धारा 377 का निरस्त्रीकरण ~ भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात !!


नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले
नूपुरे त्वभिजानामीनित्यं पादाभिवंदनात्त।।
श्रीराम ने जब लक्ष्मन को वन में मिले बिखरे आभूषण को दिखाते हुए पूछा था कि जरा इन्हें पहचान कर बताओ तो, क्या यह जानकी के ही आभूषण हैं। उत्तर में लक्ष्मन ने कहा मैं इन केयूरों को नहीं पहचान सकता; क्यूंकि यह हाँथ के आभूषण हैं और न ही इन कुण्डलों को। मैं तो सिर्फ पैरों के नुपुर को ही पहचान सकता हूँ क्यूंकि मैंने माता जानकी को उनके चरणों से ऊपर देखा ही नहीं है........जिस संस्कृति का वाहक और पोषक हमारा यह देश रहा है, वहां की माननीय सर्वोच्च न्यायलय की खंडपीठ यह यह व्याख्या करती है कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 अप्रासंगिक है.....इससे हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता बाधित होती है। तब मुझे मैकाले की वह पंक्ति स्मरण हो रही है कि यदि किसी देश की उन्नति एवं विकास को छिन्न-भिन्न करना हो.........तो उसकी संस्कृति पर ही सीधा कुठाराघाट करो.....देश स्वतः कमजोर हो जाएगी।'  
          मानीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के साथ ही 158 साल पुराने इस औपनिवेशिक कानून के संबंधित हिस्से को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया और कहा कि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है, और इसके साथ ही भारत उन 25 अन्य देशों के साथ जुड़ गया जहां समलैंगिकता वैध है अर्जेंटीना, ग्रीनलैंड,  दक्षिण अफ्रीका,  आस्ट्रेलिया,  आईसलैंड,  स्पेन, बेल्जियम, आयरलैंड, अमेरिका, ब्राजील, लक्जमबर्ग, स्वीडन और कनाडा इत्यादि देशों में समलैंगिक संबंध वैध हैं
          आदिम युग में भी जब सेक्स संबंधों को लेकर किसी तरह का नैतिक बोध और मानदंड विकसित नहीं हुआ था, तब होमोसेक्शुअल संबंध आम थे। प्राचीन महान सभ्यताओं में भी समलैंगिकता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। लगभग पांच हजार साल पहले असीरिया में समलैंगिक संबंधों का प्रचलन था और इसे अस्वाभाविक अथवा काम-विकृति नहीं माना जाता था। प्राचीन मिस्र में होरस और सेत जैसे प्रमुख देवताओं को समलैंगिक बताया गया है। प्राचीन यूनान एवं रोम में भी समलैंगिकता को बुरा नहीं माना जाता था।
          पुनर्जागरण काल में यूरोप भी इससे अछुता नहीं था। दांते ने अपने गुरु लातिनी के बारे में लिखा है कि वह समलैंगिक थे। प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने लिखा है कि युवावस्था के दौरान उसमें समलैंगिक मैथुन के प्रति तीव्र आकर्षण था। मानवतावादी विचारक और कवि म्यूरे भी समलैंगिक थे और इस वजह से उनका जीवन खतरों से भरा था, क्योंकि उस वक्त समलैंगिकता उजागर हो जाने के बाद कठोर दंड का प्रावधान था। मध्यकाल यानी जिसे यूरोप में अंधकार का युग कहा जाता है, समलैंगिकों को जिंदा जला दिया जाता था।
          वात्स्यायन के कामसूत्र में भी समलैंगिकता का उल्लेख है, जिसे उन्होंने अनुचित बताया है। होमो-सेक्स के विषय पर काफी शोध हुए हैं। जर्मन चिकित्सक मैग्नुस हिर्श फेल्ड(1868-1935) की 1914 में प्रकाशित पुस्तक Die Homosexeualitatको इस विषय का विश्वकोश माना गया
          फ्रायड का मानना है कि सारे मनोरोग का मूल कारण सेक्स है। इसे वह सेक्स मनोग्रस्तता कहते हैं। उनक मानना था कि समूचा पश्चिम इसी रोग से ग्रसित है, जो हर वक्त सेक्स की ही बात सोचता रहता है। खुद फ्रायड इस रोग से ग्रसित थे। फ्रायड का शिष्य कार्ल गुस्ताव जुंग के अनुसार मृत्यु का भय ही मूल रूप से सभी मनोरोगों का कारण है जिससे समूचा पूरब ग्रसित है और वह दिन-रात मृत्यु को लेकर भयभीत रहता है।
          भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीनतम एवं समृद्ध संस्कृति है। संस्कृति और संस्कार दोनों ही कृ धातु से बने हैं। संस्कृति की अभिव्यक्ति आचार-विचार, रीति-नीति,वेश-भूषा द्वारा होती है। सोलह संस्कारों द्वारा जीवन को सुसंस्कृत कर वर्णाश्रम धर्म के अनुसार दैन्निदनीय कृत्यों को संपन्न करना हिन्दू-संस्कृति का पुनीत मानवीय कर्तव्य मन गया है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। भारत में नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी–देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं। अपनी प्राचीन संस्कृति को बचाए रखने में सबसे महत्वपूर्ण ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान 'गृहस्थ आश्रम' का है। भारत में विवाह को एक संस्था का दर्जा प्राप्त है।
          आज भारत पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित होता जा रहा है। वर्तमान पीढ़ी अपनी गौरवमयी संस्कृति  रूपी विरासत से वंचित होती जा रही है। वह सब धर्म, कर्म एवं पुनीत संस्कारों से विमुख होकर सुख-शांति चाहती है, परन्तु उसकी यह कामना मृग मरीचिका मात्र ही सिद्ध हो रही है।
यत्र त्वेत्त्कुल्ध्वंसा जायन्ते वर्णदूषकाः।
राष्ट्रिकै:  सह तद राष्ट्रं क्षिप्रमेव विनश्यति।।
     अर्थात धर्म और संस्कार से विहीन प्रजा स्वतः अपने साथ देश और समाज का विनाश कर देती है।


