राष्ट्रीय पर्व समाप्त !!
सूर्यास्त के साथ ही देशभक्ति वापस दराजो में बंद हो चुकी है.....अगली 15 अगस्त तक के लिए। ....हम तमाम बौद्धिक जमावड़ो में अपनी हिस्से की साझेधारी रख अपने कर्तव्यों का दायित्व पूरा कर...."दुनिया फिर भली होगी" लिखकर.....चादरों में दुबक गये”।
आज दिन भर लगा कि समूचा राष्ट्र एक स्वर में....एक सूत्र में बंध कर अपने राष्ट्रीय पर्व को धूमधाम से मना रहा था...चारो तरफ दुकानों में तिरंगे बिक रहे थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ भ्रष्टाचार में लिप्त नेता गण जनता को आदर्शवाद की घुट्टी पिला रहे थे। फिर वही न पुरे किये जाने वाले वादों से जनता को धोखा दिया जा रहा था, वहीँ गणतंत्र के टूटे फूटे लाचार गण, तिरंगे को सलामी दिए जा रहे थे।
सबमें आज देश-सेवा की होड़ थी, चौक-चौराहे सजे हुए थे, दुकानों में आज तिरंगे बिक रहे थे। बारी बारी से आज सब की कुर्बानियां याद की जा रही थी, बदलाव की बस वही पुरानी बात की जा रही है, मंत्रियों की नींद भाषणों के बीच पूरी हो रही थी, वही ठंड मौसम में जनता परेशान हो रही थी, ‘आज’ जय हिंद के नारे लग रहे थे, रंगों की जात बांटने वाले आज, तिरंगे लेकर घूम रहे थे।
गूगल के सहयोग से आज लोग नए-नए इतिहास निकाल कर, फेसबुक और वाट्सएप्प पर भेज रहे थे, बड़े और संभ्रांत बुद्धिजीवी लोग 'ट्वीट' कर रहे थे। ‘आधुनिक बेरोजगारी’ है “साहब”, दंगे-फसाद का ही सोचेंग, ना बदले हालात, ना बदले दिन, बचे हुए तिरंगों को भी है पता....कल कचरे में मिलेंगे अगले दिन।
शहीद होने वाले जवानों! आपकी जगह लेगा कौन यहाँ, आधी आबादी तो आपकी तस्वीरों पर ‘लाइक्स’ के लिये कसमें लिख रहे हैं, इससे बेहतर होता कि हम उनके लिए कुछ क्षण के मौन रख लेते, वक्तव्यों से बेहतर हम अपना मन्तव्य बदलने पर बहस कर रहे होते।
'ऐ मेरे वतन के लोगों....याद करो कुरबानी' की जगह “हर करम अपना करेंगे....ऐ वतन तेरे लिए” पर मंथन कर रहे होते तो अब तक देश की दशा और दिशा दोनों बदल चुकी होती।
चलते-चलते ~
एक बार सुभाषचन्द्र बोस जापान में ट्रेन से सफ़र कर रहे थे और उस दिन उनका उपवास था, फल लेने के लिए वह प्लेट फॉर्म पर घूम रहे थे परन्तु उन्हें फल की कोई दूकान नहीं मिली तो उनके मुख से एक पंक्ति निकल गयी – कैसा है यह देश जहाँ फल की भी दूकान नहीं है जिसे एक जापानी नागरिक सुन लिया और उसने कहा क्षमा कीजिये परन्तु मेरे देश के बारे में कुछ भी खिलाफ में नहीं बोलिए और वह व्यक्ति दौड़ते हुए गया और नेताजी के लिए फल लेकर तुरंत उपलब्ध हो गया उनके सम्मुख।
इसे कहते हैं देश भक्ति.... यदि यही घटना हमारे देश में हुई होती तो हम उस व्यक्ति को सहयोग करने की अपेक्षा उसके समक्ष ही अपने मुल्क की व्यवस्था को गाली देने में अपनी 'बुद्धिजीविता' और 'शक्ति' को जाया कर रहे होते।
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