‘देहाती दुनिया’ का कलमकार~ आचार्य शिवपूजन सहाय !!


आचार्य शिवपूजन सहाय हिंदी के वैसे लेखक-संपादक थे जिनके लिए साहित्य एक सेवा थी, व्यवसाय नहीं ऐसे विभूति की रचनाओं से गुज़रना हिंदी साहित्य के उस दौर से गुज़रना है जिस युग में हिंदी के क्लैसिक्स लिखे जा रहे थे, उसका आधार तैयार हो रहा था
          आचार्य शिवपूजन सहाय का जन्म भोजपुर अंचल के गांव उनवांस में 9 अगस्त,1893 को एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री वागीश्वरीदयाल आरा के एक जमींदार के पटवारी थे। 1913 में उन्होंने प्रवेशिका परीक्षा पास की और लगभग इसी समय से उनके साहित्यिक जीवन का प्रारंभ हुआ। आरा उन दिनों भी बिहार में साहित्य और संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र था। आरा की 'नागरी प्रचारिणी सभा' हिंदी की प्राचीनतम संस्थाओं में रही है। श्री शिवनंदन सहाय, पं. सकलनारायण शर्मा, पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा जैसे विद्वान हिन्दी को इसी संस्था की देन हैं। इसी संस्था ने शिवपूजन सहाय के साहित्यिक जीवन में नींव के पत्थर का काम किया।
          बनारस की कचहरी में नकलनवीसी के कार्य करने के दौरान ही इनको अपने स्कूल में ही जहाँ इनकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी हुई थी में ही अध्यापक-पद मिल गया, जिसका परित्याग इन्होंने गांधीजी के असहयोग आंदोलन में किया और कुछ दिन वहीं के एक राष्ट्रीय विद्यालय में अध्यापक रहे। इन दिनों गाँव-गाँव में जाकर इन्होंने कांग्रेस का प्रचार-कार्य भी किया। 1921 में शिवपूजन सहाय कलकत्ता चले गये जहाँ अगले कई वर्षों तक ‘मारवाड़ी सुधार, ‘मतवाला, ‘समन्वय, ‘आदर्श, ‘मौजी, ‘गोलमाल, ‘उपन्यास तरंग’ आदि साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन करते हुए वे हिंदी जगत में एक आदर्श संपादक एवं भाषा के आचार्य के रूप में सुविख्यात हो गये। इसी अवधि में भोजपुर-अंचल के ग्राम्य जीवन पर आधारित उनका प्रसिद्ध उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ प्रकाशित हुआ जिसे हिंदी का पहला आंचलिक उपन्यास माना गया है। इन्हीं दिनों उनकी कहानियों का संग्रह ‘विभूति’ भी प्रकाशित हुआ जिसकी कतिपय कहानियां ‘मुंडमाल, कहानी का प्लॉट’ आदि हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में परिगण्य मानी गई हैं।
          पत्राकारिता के प्रति शिवपूजन सहाय का यही समर्पण-भाव उन्हें कलकत्ते से खींचकर लखनऊ ले गया जहां ‘माधुरी’ के संपादन-काल में उन्होंने प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ तथा उनकी कई कहानियों का भाषा-संस्कार संपन्न किया। फिर 1926 से वे बनारस चले आये, और वहीं से एक वर्ष (1931) के लिए वे ‘गंगा’ का संपादन करने सुलतानगंज (बिहार) गये। किंतु पुनः 1932 में काशी से प्रकाशित पाक्षिक ‘जागरण’ के संपादक रहे, जिसका संपादन उनके बाद प्रेमचन्द ने संभाला। काशी से अंततः वे लहेरियासराय ‘पुस्तक भंडार’ में आ गये, जहां भी उन्होंने अनेक प्रसिद्ध हिंदी लेखकों एवं कवियों की रचनाओं की भाषा को संस्कार प्रदान किया। वहां लगभग 5-6 वर्ष व्यतीत करने के बाद उन्हें राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में हिंदी-प्राध्यापक का पद ससम्मान प्रदान किया गया। छपरा में लगभग 10 वर्ष प्राध्यापन करने के बाद अंततः 1950 में वे पटना चले आये जहां बिहार सरकार द्वारा नव-स्थापित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के