पदमभूषण कृष्णा सोबती~ स्त्री शुचिता की सबसे बड़ी पैरोकार !!

हिंदी भाषा की वरिष्ठ एवं सबसे वृद्ध साहित्यकार जिन्हें साहित्य के लगभग सभी बड़े सम्मान से नवाजा जा चूका है उन्हें बहुत ही विलम्ब से कल ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए नामित किया गया है। इन्हें व्यास सम्मान, शलाका सम्मान से भी सम्मानित किया जा चूका है। हिंदी साहित्य का शायद ही कोई पाठक इस नाम से अनभिज्ञ होगा।
डार से बिछुड़ी, जिंदगीनामा( साहित्य अकादमी पुरस्कार), ए लड़की, मित्रो मरजानी, हम हशमत, सिक्का बदल गया, सूरजमुखी अँधेरे में जैसी अनमोल कृतियों के साथ उन्होंने हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने में सफल रहीं। मित्रो मरजानी उनकी सबसे चर्चित पुस्तक है। मित्रो मरजानी में कृष्णा सोबती ने उन शब्दों का भी खुल कर प्रयोग किया है जिन शब्दों को अमूनन पुरुष वर्ग भी प्रथम अक्षर के बाद बिंदु लगा कर निकाल जाते हैं। पुरुषों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली भद्दी गलियों का उन्होंने बड़े सहजता से प्रयोग किया है।
इस पुरस्कार की घोषणा होते ही एक बार फिर से कृष्णा सोबती के माध्यम से स्त्री की पुरुषवादी मानसिकता पर बहस छिड़ गयी है। आज ‘स्त्रीवाद’ को किस नज़रिये से देखा जा रहा है? अपने मूल रूप में ‘स्त्रीवाद’ एक मुक्तिगामी समाज की परिकल्पना है जहां लैंगिक आधार पर किसी तरह का शोषण नहीं होगा। ‘स्त्रीवाद’ पहले एक दर्शन है फिर राजनीति, यह हमें समझना होगा। इसका उदेश्य पितृसत्ता को सिर के बल खड़ा करना है न की पुरुषों को। ‘पुरुष’ का सारा ध्यान स्त्री की ‘योनिकता’ पर केन्द्रित है।
हिन्दी के पुरुषवादी आलोचकों ने ज़्यादातर महिला लेखन को ‘महज़ देह’ विमर्श तक समेट कर रख दिया है और जहां भी यह लेखन गहरे विमर्शों में गया है उसे ‘पश्चिमी फेमिनिज़्म’ का ‘बौद्धिक विलाप’ कह कर उसका माखौल उड़ाया है।
‘नारीवादी’ लेखन को हमें नारीवादी आलोचना दृष्टि से देखना होगा। तभी हम समझ पाएंगे कि वहाँ ‘देह’ सिर्फ ‘देह’ नहीं है, वह एक प्रतीक है। और देह की आज़ादी पितृसत्ता से आज़ादी है।
कृष्णा सोबती स्पेस बनाने वालों में अग्रणी हैं। वह इसका दावा नहीं करतीं हैं उनका मानना है कि दावा करने का अधिकार सिर्फ दार्शनिकों के पास होता है। वह ‘नारीवाद’ को समग्रता में समझती हैं और उसे मानवतावाद के निकट ले जाकर अपने उपन्यासों में दर्ज़ करती हैं। सोबती ने उपन्यासों में पुरुष पात्रों का चित्रण उपन्यास के देश-काल के हिसाब से किया है। और वे पुरुष पात्र कहीं भी बहुत ‘लाउड’ नहीं हैं। वे पुरुष पात्र वर्षों से चली आ रही स्थापित पितृसत्ता के वारिस हैं।
एक साक्षात्कार में कृष्णा सोबती जी से एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछा गया कि शायद आपका एक प्रेम प्रसंग भी था, तब उन्होंने उसका उत्तर दिया कि ‘ मेरे हालत इतने ख़राब भी नहीं थे कि एक ही प्रेम प्रांग होता।‘
श्रीग्वेद में एक शब्द की चर्चा की गयी है ‘सदबरानी’ जिसका अर्थ है ऐसी ओउरतें जो स्वतंत्र हैं, और उस समय ऐसी औरतों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। स्त्रियाँ यदि स्वतंत्र हैं तो वैश्य हैं, परिवार से बंधी रहने में ही उनकी पूर्णता और उपलब्धि है।
            कृष्णा सोबती की पूरी साहित्य कृति इसी शब्द के विरुद्ध मुझे खादी दिखती है।
     हार्दिक शुभकामनाएं

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