40 के दशक में प्रकाशित हुई इस्मत चुगतई की उर्दू कहानी 'लिहाफ' स्त्री समलैंगिकता की पहली कहानी है, जिसने उस ज़माने में सनसनी मचा दी थी। नागार्जुन के उपन्यास 'रतिनाथ की चाची' में भी समलैंगिकता का चित्रण हैपांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की आत्मकथा 'अपनी ख़बर' में युवकों और किशोरों की समलैंगिक प्रवृत्तियों का यथार्थ वर्णन मिलता हैदेवराज चानना की पुस्तक 'प्राचीन भारत में दास प्रथा' में ऐसे वर्णन मिलते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि समलैंगिक संबंधों के लिए दासों व निम्न वर्ग के युवा लड़कों का इस्तेमाल भद्र जन किया करते थे।

माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने भा. दंड सहिंता की धारा 377 के आलोक में जो अपना निर्णय दिया है कि कोई भी युवक-युवती कभी भी अपने इच्छानुसार बिना विवाह के एक साथ रह सकते हैं, घूम-फिर सकते हैं तथा स्वेच्छाचार पूर्वक अपने निजी पलों को व्यतीत कर सकते हैं। यह उनका अधिकार है तथा धारा 377 वर्तमान परिपेक्ष्य में अनुकूल नहीं है। पिछले दिनों ट्रांस जेंडर को समाज में मान्यता देकर माननीय न्यायलय ने एक अच्छी पहल की शुरुआत की है, परन्तु लिव इन रिलेशनशिप और अब समलेंगिकता को लेकर जो माननीय न्यायलय की खंडपीठ का फैसला है इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, जिससे परिवार जैसी मजबूत इकाई के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगेगा माननीय न्यायलय के इस खंडपीठ के निर्णय पर कुछ भी मंतव्य जाहिर करना कानून- सम्मत एवं न्याय-संगत तो नहीं है, परन्तु इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि यह सब युग एवं पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है। 
  










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