काश ! हर बच्चा अपना आकाश खोज पाए......... ।


मुजफ्फरपुर स्थित बालिका सुधर केंद्र बाल यौन शोषण का यह घिनौना उदहारण तो बच्चों के विरुद्ध किए जाने वाले अपराध का एक नमूना मात्र है वास्तव में बच्चों के विरुद्ध किए जाने वाले अपराध की श्रेणियों  की सूचि बनाई जाय तो निश्चित तौर पर हमारे होश उड़ जाएंगे
          आसमान में पतंग उड़ाने, कहीं दूर तक सैर तक जाने, मजे-मौज और पढ़ाई करने वाले दिनों में अपनी इच्छाओं का दमन करके बच्चो का एक बड़ा वर्ग कहीं कल-कारखानों में, कहीं होटलों में तो कहीं उंची चहारदीवारियों में बंद कोठियों की साफ-सफाई में लगा हुआ है कॉलोनियों के बाहर पड़े कूडेदानों में जूठन तलाशते मासूमों, पन्नी बटोरने वालों की संख्या करोड़ों में है मां-बाप के प्यार से वंचित, सरकारी अनुदानों, राहतों की छांव से विभिन्न कारणों से दूर इन बहिष्कृत बच्चों को दो वक्त की रोटी तक नसीब नहीं है सूरज की पहली किरण के साथ ही पेट की आग शांत करने के लिए वे ट्रेनों, बसों व सड़कों पर केले, मूंगफली, पानी के पाउच व अखबार बेचने निकल पड़ते है। होटलों, ढाबों, गराजों में चंद रुपयों की खातिर जूठन साफ करने वाले छोटू,  हीरो,  छुटकू और न जाने ऐसे कितने जाने पहचाने व अनगिनत नाम है जो दिन भर अपने मालिक के इशारे पर इधर से उधर भागते फिरते है
          बच्चों के खिलाफ अपराधों को हम मुख्य रूप से चार भागों में बांट सकते हैं-(1) बलात्कार, (2) अपहरण, (3) छोटे बच्चों की खरीद-फरोख्त और (4) कन्या भ्रूण-हत्याराष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार देश में साल 2007, 2008 और 2009 में बच्चों के खिलाफ अपराध के क्रमश: 20,410 , 22,500 और 24,201 मामले दर्ज किये गए थे 2007 में बच्चों की हत्या के ।,377 मामले, 2008 में ।,296 मामले और 2009 में ।,488 मामले दर्ज किये गए थे जबकि 2007 में बलात्कार के 5,045 मामले, 2008 में 5,446 मामले और 2009 में 5,368 मामले दर्ज किये गए थे
बच्चों के अपहरण के बारे अगर बात की जाए तो 2007 में 6,377 मामले, 2008 में 7,650 मामले और 2009 में 8,945 मामले दर्ज किये गए थे जबकि वेश्यावृति के लिए लड़कियों की खरीद के 2007 में 40 मामले, 2008 में 49 मामले और 2009 में 57 मामले दर्ज किये गए थे
          उपरोक्त आंकड़ों से ये बात साफ़ हो जाता है कि बाल शोषण आधुनिक समाज का एक घिनौना और ख़ौ़फनाक सच बन चुका है वर्तमान  दौर में निर्दोष एवं लाचार बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने की घटनाएं इतनी आम हो चुकी हैं कि अब तो लोग इस ओर ज़्यादा ध्यान भी नहीं देते जबकि वास्तविकता यह है कि बाल शोषण बच्चों के मानवाधिकारों का उल्लंघन है सामान्यतया हम यही मान कर चलते हैं  कि बाल शोषण का मतलब बच्चों के साथ शारीरिक या भावनात्मक दुर्व्यवहार है, परंतु कंसलटेंसी डेवलपमेंट सेंटर के अनुसार, बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया हर ऐसा काम बाल शोषण के दायरे में आता है, जिससे बच्चे पर बुरा प्रभाव पड़ता हो या ऐसा होने की आशंका हो या जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करता हो भारत में हालत ऐसी है कि अक्सर बाल