दिनोंदिन बढ़ते मुकदमों के बोझ से कराहती भारतीय न्यायिक व्यवस्था टकटकी लगाये सुधारों की संजीवनी की बाट जोह रही है। नागरिकों को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय मुहैया कराने की जद्दोजहद के बीच मुकदमों का चरित्र परिवर्तित हुआ है, उनकी विशेषता भी बदली है। मुकदमों का अम्बार बढ़ाने के लिए सिर्फ वे जरूरतमंद और पीड़ित लोग ही जिम्मेदार नहीं हैं जो अपने अस्तित्व पर आये संकट से निपटने के लिए अदालत की कुंडी खटखटाते हैं।
न्यायपालिका की पीठ पर मुकदमों का बोझ बढ़ाने में उन संसाधन सम्पन्न रसूखदारों की भी कम भूमिका नहीं है जो स्वार्थसिद्धि के लिए अदालत के दरवाजे पर प्रभावी दस्तक देने लगे हैं। बेहतर और त्वरित न्याय सुलभ कराने के लिए न्यायपालिका को बेशक अधिक मानव और भौतिक संसाधनों की जरूरत है लेकिन यांत्रिक सुधारों की घुट्टी से कहीं ज्यादा उसे नैतिकता की खुराक की दरकार है। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े सभी पक्षकार यदि खुद को सुधारने लगें तो उससे ही न्यायिक सुधार रूपी कस्तूरी की तलाश काफी हद तक पूरी की जा सकेगी।
यदि विधायिका और कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाएं तो न्यायपालिका पर मुकदमों का अनावश्यक बोझ न बढ़े लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं रहा है।
न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए न्यायाधीशों को भी अपने मनोवृत्ति में बदलाव करनी पड़ेगी। आजकल मुकदमे न्याय पाने के लिए नहीं बल्कि किसी भी कीमत पर मकसद हासिल करने के लिए लड़े जा रहे हैं। व्यवस्था के सताये लोगों के लिए हम अदालतों के दरवाजे सिर्फ इसलिए नहीं बन्द कर सकते कि वे लम्बित मुकदमों की संख्या बढ़ाएंगे।
जरुरत से ज्यादा लंबित मुकदमों के पीछे कई प्रभावी तत्व सक्रीय हैं। अधिवक्ताओं द्वारा बार बार एक ही मुक़दमे में स्थगनादेश लेना, मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में दोनों पक्षों को नोटिस भेजने तक की पक्की व्यवस्था विकसित नहीं होना, गवाह का सही समय पर उपस्थित नहीं होना अथवा अदालतीय गवाही के जटिल प्रक्रिया के चलते इससे बचने की प्रवृति, ..... जैसे कई कारण भी सक्रीय हैं जिसके चलते न्यायायिक प्रक्रिया में विलम्ब तो होती ही है और इन सबों से बचने के लिए लोग महंगे अधिवक्ता को अपने केस में रखने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इसके पीछे यह मानसिकता कार्य करती है कि ‘महंगे अधिवक्ता बड़े अधिवक्ता होते हैं’ अथवा ‘बड़े अधिवक्ता महंगे अधिवक्ता होते हैं’ जो एक से दो बहस में हमारे मुकदमे का निपटारा कर देने में सक्षम हैं। न्यायलय के द्वार पर आये हुए व्यक्ति की इसी मानसिकता का दोहन विभिन्न प्रकार से होने लगता है। कोई भी अधिवक्ता बुरा नहीं होता है(अपवाद हर जगह होते हैं, फिर भी यहाँ कम हैं) सारी गलती मुक़दमा लड़ने वाले की होती है जो अपने अधिवक्ता को प्रेरित करते हैं कि सर अमुक वकील साहब को रख लीजिये न, उनका फी दे देंगे हम।
छोटी मछली तो सदैव बड़ी मछली का संरक्षण चाहती है। कुछ ऐसे भी लोग मुझे मिले जिनका यह कहना था कि आप जो पैसा बोलिए देंगें पर आपको लिखना मेरे हिसाब से होगा, ऐसी ही मानसिकता किसी भी कार्यस्थल में गन्दगी और भ्रष्टाचार को फैलाती है।
चलते चलते कल सर्वोच्च न्यायलय ने जो तल्ख़ टिपण्णी की है उससे मैं कहीं से भी इत्तेफाक नहीं रखता हूँ क्यूंकि किसी भी व्यक्ति को अपनी अपने कार्यक्षेत्र में विशिष्टता की कीमत मिलनी भी चाहिए।
आपके संज्ञान में शायद ही यह बात हो कि AIIMS में जो शल्य चिकित्सा में मरीज से जो कीमत वसूली जाती है उसकी आधी राशी संस्थान को एवं आधी राशी उस सम्बंधित शल्य-चिकित्सक के व्यक्तिगत खाते में जाती है जो कि उसके वेतन से बिल्कुल ही अलग होती है तब क्यूँ किसी अन्य व्यवसाय पर प्रश्न-चिन्ह उठाया जा रहा है।
न्यायिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार को हमनें जो संस्थागत दर्जा दिलाया है, उससे मुक्ति के लिए भी हमें ही आत्ममंथन करना होगा। विवेकाधीन निर्णय करने का अधिकार भ्रष्टाचार की जड़ है। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े पक्षकारों के लिए यह आत्मावलोकन का क्षण है। न्यायिक सुधारों की अपरिहार्यता तो जतायी लेकिन विडंबना यह है कि सुधार उन्हीं के पास आते हैं जो सुधरना चाहते हैं। न्याय समाज की जरूरत के लिए बना है।

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