सफल युवाओं की असफल यात्रा !!

आज के डिजिटल दौड़ में जब हमें इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए थी कि वासत्व में समस्त ब्रम्हांड हमारी उन्गलिओं के पोर और मस्तिष्क की सोच की गुलाम हो गयी है,शायद इतनी तो अलादीन के चिराग में भी शक्ति नहीं थी और हम उतने ही लाचार और कमजोर होते चले जा रहे हैं। व्यवस्था से जूझने के बजाय मौत को गले लगा ले रहे हैं।
आज का युवा वर्ग रोजगार के मामले में उतना पिछड़ा हुआ नहीं है जितना की 25-30 वर्षों पूर्व हमलोगों के समय में था। संसाधनों की कमी, माता-पिता का अपने बच्चों के भविष्य से ज्यादा घर और समाज के प्रति आशक्ति(ज्यादातर जो ग्रामीण परिवेश से शहरी वातावरण में ढले थे), हम छात्रों में रोजगार के विविध आयामों की अनभिज्ञता......जैसे कई विषय हैं जिन मामलों में आज के बच्चो का अनुपात ज्यादा अच्छा है। असफलता का प्रतिशत काफी कम हो गया है विशेषकर वे बच्चे जो निजी एवं प्रतिष्ठित संस्थानों में अध्ययन कर रहे हैं।
हालाँकि आज के दौर में भी सरकारी नौकरी का मिल जाना किसी भगवान् की प्राप्ति कम नहीं मानी जा रही है। अभी सरकारी नौकरी की तैयारी करनेवाले प्रतियोगियों में बैंकिंग और सिविल सेवा की तैयारी करनेवाले युवाओं की तादाद अन्य से बहुत ज्यादा है। सरकारी नौकरी या दुसरे शब्दों में कहूँ कि अच्छी नौकरी के लिये जी-तोड़ मेहनत करने और उसके बाद सफल ना हो पाने के बाद अगर कोई अपनी आत्महत्या कर ले अथवा अवसाद में चला जाये, तो सामान्य सी बात लगती है। लेकिन सफल होने के बाद अगर कोई आत्महत्या करता है तो यह विशेष चिंतन का विषय है।
पिछले कुछ दिनों के अंतराल में मैंने कई ऐसे सफल(तथाकथित) लोगों के आत्महत्या की खबर को पढ़ा जो सरकार के महत्वपूर्ण ओहदे पर थे। कुछ माह पहले ही बक्सर(बिहार) का जिलाधिकारी ने बक्सर से चलकर गाजियाबाद में रेल से कट कर आत्महत्या कर लिया, उसके कुछ दिनों के बाद ही बक्सर के ही उप जिलाधिकारी ने अपने आवास पर फांसी लगाकर आत्महत्या कर लिया और अब कल समाचारपत्र में पढ़ा कि 1988 बैच(सिविल सर्विसेज) के एक अधिकारी जीतेन्द्र झा ने दिल्ली स्थित पालम रेलवे स्टेशन पर मृत(आत्महत्या) पाए गए। अन्य ऐसे कई उदहारण मेरी नजरो के सामने से गुजर रहे हैं जो सामाजिक दृष्टि से नौकरी के लिहाज से काफी सफल रहे हैं जिन्होंने या तो पारिवारिक अथवा विभागीय दायित्व के बोझ के चलते अपने जीवन को ही समाप्त कर लिया। छात्रो एवं असफल युवाओं की तो बात भी नहीं मैं कर रहा हूँ अभी। विडम्बना तो देखिये जो बड़े-बड़े पदाधिकारी अपने विभाग अथवा जिले की विकास की संभावनाओं तो तलाश लेते हैं, जनता की समस्याओं का निवारण कर देते है वही अधिकारी अपने घर का कुशल संचालन करने में असफल होते जा रहे हैं, तारतम्य नहीं बिठा पा रहे हैं।