शोषण के वजूद को ही को सिरे से नकार दिया जाता है, लेकिन सच यह है कि ख़ामोश रहकर हम बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की वारदातों को बढ़ावा ही दे रहे हैं देश में बाल शोषण की घटनाओं को ऐसे अंजाम दिया जाता है कि दोषी के साथ-साथ पीड़ित बच्चे भी हमारे सामाजिक संरचनाओं एवं बनावटों के कारण सामने नहीं आते पीड़ित बच्चे शर्मिंदगी के चलते कुछ भी बोलना नहीं चाहते, क्यूंकि समाज का नजरिया भी वैसे बच्चों के प्रति कुछ अजीब सा हो जाता है पश्चिमी देशों में हालात ऐसे नहीं हैं शिक्षा के कारण वहां का समाज और वहां के बच्चे निडर होकर अपनी बात कह सकते हैं  
          यूनीसेफ के एक अध्ययन के परिणामों से जो बात सबसे ज़्यादा उभर कर सामने आई है, वह यह है कि 5 से 12 साल तक की उम्र के बच्चे बाल शोषण के सबसे ज़्यादा शिकार होते हैं हैरत की बात यह है कि हर तीन में से दो बच्चे कभी न कभी शोषण का शिकार रहे हैं अध्ययन के दौरान लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चों ने किसी न किसी तरह के शारीरिक शोषण की बात स्वीकारी तो 21.90 प्रतिशत बच्चों को भयंकर शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा इतना ही नहीं, क़रीब 50.76 प्रतिशत बच्चों ने एक या दूसरे तरह की शारीरिक प्रताड़ना की बात कबूली
          "बचपन बचाओ आंदोलन" द्वारा चौबीस राज्यों में सूचना के अधिकार के तहत दाखिल अर्जियों के बाद प्राप्त  आंकड़ों के अनुसार भारत में हर रोज करीब 165 व साल भर में 60 हजार बच्चे लापता हो जाते हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा बच्चे गायब हुए हैंपश्चिम बंगाल दूसरे नंबर पर है और दिल्ली तीसरे नंबर पर है 'बचपन बचाओ आंदोलन' के संस्थापक कैलाश सत्यार्थी (Novel Peace Prize -- 2014) के मुताबिक ज्यादातर लापता बच्चों को गैरकानूनी ढंग से अलग-अलग काम पर लगाया जाता है या उनके शरीर के अंग बेचे जाते हैं जानवरों से भी सस्ती दर में बच्चों को बेचा जाता  है जहां एक भैंस की कीमत कम से कम पंद्रह हजार रूपए होती है वहीं देश में बच्चों को पांच सौ रूपए से लेकर 25 सौ रूपए में आसानी से बेचा जाता है अधिकतर बच्चों से या तो मजदूरी कराई जाती है या सेक्स वर्कर का पेशा कराया जाता है
          बाल व्‍यापार के क्षेत्र में भारत स्रोत, गंतब्य और पारगमन केंद्र के रूप में काम कर रहा है नेपाल और बंगला देश से बच्चे यहाँ लाये जाते हैं यहाँ से बड़ी तायादात में बच्चे अरब देशों में ले जाए जाते हैं इसके अलावा अन्य देशों में घरेलु मजदूर और जानवरों की चरवाही के लिए मासूम बच्चों को ले जाया जाता है लापता हुए बच्चों में सर्वाधिक 12-19 वर्ष की लड़कियां हैं और सामान्यत: 0-19 वर्ष तक के लड़के व लड़कियां हैं। 90 प्रतिशत गुम हुए बच्चे झुग्गी-झोपड़ियों व स्लम के हैं। दिल्ली का उत्तरी-पूर्वी जिला गुमशुदा बच्चों के मामले में प्रथम स्थान पर है। 70 प्रतिशत गुमशुदा बच्चे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के रहने वाले हैं।
