कोलेजियम प्रणाली: बाध्यकारी अनिवार्य 'परामर्श'
क्या देश सरकार
बनाम न्यायपालिका के संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ा है? भले ही ऐसा कहना अभी जल्दबाजी हो और ऐसा सोचना न्यायसंगत
न हो, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार और न्यायपालिका के बीच तनाव
तो बढ़ ही रहा है। इस तनाव का नतीजा क्या होगा, इस पर टिप्पणी करना फिलहाल जल्दबाजी
होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका को बदनाम करने के लिये किए जा रहे प्रयासों
और भ्रामक अभियान पर कठोर रुख अपनाते हुए कहा कि इससे लोकतंत्र को बड़ा नुकसान हो रहा
है।
सबसे बड़ी समस्या
यह है कि एक बार जज नियुक्त हो जाने के बाद उस व्यक्ति पर चाहे कितना भी गंभीर आरोप क्यों
न लग जाए, उसे उसके पद से हटाने की प्रक्रिया इतनी कठिन और लंबी है कि हटाना लगभग असंभव
ही है। इसके कारण यह सवाल पैदा होता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बरकरार रखते हुए
उसे जवाबदेह कैसे बनाया जाए। इस समय किसी को भी यह नहीं पता है कि जजों की नियुक्ति
की प्रक्रिया क्या है और उन्हें किन कसौटियों पर कसने के बाद नियुक्त किया जाता है,
यानी उनकी नियुक्ति के लिए क्या मानक तय किए गए हैं।
कोलेजियम प्रणाली
भारत की बड़ी
अदालतों में जजों की नियुक्ति कोलेजियम प्रणाली के तहत होती है। कोलेजियम प्रणाली एक
‘गैर संवैधानिक’ प्रणाली है। इसका भारतीय संविधान में कहीं कोई प्रावधान नहीं
है। यह उच्चतम न्यायालय की एक व्यवस्था है, जिसके पास जजों की नियुक्ति का पूरा अधिकार
है। यह व्यवस्था 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से बनी। उच्चतम न्यायालय
और उच्च न्यायालय में न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम प्रणाली आ गई।
कॉलेजियम प्रणाली के तहत अभी यह व्यवस्था
है कि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश दो सबसे वरिष्ठ जजों के साथ मिलकर केंद्रीय कानून
मंत्री के पास जजों के नाम की सिफारिश भेजते हैं। कानून मंत्रालय प्रस्तावित नामों
पर फैसला लेने से पूर्व इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट लेता है। एक बार सभी जांच पूरी
हो जाती है, उसके बाद नामों की सिफारिश आगे देश के मुख्य न्यायधीश के पास नियुक्ति
पर अंतिम मुहर के लिए भेजी जाती है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश दो सबसे वरिष्ठ
जजों के साथ मिलकर नाम पर विचार करते हैं और अंतिम मुहर लगाते हैं।
सरकार कोलेजियम
की सिफारिश को मानने के लिए बाध्य है। यदि सरकार चाहे तो कोलेजियम की सिफारिश को एक
बार लौटा सकती है, लेकिन दूसरी बार वह सिफारिश मानने के लिए बाध्य है। यह ज्ञात तथ्य
है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम में पांच जज सदस्य
होते हैं, जिनमें भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल
होते हैं।
हम सभी जानते
हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में न तो कार्यपालिका, न ही संसद और न
न्यायपालिका को ही, बल्कि संविधान को ही सर्वोच्च कहा है। संविधान के अनुसार कानून
बनाना संसद का काम होगा और संविधान की रक्षा करना न्यायपालिका का। यद्यपि तीनों के
बीच अधिकारों का बंटवारा करते समय चेक एंड बैलेंस अर्थात नियंत्रण और संतुलन को प्राथमिकता
दी गई, तथापि उन्होंने इंग्लैंड की तरह संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया। इसके अनुसार
राष्ट्रपति नाम मात्र का शासनाध्यक्ष होगा और उसको अपना शासन मंत्रिमंडल के ‘परामर्श’ से चलाना
होगा और वह ‘परामर्श’ राष्ट्रपति
के लिए बाध्यकारी होगा।
यह 'परामर्श’ शब्द एक जगह और भी संविधान में आया है। संविधान का अनुच्छेद
124 कहता है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश
की नियुक्ति सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करता है, जिन्हें
वह इस कार्य के लिए आवश्यक समझता है। यह अनुच्छेद मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य
न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेना अनिवार्य
बनाता है।
इसी प्रकार अनुच्छेद 217 में
प्रावधान किया गया है कि किसी उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य
न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश,
सम्बंधित राज्य के राज्यपाल एवं उस राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श
लेना अनिवार्य है। परन्तु संविधान में परामर्श शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है कि
यह परामर्श बाध्यकारी होगा अथवा नहीं। इसलिए यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है कि न्यायाधीशों
की नियुक्ति में किसे प्रधानता होगी, राष्ट्रपति को या न्यायाधीशों को ।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता बहुत संवेदनशील मुद्दा है, क्योंकि प्रधानमंत्री
इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में उस पर कई गंभीर आघात किए गए थे। उसी समय “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” का नारा दिया गया था और वरिष्ठतम
जज की उपेक्षा करके उनसे जूनियर जज को भारत का प्रधान न्यायाधीश बना दिया गया था। जिसके
चलते इमरजेंसी के दौरान न्यायपालिका की भूमिका गौरवपूर्ण नहीं रही। इसीलिए उसके बाद
पूरी कोशिश की गई कि न्यायपालिका को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए और जजों
की नियुक्ति में सरकारी भूमिका को कम किया जाए।
कुछ इस तरह के माहौल में उपरोक्त अनुच्छेदों में परामर्श शब्द को परिभाषित करने
हेतु सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तीन निर्णय दिए गए, जिन्हें 3 न्यायाधीशवाद की संज्ञा
दी गई। प्रथम न्यायाधीशवाद में 7 न्यायाधीशों
की पीठ ने 4:3 के बहुमत से 1981 में
निर्णय दिया कि अनु. 124 एवं 217 में परामर्श का अर्थ भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति नहीं है। यदि राष्ट्रपति
और मुख्य न्यायाधीश के मध्य मतभिन्नता आती है, तो राष्ट्रपति की राय प्रभावी होगी।
लेकिन वर्ष 1993 में द्वितीय न्यायाधीशवाद में 9 न्यायाधीशों की पीठ ने 7:2 के बहुमत से वर्ष 1993
में निर्णय को उलट दिया। इस निर्णय में परामर्श को सहमति माना गया
और विवाद की स्थिति में मुख्य न्यायाधीश की राय को प्रभावी बताया गया। इसी निर्णय के
आधार पर कोलेजियम प्रणाली अस्तित्व में आई।
इस प्रणाली में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं
2 अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों की राय से
सरकार को अवगत करा दी जाने की व्यवस्था बनाई, जो कि राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी थी।
अपवादस्वरूप सरकार मजबूत एवं ठोस तर्कों से अनुशंसित नियुक्ति को अस्वीकार कर सकती
थी, किन्तु निर्णय में व्यवस्था थी कि यदि पुनः अनुशंसा करने वाले न्यायाधीश एकमत से
सरकार के तर्कों को दरकिनार करके अनुशंसित नियुक्ति की पुनः अनुशंसा करते हैं, तो सरकार
यह नियुक्ति करने के लिए बाध्य होगी। इसके बाद वर्ष 1998 में
तृतीय न्यायाधीशवाद में कोलेजियम के आकार को बढ़ाकर सर्वोच्च न्यायालय के 4
वरिष्ठतम जजों को भी शामिल कर लिया गया।
सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश के 13 हाईकोर्ट में 52 फीसदी या करीब
99 जज बड़े वकीलों और जजों के रिश्तेदार हैं। आरोपों के अनुसार
जजों की नियुक्ति प्रणाली में 200 अभिजात्य रसूखदार परिवारों
का वर्चस्व है। सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने कोलेजियम व्यवस्था में खामी पर
सहमति जताते हुए सुधार के लिए खुलेपन की जरूरत जताई थी। मगर सुप्रीम कोर्ट से कोलेजियम
