पद्मावत के बहाने:~ बेबाक विचार !!
भंसाली की फिल्म पद्मावत को लेकर देशभर में हो रहे हो हल्ले के बीच भरतीय इतिहास और उसका गौरव फिर से सुर्खियों में आ गयी है। सभी लोग अपनी-अपनी समझ के अनुसार तात्कालिक इतिहास की समीक्षा करने में जुटे हुए हैं अभी भी। फ़िल्म तमाम विवादों के बाद भी सिनेमाघरों एवं मल्टीप्लेक्स में प्रसारित किए जा चुके हैं। मिश्रित प्रतिक्रियाएं लाजिमी है। जिन्हें फ़िल्म देखनी है उनके अपने तर्क हैं और जिन्हें विरोध है उनके अपने तर्क हैं। कुछ लोगों को 'हरम' शब्द पर विरोध है क्योंकि हिन्दू शासक अपनी पत्नी को हरम में रखने की बात नही कर सकता तो वहीं कुछ लोगों का इस मुद्दे पर विरोध है कि रानी पद्मिनी को स्नान करते हुए दिखलाया गया है ......। परंतु फ़िल्म देखने वालों के अपने ही तर्क हैं। इसका कोई अंत नही है क्योंकि तर्क बच्चों का खेल है।
क्या आपने गौर किया कि इन तमाम विरोध और समर्थन के बीच आज भारतीय पर्यटक भी खिलजी के कब्र के चारों ओर लोग खड़े होकर दिल्ली सल्तनत के बिखरे पन्नों के साथ सेल्फी लेने में मशगूल हैं लेकिन किसी को खबर नहीं कि वो सामने ही अलाउद्दीन खिलजी अपनी कब्र में सोया हुआ है जिसे वक्त की एक छोटी सी करवट ने शैतान बना दिया है। देश को आग के हवाले झुलसने के लिए अराजक तत्वों ने सौप दिया है।
क्षद्म बुद्धिजीवियों ने, माँ पद्मिनी को जो भारतीय स्त्री के पवित्रता और सतीत्व की पहचान थी उसे एक जाति मात्र का धरोहर बना कर देश और समाज को बांटने जैसा घृणित कार्य किया है। माँ पद्मिनी सिर्फ क्षत्रिय नही नही थी पहले वह एक भारतीय नारी थी। माँ पद्मिनी ने जब 16000 महिलाओं के साथ जौहर किया था तो जौहर में शामिल होने वाली महिलाएं सिर्फ क्षत्रिय कुल की ही नही अपितु लगभग 36 कुल की महिलाएं थी।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि 'कई सदियों से तुम नाना प्रकार के सुधार, आदर्श आदि की बातें कर रहे हो और जब काम करने का समय आता है तब तुम्हारा पता ही नहीं मिलता। अतः तुम्हारे आचरणों से सारा संसार क्रमशः हताश हो रहा है और समाज-सुधार का नाम तक समस्त संसार के उपहास की वस्तु हो गयी है।' विवेकानंद साहित्य, खंड 5, पृ. 138-139)
आज समाज 'पद्मावत' के बहाने जब करवट लेने को आतुर थी तब यह आंदोलन गलत दिशा में चली गयी। आंदोलनकारियों को धैर्य पूर्वक अपनी नीतियों पर मंथन करना चाहिए था। माँ पद्मिनी को सिर्फ एक कुल की लाज नही बल्कि भारतीय हिन्दू संस्कृति की संमिळात धरोहर के रूप में आगे लाकर, विभिन्न जातियों में टूट रहे हिन्दू समाज को पुनः एक सूत्र में पिरोने का अवसर उन्हें नहीं गवाना चाहिए था।जिसे आवेश में गवां दिया गया क्योंकि 'नेतृत्व' आवेश और भावनाओं में नही होती है।
हमारी भारतीय संस्कृति इतनी कमजोर नीव पर नही खड़ी है जिसे कोई फ़िल्म निर्माता क्षत-विक्षत कर सकता है। इतिहास हमारे ज्ञान का विस्तार है, उपज है (हिस्ट्री इज प्रोडक्शन आफ नॉलेज) लेकिन आज देश में ऐसी ताकतें पैदा हो गई हैं जो इतिहास को नहीं मानतीं। इतिहास के ज्ञान के नाम पर जहालत इतनी है कि फिल्मों को ही इतिहास मान लिया जाता है। हमें यह समझना होगा कि फिल्म इतिहास नहीं है।
चलते-चलते~
जब महात्मा गाँधी असहयोग आंदोलन के समय छात्रों से स्कूल और कॉलेज छोड़कर आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए आग्रह कर रहे थे तब गुरुदेव टैगोर ने उनसे विनम्र निवेदन कर हुए कहा था बापू आप बहुत ही गलत काम कर रहे हैं छात्रों को आंदोलन में शामिल कर के क्योंकि एक बार यदि छात्र स्कूल और कॉलेज छोड़ कर सड़कों पर आ जाएंगे तो वह पुनः वापस अपने विद्यालय में नही जाएंगे और वह अनियंत्रित और उग्र होते चले जायेंगे तब वे आपकी भी बात नही सुनेगें। परंतु गाँधी जी ने टैगोर की सलाह को अनसुना कर दिया और आज परिणाम है कि छात्र आज तक वापस अपने छात्र-कर्तव्य की पूर्ति के लिए वापस अपने विद्यालय नही लौटे।
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