          बच्चों द्वारा कराए जाने वाले अपराधों में सेक्स टूरिज्म या देह-व्यापार में उन्हें लगाना सबसे प्रमुख है। यह एक संगठित अपराध है जिसमें बड़े पैमाने पर बच्चों को धकेला जा रहा है। एक अन्य तरीके से बच्चों का अंग-भंग कर उनसे भीख मंगवाने का भी व्यवसाय चल रहा है इधर, चाइल्ड पोर्नोग्राफी के रूप में बच्चों के खिलाफ अपराध का एक नया बाजार तैयार हुआ है। स्कूलों में शिक्षकों द्वारा बच्चों के यौन शोषण की भी एक नई प्रवृत्ति इधर बड़े पैमाने पर देखने में आ रही है जिसे देखते हुए स्कूलों के नियम- कानूनों में भी बदलाव लाने की जरूरत सामने आई है
          बच्चों के खिलाफ अपराध को उकसाने वाले कारकों को हम दो भागों में बांट कर समझ सकते हैं- 'पुश फैक्टर और पुल फैक्टर'। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की तबाही, कृषि में गिरावट, अशिक्षा और गरीबी को हम पुश फैक्टर के तौर पर समझ सकते हैं जबकि पुल फैक्टर में शहरी चमक-दमक या आकर्षण, फिल्मों के मायालोक और संगठित गिरोहों के प्रलोभनों को रखा जा सकता है। बच्चों के उत्पीड़न को देखने के नजरिये में आज दुनिया के पैमाने पर काफी परिवर्तन आया है पर हमारे देश में बच्चों के हित में काम करने वाली मशीनरी आज भी पुराने ढर्रे पर ही काम कर रही है। जहां तक पुलिस के नजरिये की बात है तो वह पूरी तरह भारतीय दण्ड संहिता से बंधी हुई है और इसलिए वह केवल पेनिट्रेटिव सेक्स को ही यौन हिंसा मानती है जबकि आज परिदृश्य काफी बदल गया है। 1992 में संयुक्त राष्ट्र समझौते का अनुमोदन करने के बाद भारत को अब वही नीति लागू करनी होगी जो संधि में दी गई है। इसके अनुसार किसी भी उम्र में बच्चे का यदि किसी वयस्क द्वारा अपनी यौन संतुष्टि के लिए किसी भी तरह से उपयोग किया जाता है तो ऐसा करना यौन उत्पीड़न के दायरे में आएगा। उसके साथ शारीरिक छेड़छाड़ करना, उसे गंदी तस्वीरें या फिल्में आदि दिखा कर उत्तेजित करना भी यौन उत्पीड़न के अंतर्गत ही माना जाएगा। आज हमें अपने कानूनों को इसी हिसाब से पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है। सरकार भी इसे मानती है। हमें इस मुद्दे पर एक सामाजिक जागरूकता लाने के लिए भी काम करना होगा।
          तमाम कोशिशों के बाद भी दुनिया में बच्चों की एक बड़ी आबादी मेहनत की भटटी में तपने को मजबूर है देश के भावी कर्णधार मजदूरी में अपने बचपन की खुशियों को गिरवी रख देते हैं जिन बच्चों के हाथों में खिलौने, कागज-कलम,  कापी-किताब, स्लेट-पेंसिल होनी चाहिए थी, उन नाजुक हाथों में औरों के जूते पालिश करने के ब्रश,  दूसरों के पढने के लिए स्लेट-निर्माण की सामग्रियां, पत्थर तोडने के हथौडे अथवा दरी-कालीन बुनने के लिए धागों का जाल होता है, जिसके मकडजाल में उनकी जिंदगी पिसती रहती है
          जिन बच्चों को मां-बाप की गोद में होना चाहिए था या भाई-बहन की बांहो में जिनको दुलार मिलना चाहिए था, वे भयंकर शीतलहरी, तपती दोपहरी या घनघोर वर्षो के थपेड़ो या जलती भटठियों के शिकार होते हैं। वे मिटटी के दीये या मोमबत्ती जलाकर दीवाली नहीं मनाते, बल्कि अपना बचपन सुलगाकर, उंगलियां जलाकर अमीर बच्चों की दीवाली के उत्सव के लिए पटाखे या मोमबत्ती बनाते हैं