व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए न्यायिक आदेश पारित नहीं हो पाया। उसने केंद्र सरकार
को मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) में बदलाव करने का निर्देश
दे दिया।
उसके बाद केंद्र सरकार ने बार-बार न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन के प्रयास किए।
अंततः वर्ष 2014 में वर्तमान केंद्र सरकार
ने 121वां संविधान संशोधन विधेयक 2014 एवं राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक को दोनों सदनों से 14
अगस्त, 2014 को पारित करवाया। तत्पश्चात
राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को 13
अप्रैल, 2015 को भारत सरकार के राजपत्र में
अधिसूचित कर दिया गया। इस राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग में 6 सदस्य
होने थे, जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के ही 2
वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित
व्यक्ति, जो ३ सदस्यीय समिति जिसमें प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
और विपक्ष के नेता शामिल होंगे द्वारा चयनित होंगे, शामिल होने थे।
परन्तु 16 अक्टूबर 2015 को सर्वोच्च न्यायलय ने न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर की अध्यक्षता में 5
न्यायाधीशों की पीठ ने 4:1 बहुमत से संविधान
संशोधन को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर दिया और पुराने कोलेजियम प्रणाली को ही जारी
रखने का निर्णय देते हुए इसकी खामियों में सुधार हेतु सुझाव मांगे. संविधान संशोधन
और आयोग के गठन वाला कानून संसद के दोनों सदनों ने बिना किसी विरोध के पारित किया गया
था और उसे 20 विधानसभाओं का भी अनुमोदन प्राप्त था। इसलिए
यह कहा जा सकता है कि ये जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करते थे। इतना ही नहीं न्यायिक
नियुक्ति आयोग की स्थापना विधि आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग जैसी संस्थाओं के व्यापक
अध्ययन और सिफारिश के बाद की गई थी।
अब जबकि सुप्रीम कोर्ट एमओपी में बड़े बदलाव के लिए राजी नहीं है और उसके बगैर
नए जजों की नियुक्ति लटकी है। चीफ जस्टिस के अनुसार विभिन्न हाईकोर्ट में 43 फीसदी पद रिक्त होने से 38 लाख
मुकदमे लंबित हैं, लेकिन तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालयों के अलावा अन्य अदालतों में
3.5 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। सवाल है कि ये मुकदमे क्यों लंबित
हैं? इन अदालतों में तो जजों की नियुक्ति पर कोई गतिरोध नहीं है। न्यायिक सुधारों और
जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव के बगैर केवल जजों की संख्या बढ़ाने से आम जनता
को जल्दी न्याय कैसे मिलेगा? देश में 1940 और 1950
के दशक के मुकदमे अभी भी लंबित हैं।
दूसरी ओर बड़े वकीलों की उपस्थिति से रसूखदारों के
मुकदमों में तुरंत फैसला हो जाता है। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने जजों के कथित
भ्रष्टाचार पर एक हलफनामा दायर किया था। दिलचस्प है कि जजों को बर्खास्त करने के लिए
संविधान में महाभियोग की प्रक्रिया निर्धारित की गई है, लेकिन यह प्रक्रिया इतनी कठिन
है कि उसके इस्तेमाल से आज तक कोई भी जज हटाया नहीं जा सका है।
आखिर
हमारी अदालतें19वीं शताब्दी के कानून और 20वीं
सदी की मानसिकता से लैस होकर 21वीं सदी की
समस्याओं को सिर्फ जजों की संख्या बढ़ाकर कैसे सुलझा सकती हैं? जब सीनियर एडवोकेट की
नियुक्ति हेतु सभी जजों की सहमति चाहिए होती है, तो फिर जजों की नियुक्ति हेतु पांच
जजों की बजाय सभी जजों की सहमति क्यों नहीं ली जाती? जब लोकतंत्र के सभी हिस्से सूचना
अधिकार कानून के दायरे में हैं, तो फिर जज उसके दायरे में आने से परहेज क्यों करते
हैं?
Comments
Post a Comment