प्रथम संचालक नियुक्त किये गये। इससे कुछ वर्ष पूर्व कॉलेज से अवकाश लेकर उन्होंने पटना से प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘हिमालय’ का संपादन किया था जो अपने समय की हिंदी की अन्यतम साहित्यिक पत्रिका मानी गई। परिषद् संचालक के रूप में सहायजी ने हिंदी की जैसी सेवा की, और उन्हीं दिनों बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के मुखपत्र ‘साहित्य’ का आचार्य नलिनविलोचन शर्मा के साथ जैसा मानक संपादन किया उससे हिंदी सेवा का एक अप्रतिम कीर्तिमान स्थापित हुआ जो संपूर्ण हिंदी जगत के लिए गौरव का विषय है।
          सहाय जी का निधन 21 जनवरी, 1963 को पटना में हुआ। इससे पूर्व 1960 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि से सम्मानित किया था तथा मार्च, 1962 में जयप्रकाश नारायण, दिनकर एवं लक्ष्मीनारायण सुधांशु के साथ ही भागलपुर विश्वविद्यालय ने शिवपूजन सहाय को भी  'डी.लिट् की मानद उपाधि प्रदान की थी।
          हिंदी-भाषा और साहित्य के प्रति शिवपूजन सहाय का योगदान अत्यंत विपुल, बहुआयामी है। उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान हिंदी गद्य के विकास में माना जायगा। उनके द्वारा संपादित विशेष महत्वपूर्ण ग्रंथों में राजेन्द्र बाबू की ‘आत्मकथा’, द्विवेदी अभिनन्दन ग्रंथ’, राजेन्द्र अभिन्दन ग्रंथ’, जयंती स्मारक ग्रंथ’, बिहार की महिलाएं’ आदि हैं। किन्तु उनके द्वारा संपादित सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा कई खंडों में प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य और बिहार’ नामक ग्रंथ है, जिसकी न केवल मूल परिकल्पना उनकी थी, वरन् जिसका संपूर्ण सम्यक संपादन भी उन्होंने अपने जीवनकाल में ही लगभग पूरा कर लिया था। शिवपूजन सहाय  का उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ हिंदी के प्रथम आंचलिक उपन्यास के रूप में सर्वमान्य है। उसी प्रकार उनकी कहानी, ‘कहानी का प्लॉट’ को शिल्प एवं भाषा शैली की दृष्टि से हिंदी-कहानी के विधागत विकास में एक क्रोशशिला का स्थान प्राप्त है। स्तरीय संपादन एवं भाषा-परिष्कार के क्षेत्र में भी शिवपूजन सहाय का योगदान अद्वितीय है।
          दो खंडों में अपनी समग्रता में प्रकाशित शिवपूजन सहाय की डायरी अपने ‘युग का दर्पण’ और उस पूरे काल-खंड का इतिहास तो है ही, वह साहित्य की एक अप्रतिम कृति और रचनाकार के जीवन की विशद गाथा भी है।
          दूसरों की रचनाओं एवं पुस्तकों के संशोधन-परिष्कार में शिवजी ने हिंदी की जैसी सेवा की है, वह अब सदा के लिए अतुलनीय एवं महनीय बनी रहेगी। साहित्यिक निबंध, संस्मरण, डायरी-लेखन आदि गद्य-विधाओं में भी शिवपूजन सहाय ने जितना विपुल एवं विविध साहित्य निखमत किया है, उसका सम्यक मूल्यांकन अभी शेष है।

शिवपूजन सहाय अपने युगीन साहित्य और संस्कृति के एक अत्यंत सशक्त प्रतीक-पुरुष थे। समग्र के इन पृष्ठों में, उसके एक अन्यतम प्रवक्ता के रूप में, उन्हीं के स्वरों में, एक पूरे युग का साहित्यिक-सांस्कृतिक इतिहास मुखर हो उठता है। इतने लंबे कालखंड के साहित्यिक इतिवृत्त को इतनी विपुल-विशाल सामग्री-राशि में से तार-तार बीनकर और उसका एक ताना-बाना बुनकर एक महागाथा के रूप में जैसा लेखक का अभीष्ट था समकालीन पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करना वस्तुतः संपादन की एक बहुत बड़ी चुनौती थी।


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