          कानून किताबों में पड़ उंघ रहा है। क्योंकि उसे जगाने वाले हाथ देखकर भी कुछ नहीं करते बल्कि कई बार तो वह खुद ही कानून तोड़ते नजर आते हैं। और इस पर भी दर्दनाक बात यह कि बच्चों के मुददे कभी विधानसभा और संसद में गंभीरता और नियमितता से उठाए ही नहीं जाते क्योंकि बच्चों का कोई वोट बैंक नहीं होता, बच्चों के मुददे जनप्रतिनिधियों को चर्चा में नहीं लाते देश में बालमजदूरों की संख्या 2001 की जनगणना के मुताबिक लगभग सवा करोड़ है। जबकि स्वयंसेवी संस्थाओं के मुताबिक यह संख्या दो करोड नब्बे लाख भारतीय संविधान संशोधन के बाद देश के चौदह वर्ष तक के में हर बच्चे को अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा अधिकार दिया गया है। संयुक्त राष्ट महासभा ने 1989 में बच्चों के अधिकारों से संबंधित एक महत्वपूर्ण घोषणा पत्र जारी किया था। बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण की व्यवस्था, निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, और बालश्रम को दूर कर संरक्षण की व्यवस्था। यह उस घोषणापत्र के तीन मुख्य बिंदु थे। लेकिन इस घोषणापत्र के लगभग सत्रह साल पूरे हो जाने के बाद भी स्थितियों में कोई खास सुधार नहीं आ पाया है।  
          बच्चों के अधिकारों से सम्बंधित अन्तरराष्ट्रीय संधि से बंधे होने के साथ-साथ हम अपने देश के संविधान द्वारा बच्चों से किए गए उन वादों के लिए भी जवाबदेह हैं, जो उन्हें स्वस्थ और सम्मानपूर्ण हालात में विकास करने का सम्पूर्ण अवसर देने के लिए किए गए थे। लेकिन आज स्थिति यह है कि बच्चों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। हम हर अन्तरराष्ट्रीय संधि पत्र पर हस्ताक्षर तो कर देते हैं पर बदकिस्मती से जमीनी स्तर पर उसे लागू करने का प्रयास ही नहीं करते।
          गरीबी और अशिक्षा इसके लिए दो सबसे बड़े उत्पादक कारक हैं। इन्हीं कारणों से जमीनी स्तर पर कोई कार्यवाही शुरू नहीं हो पाती। हमारे पास जरूरतमंद बच्चों के पुनर्वास के लिए आश्रय तक नहीं हैं। जो हैं वे अपराधी बच्चों के सुधार-गृह हैं। पुनर्वास व्यवस्था की कमी के चलते ही हम फुटपाथों पर बच्चों को भीख मांगते देखते हैं पर कुछ हस्तक्षेप नहीं कर पाते। हमारे देश की पुलिस की मानसिकता आज भी औपनिवेशिक दौर में है जबकि बच्चों के मामले में पुलिस से ज्यादा मानवीय और संवेदनशील रवैया रखने की अपेक्षा होती है।

बच्चों के खिलाफ अपराधों की रोकथाम में बाल सुरक्षा आयोग की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो सकती थी पर चूंकि उसके पास कोई न्यायिक अधिकार नहीं है, इसलिए वह भी प्रभावकारी हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा। वह अभी एक सलाहकार समिति भर है। इतने सीमित संसाधनों के होते हुए वह कोई योगदान कर पाएगा ऐसा सोचना बेवकूफी ही होगी। जब तक इसे भी एससीएसटी आयोग की तरह प्रभावकारी बनाने के लिए संसद द्वारा पारित नहीं किया जाएगा, यह कोई भी प्रभावकारी भूमिका निभाने में सक्षम नहीं हो सकेगा। पर यह सब करने के लिए बच्चों के प्रति एक जिम्मेदारी का अहसास और कुछ बदलाव लाने की इच्छाशक्ति का होना बहुत जरूरी है। फिलहाल तो ये दोनों ही चीजें दृश्यपटल से ओझल हैं।


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