गोडसे के बहाने गाँधी जी !!
क्या हमने कभी यह विचार किया कि 5000 साल पुरानी सभ्यता में दुबारा न बुद्ध पैदा हुआ न ही महावीर.......... ना ही फिर कोई महात्मा गाँधी ही। गान्धी तो हमारे बीच से ही निकल कर इस नक्षत्र में ध्रुवतारा की तरह चमकने वाला सितारा है जिसे हमारी पिछली पीढ़ी ने देखा है, समझा है, भोगा है। वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने कहा ही है कि आने वाली नस्लें जल्दी यह विश्वाश नहीं करेगी कि हाड- मांस का ये व्यक्ति धरती पर चला होगा। महात्मा गाँधी जैसा महान व्यक्तित्व शायद सदियों तक फिर न पैदा हो। एक ऐसा अर्ध-नग्न फ़क़ीर जिसने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आजादी की जंग लड़ी और बर्तानिया सरकार की चुल हिला कर रख दिया। यूं तो गांधीवाद का विरोध करने वालों ने जिनमें दुर्भाग्यवश और किसी देश के लोग नहीं बल्कि अधिकांशतय: केवल भारतवासी ही शामिल हैं, जिन्होंने गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को तब भी महसूस नहीं किया था जबकि वे जीवित थे।
एक अद्भुत मानव, जिसने सत्य, असिंसा, और सत्याग्रह जैसे शस्त्र आने वाली पीढ़ी को धरोहर स्वरुप भेंट किया। एक अविस्मर्णीय चिंतक, स्वदेशी प्रेम, महान अर्थशास्त्री और निःस्वार्थ भाव से जनता की सेवा करने वाला वृद्ध गाँधी अपने ही देश में गोलियों से छलनी कर दिए जाने योग्य अपराधी था?
आज जब सारी मानवता आतंकवाद से त्रस्त होकर कराह रही है, वही उत्तर दे कि क्या गोली किसी समस्या का समाधान है? नहीं, तो फिर 70 साल बाद मुठ्ठी भर लोग गाँधी पर गोली चलाने वाले नाथूराम गोडसे को महिमामंडित कर इतिहास की धारा को क्यों बदलना चाहते हैं? हत्यारा-हत्यारा ही कहलाता है, चाहे उसका उद्देश्य कितने ही महान आवरणों से क्यूँ न ढका हो।
ध्यान रहे कि बम और गोली के धमाके से किसी के न तो विचार को दबाया जा सकता है न ही सत्य को झुठलाया जा सकता है, इतिहास में ऐसे बहुत सारे प्रमाण भरे पड़े हैं- जीसस, गैलेलियो, सुकरात.......गाँधी। समय के कठघरे में समाज ने स्वीकृति इन्हें ही प्रदान किया है न की इन्हें दमित करने वालों को।
बहुत तकलीफ होती है जब आज के युवा जो पिछली पीढ़ी के युवाओं से ज्यादा सभ्य है, पिछली पीढ़ी से ज्यादा शिक्षित है, ज्यादा तार्किक बुद्धि के हैं वह युवा पीढ़ी जब आज एक अपराधी को महिमामंडित करता है बिना इतिहास के पन्नों का तुलनात्मक एवं तार्किक अध्ययन के बिना, किसी व्यक्ति या संस्था के बहकावे में आकर। 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने गाँधी जी गोलियों से भून दिया।घटना को घटे हुए 70 साल हो गए। इन 70 सालों में कई पीढिय़ां इतिहास के गर्त में खो गईं। गाँधी आजाद भारत में ‘राष्ट्रपिता’ हो गए।
देश क्योंकि कृतज्ञ था, उसने गांधी की राह पकड़ ली। जनता नाथूराम गोडसे को भूल चुकी थी। उसकी नादानी पर भारत की जनता ने चुप्पी साध ली थी, पर यह क्या? कुछ कोनों से आवाजें उठने लगीं कि महात्मा गांधी यदि न चाहते तो देश का बंटवारा न होता। गाँधी जी यदि चाहते तो स. भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी से बचा सकते थे। गांधी नेहरू के हाथों में खेल गए और उन्होंने सरदार पटेल को आजाद भारत का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। गांधी ने अहिंसा-अहिंसा का पाठ पढ़ा देश को नपुंसक बना दिया...........।
गाँधी जी दूरद्रष्टा थे। उन्होंने अपने भारत- भ्रमण के दौरान अपने गरीब देश की संसाधनों की स्थिति का भी अंदाज बहुत अच्छी तरह से लगा लिया था। गाँधी जी को अच्छी तरह से पता चल चूका था कि भारतीय नागरिकों की मुख्य आजीविका कृषि है और इसी पर उसका पूरा घर आश्रित है और कृषक बहुत दिनों तक आन्दोलन में अपनी सक्रीय सहभागिता नहीं दे पायेगा और न ही भारतीय जन-समुदाय के पास हथियार और असलहे ही प्रचुर मात्रा में है जिसके बल पर देश अंग्रेजो के अत्याधुनिक हथियार और तोप-गोले का मुकाबला कर सकेगा, अतः इन्ही कारणों से उन्होंने राष्ट्रिय आन्दोलन के समय नए-नए अभिनव प्रयोग किये परन्तु इसका अर्थ यह भी कदापि नहीं कि सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर, खुदीराम..........सुभाषचन्द्र जैसे क्रांतिकारियों के योगदान को कम किया जा सकता है।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दोनों ही एक-दुसरे के पूरक थे।
गाँधी जी भी आम-इंसान थे, वह भी हिंदुस्तान को विभाजन से बचाने के लिए जिन्ना और नेहरु(अंग्रेजों का चाटुकार) के कुछ अनुचित मांग के आगे झुकने के लिए विवश हो गए थे क्यूंकि गाँधी अपने ही जीवन काल में अप्रासंगिक होते चले जा रहे थे। उन्होंने भी कई ऐसी गलतियाँ की है जिसके लिए इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा। उनका स्वराज का सपना उनके सामने ही समाप्त हो गया था।
हमने गाँधी जी के स्थूल शरीर को तो स्वीकार लिया पर उनकी आत्मा को विदेशों ने अपना लिया। गाँधी का सपना ‘राम राज’ का राम तो भारत में ही रह गया राजनीति का शिकार होने के लिए पर राज को विदेशियों ने टुकड़ों-टुकड़ों में अपना लिया। म
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