कभी कहीं पढ़ा था यदि व्यक्ति सम्यक नहीं है तो निश्चित ही उसकी शिक्षा सम्यक नहीं है। हमारे वर्तमान प्रारंभिक शिक्षा व्यवस्था के सिलेबस में ‘फैमिली मैनेजमेंट’ नाम की चीज नही है। हमारी समूची सामाजिक ताना बाना मात्र  S A D पर टिकी हुई है अर्थात  संस्कृति(S), अध्यात्म(A) एवं धार्मिक(D),यानी SAD में परिवार प्रबंधन की बातें बताई गई है। भगवद्गीता में खुश रहने के दो मार्ग बताये गये है-आर्थिक विकास का मार्ग और आध्यात्मिक विकास का मार्ग। पहला भोगवादी है और दूसरा योगवादी। सोशल मीडिया, फ्री वीडियो कॉलिंग सुविधा, सिनेमा ने हमारी लाईफ़ से उस रोमांच या उतावलेपन को ही खत्म कर दिया है जो आज से कुछ दशकों पूर्व हुआ करती थी। कुछ भी जानना होता है आज पलक झपकते ही google पर खोज लेते हैं या youtube पर देख लेते हैं। लेकिन कभी पंद्रह मिनट के लिए आँखे बंद करके हम मैडिटेशन करना नही चाहते न ही पुस्तकों का ही सानिध्य अब पसंद आता है हमें। आज न तो मैडिटेशन के माध्यम से अपने आप को जानने की जिज्ञासा ही नही होती है न पुस्तकों के माध्यम से अपनी संस्कृति को। इस भौतिक एवं आभासी दुनिया से परे भी एक दुनियां है इसके लिए हम कभी वक़्त देना पसंद नही करते। SAD को बुढ़ापे की प्रैक्टिस कहते हैं। ऊपर वर्णित आत्महत्या में बुढापा तो आया ही नही हैं। SAD के सिद्धांत को अगर जवानी में ही अपनाया जाय तो शायद आत्महत्या की नौबत नही आयेगी।
दुसरे की लिखी समस्याएं उसकी अपनी समस्या है,समस्या है कि समाधान हम उसकी समस्याओं में अपनी समाधान को ढूंढते हैं और परिणाम में हम या तो अप्रत्याशित मौत(आत्महत्या) को अपना लेते हैं या अवसाद में चले जाते हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि साधन में सुख है ही नहीं। सुख तो मन में है। हम तो यू ही आपा-धापी में लगे रहते। दूसरों को कोसते रहते, अपनी बुराई को कभी झाँकते ही नही।
पुनः समय आ गया है कि इस आभासी दुनिया से बाहर निकल कर हमें आज कुछ वक्त अपने लिए या अपनों के लिए दिया जाय तो कभी भी अकेलापन नहीं महसूस होगा। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या स्थान अथवा तकनीक से अत्यधिक लगाव ही हमें अवसाद की तरफ ले जाता है। किसी भी रंगमंच से कोई कलाकार स्वतः ही उसे छोड़ कर निकल जाये तो यह उसकी अक्षमता को एवं कायरता को ही प्रमाणित करती है। जब रंगमंच पर हम प्रदर्शन के लिए आये ही हैं तो सकारात्मक भूमिका को निभाएं न की नकारात्मक भूमिका या भगोड़े की भूमिका को। जब हमें दुनिया के रंगमंच पर अपने-अपने निर्धारित अभिनय को निभाना ही है तो क्यूँ न अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करें नायक की न मिली हो तो सह-नायक या खलनायक की ही सही। पर निर्धारित पूरी भूमिका को निभाएं कर्मठ बन कर, कायर हो कर नहीं।
अपनी पंक्तियों को मुक्तदा हसन “निदा फाजली” की पंक्तियों से समाप्त कर रहा हूँ-
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिट्टी है, खो जाये तो सोना है
गम हो कि ख़ुशी हो दोनों कुछ देर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है, हँसना है न रोना है।

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