दलित बनाम अगड़े की चाक पर चक्कर लगाती भारतीय सामाजिक व्यवस्था !!

ये बहुत शर्म की बात है कि, अब 21वीं शताब्दी मानव समाज ने वैज्ञानिक तौर पर इतनी तरक्की की है कि लोग मंगल ग्रह पर भी जमीन खरीदने की योजना बना रहे हैं, भारतीय समाज तब भी जाति प्रथा जैसी प्राचीन व्यवस्था में विश्वास रखता है और जिसका परिणाम भीमा-कोरेगांव(पुणे) प्रकरण के रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत हुई।
वैधानिक तौर पर अब कोई भी वर्ग भारत में ‘शोषित’, ‘दलित,’ या ‘उपेक्षित’ नहीं है। पहले भी नहीं था। संविधान में सभी नागरिकों को ‘बराबरी’ का दर्जा दिया गया था किन्तु सभी को अपनी प्रगति के लिये परिश्रम तो स्वयं करना ही होगा किन्तु जाति के आधार पर अब आरक्षित वर्ग दूसरे वर्गों की अपेक्षा ‘विशिष्ट वर्ग’ बनते चले जा रहै हैं। अधिक से अधिक वर्ग अपने आप को शोषित तथा उपेक्षित साबित करने में जुट रहे हैं और आरक्षित बन कर विशिष्ट व्यवहार की मांग करने लग पडे हैं।
                                     विकसित सभ्यताओं में ज्ञान, शिक्षा, सामाजिक योग्दान, समर्थ तथा क्षमता के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण का होना प्रगतिशीलता की निशानी है। सामाजिक वर्गीकरण प्रत्येक व्यक्ति को प्रगति करने के लिये उत्साहित करता है ताकि वह मेहनत कर के अपने स्तर से और ऊपर उठने का प्रयत्न करें। य़दि मेहनती के बराबर ही अयोग्य, आलसी तथा नकारे व्यक्ति को भी योग्य के जैसा ही सम्मान दे दिया जायगा तो मेहनत कोई भी नहीं करेगा। प्रतिस्पर्धा के वातावरण में सक्षम ही आगे निकल सकता है।
हिन्दू धर्म दया, साहिश्रुता और त्याग का प्रतीक है। लेकिन मैंने दुनिया का ऐसा कोई अन्य धर्म नहीं देखा जिसमे जाति के नाम पर इतने आपसी भेदभाव है। शायद ही कोई ऐसा धर्म हो जिसमे लोग एक दूसरे के लिए इतनी घृणा और तिरस्कार का भाव रखते है। 
                                       हिन्दू संस्कृति ने हमेशा आत्म-सम्मान से जीना सिखाया, शायद इसीलिए मुग़लों और अंग्रेजों के क्रूरतापूर्ण 1000 साल के शासन के बाद भी देश मे आज हिन्दू संस्कृति जीवित है। गुरु गोविंद सिंह, छत्रपती शिवाजी, झाँसी की रानी जैसे वीरों ने इस हिन्दू संस्कृति को जीवित रखने के लिए अपना बलिदान दिया और समाज के लिए प्रेरणा श्रोत बने।
                                        मेरा मानना है कि किसी भी समाज मे संतुलन का आधार ज्ञान, धन और बल होता है। अगर ये तीनों किसी एक के हाथ मे केन्द्रित हो जाए तो समाज मे असंतुलन पैदा हो जाता है। इसी ज्ञान को आधार मानकर महान ऋषियों ने समाज को चार वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) मे बांटा था।
                                       भारत में जाति व्यवस्था अस्तित्व में कब आयी इसकी कोई भी तिथि निश्चित नहीं है। किन्तु मनुस्मृति के अनुसार, भारत में जाति प्रथा के अन्तर्गत, प्रारम्भ में, लोगों के लिये उनके व्यवसाय के आधार पर आवश्यक कोड वर्णित किये जाते थे। इस प्रकार, ये उनके व्यवसाय पर आधारित होती है। लेकिन, आमतौर पर, लोगों के व्यवसाय विरासत बन गये और जाति व्यवस्था भी व्यवसाय से जन्म में और फिर विरासत के रुप में बदल गयी। अब एक व्यक्ति की जाति उसके जन्म के आधार पर और स्थिर सामाजिक स्थिति हो जाती है।
                                        लेकिन समय के साथ हिन्दू धर्म मे घोर परिवर्तन आए। अब लोग कर्म से नहीं जन्म से जाने जाते है। ब्राह्मण कुल मे पैदा हुआ एक चोर भी खुद को ग्यानी मानने लगा। क्या ऐसे समाज पर किसी को गर्व हो सकता है जो अपने ही धर्म भाइयों को धर्म के नाम पर जिल्लत भरी जिंदगी देता हो?



