकुर ! क्या तुम्हें भी ठंड लगती है। सुनते ही ठाकुर के नेत्रों से अश्रुबिंदु टपक पड़े। यह देख कृष्णप्रेम का हृदय पिघल उठा। उनके अश्रु पोंछ वे स्वयं अश्रु बहाते उन्मत्त होकर नाचने लगे। ठाकुर का पुकारा हुआ शब्द दादा उनके हृदयपटल पर सदा के लिए अंकित हो गया। वे जान गए कि आप्तकाम ठाकुर भक्तों की कामना के अनुरूप स्वयं अपनी इच्छा प्रकट करता है। ठाकुर के जैसे भक्त के अश्रु बन गए ये अश्रु ही तो हैं भक्त की प्रेमपूर्ण सम्पदा

कृष्णप्रेम अपनी भावसमाधि में राधाकृष्ण की लीला का दर्शन करते, साथ ही बड़े-बड़े आत्मज्ञानी महापुरुषों का भी सूक्ष्म दर्शन करतेमंदिरों की मूर्तियों में उन्हें साक्षात अपने इष्ट के सजीव दर्शन होते तथा उनसे प्रभावित हो अनेकों देसी-विदेशी भक्तों ने प्रेरणा ग्रहण किया। कृष्ण प्रेम की सरिता बहाने वाले इस वैष्णव भक्त ने 14 नवंबर 1965 के दिन स्वयं कृष्ण प्रेम की ऐसी समाधी लगाई कि फिर बाहर ही नहीं निकले


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