संवैधानिक प्रावधान 

सबसे पहले संविधान की प्रस्तावना में भारत के लिये धारणा है कि भारत ऐसा राष्ट्र है जहां सामाजिक-आर्थिक न्याय हो; जहां अवसरों और स्तर में समानता हो और जहां वैयक्तिक गरिमा सुनिश्चित हो।
               संविधान समानता की गारंटी देता है (अनुच्छेद 14); साथ ही राज्यों में भी इस बात को सुनिश्चित करता है कि किसी के भी साथ जाति के आधार पर भेदभाव न हो (अनुच्छेद 15 (1))।
              छूआछूत का उन्मूलन कर दिया गया है और इसका किसी भी रुप में व्यवहार में प्रयोग में लाना निषिद्ध है (अनुच्छेद 17)। संविधान ये निर्देश देता है कि कोई भी नागरिक, केवल जाति या धर्म के आधार पर किसी भी अयोग्यता या निषेद्धता का विषय न बनाया जाये (अनुच्छेद 15(2))।
                  ये राज्यों को शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण देने के लिये भी शक्तियाँ देता है (अनुच्छेद 15(4) और (5)); और ए.सी. के पक्ष में नियुक्तियों में (अनुच्छेद 16(4), 16(4A), 16(4B) और अनुच्छेद 335)। अनुच्छेद 330 में अनुसूचित जाति के लिये भी लोक सभा, अनुच्छेद 332 के अन्तर्गत राज्य विधान सभाओं और अनुच्छेद 243D और 340 के अन्तर्गत स्थानीय स्वनिकायों में सीटें आरक्षण के द्वारा प्रदान की जाती हैं। इसके अलावा, सामाजिक अन्याय और शोषण के सभी रुपों से भी संविधान सुरक्षा की गारंटी देता है (अनुच्छेद 46)।

जाति भेदभाव को प्रतिबंधित करने के लिये अनुच्छेद~
                         संविधान के निर्देशों को पूरा करने के लिये और तथाकथित निम्न जाति के खिलाफ शोषण और भेदभाव की व्यवस्था को रोकने के लिये और भी बहुत से अनुच्छेद संसद ने पारित किये थे। उनमें से कुछ विधान निम्नलिखित हैं:
             अस्पृश्यता (दंड़ात्मक) अनुच्छेद, 1955, को नागरिक अधिकारों की सुरक्षा अधिनियम, में 1976 में बदल दिया था।
             अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ क्रूरता को रोकने और निर्देशित करने के लिये अनुच्छेद 1989 बनाया गया।
               हाल में ही, सरकार ने लोक सभा में मैन्युअल सफाई कर्मचारी और उनका पुनर्वास के रुप में रोजगार प्रावधान के नाम से लोक सभा में 2013 में पारित किया था जिसका लक्ष्य मैन्युअल सफाई कर्मचारियों को रोजगार का प्रावधान कराना था। ये बिल कर्मचारियों के पुनर्वास और उन्हें वैकल्पिक रोजगार प्रदान करने के लिये था।
                ये दूसरा सामाजिक कल्याण वैधानिकीकरण है जिसका उद्देश्य मैन्युअल कर्मचारियों या वाल्मिकी जाति या भंगियों को सामाजिक तंत्र में बहुत सी सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक भेदभाव से सुरक्षा प्रदान करना था।
                     बचपन मे पढ़ा था भारत देश अनेकताओं मे एकता का देश है लेकिन हिन्दू धर्म मे ये बात ठीक नहीं बैठती क्योकि इसमे एकता नहीं है। हर कोई या तो पंडित है या ठाकुर, या तो बनिया है या दलित। जात-पात से ऊपर उठकर जो सोच सके, मेरी नज़र मे सिर्फ वही हिन्दू कहलाने का अधिकारी है, बाकी सभी ढोंगी।

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