E= MC2 अर्थात मानवता का सर्वनाश !!

जब कक्षा 6 का छात्र था उस समय ' विज्ञान- मनावत के लिए अभिशाप है या वरदान ' विषय पर निबंध लिखने के लिए कहा गया था। उस समय क्या लिखा होऊंगा, अब तो कुछ भी याद नही पर यदि आज उत्तर कोरिया और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के बढ़ते आपसी वर्चस्व की लड़ाई और स्व-अहंकार की पुष्टि के चलते सारी मानवता जिस अनभिज्ञ भय में जीने के लिए आज अभिसप्त है; अगर पुनः आज इस विषय पर आलेख लिखने की चेष्टा करूँ तो आज शब्द शायद इस तरह से कलमबद्ध हो।
 
अल्बर्ट आइंस्टीन ने एक बार कहा था कि... "मुझे नहीं पता कि विश्व युद्ध् तृतीय किन हथियारों के दम पर लड़ा जाएगा... लेकिन अगर तृतीय विश्व युद्ध होता है... तो ये निश्चित है कि... चौथा विश्व युद्ध लाठी और पत्थरो से लड़ा जाएगा"।
आधुनिक विज्ञान को नयी दिशा देने वाले महान वैज्ञानिक "अल्बर्ट आइंस्टीन" जब जनरल रिलेटिविटी का पेपर लिख रहे थे तब उन्होंने कभी नहीं सोचा था की उनका जादुई समीकरण E=MC2 एक दिन मानवता को महाविनाश का हथियार भी थमा देगा। इस फार्मूले के आधार पे विध्वंस के उस हथियार की खोज हुई जिसे हम कहते है  "परमाणु बम"।
6 अगस्त 1945 को जब अमेरिका द्वारा "लिटिल बॉय" को हिरोशिमा के ऊपर गिराया गया तो... इस्तेमाल किये यूरेनियम का सिर्फ 1.38% भाग ही विखंडित हो पाया था अर्थात सिर्फ 0.7 ग्राम मात्रा का यूरेनियम एक 100 रूपए के नोट के वजन से भी हल्की सामग्री से उत्पन्न हुआ विध्वंस.....एक क्षण में 90000 लोगो को मारने के लिए काफी था जो बच गए.... आज तक संक्रमित है.... अपंग पैदा होते हैं आज भी। जमीन आज तक बंजर है।
        9 अगस्त 1945… हिरोशिमा में प्रथम परमाणु बम गिराने के बाद....कैप्टन Cherles Sweeny को कुकूरा नामक शहर पे दूसरा परमाणु बम "फैटमैन" गिराने का आदेश मिला। पर हवा में एक घंटे भटकने के बावजूद खराब मौसम के कारण.... वे रास्ता भटक गए और उन्हें द्वितीय टारगेट की और जाने को कहा गया "नागासाकी" जहाँ अगले क्षण.... 80000 लोगो की लाशें बिछ गई। इस तबाही के निशान आज भी वहां देखे जा सकते है। 
आज जब दुनिया में हजारो परमाणु बम बनाये जा चुके है....जिनकी विध्वंसक क्षमता हिरोशिमा में गिराये प्रथम परमाणु बम से लाखो गुना ज्यादा है।
23 जनवरी 1961 को 4 मेगा टन के परमाणु बम को ले जाता USB-62 नामक एक अमेरिकी फाइटर प्लेन अपना नियंत्रण खो कर नार्थ कैरोलिना में गिर पड़ा....और बम डेटोनशन प्रोसेस शुरू हो गया था।भाग्य से उस दिन एक सेफ्टी स्विच-- जो ऑन होने से रह गया था। नहीं तो....अमेरिका का उस दिन इतिहास-भूगोल बदल गया होता क्यूंकि.....ये बम हिरोशिमा पर गिराये गए बम से 260 गुना ज्यादा शक्तिशाली था। 
आज 21वी सदी में हम लोगो का उद्देश्य है कि हम क्लास 1 या क्लास 2 सिविलाइज़ेशन बनने की और कदम उठाये एक ऐसी सभ्यता जो प्रकृति के कारको को नियंत्रित कर पाये जो सूर्य जैसे सितारों को अपनी ऊर्जा की जरुरतो के लिए इस्तेमाल कर पाये और...चाँद मंगल पे अपनी बस्तिया स्थापित कर पाये तथा एक ऐसी ग्लोबल सभ्यता बनाये जिसे "प्लेनेट ह्यूमन" कहना उचित है।
जहा राष्ट्र की सीमाओ की दीवारे तोड़... सब एक दूसरे के लिए खड़े हो कर.... एक दूसरे का साथ दे कर एक भयमुक्त समाज बनाने की अवधारणा पर कार्य करते दिखते हैं।
पर...ख़तरा वहां पहुच कर नहीं... ख़तरा इस वक़्त हमारे सर पे मंडरा रहा है क्योंकि...विश्व में एक दूसरी अवधारणा भी है जो हमें आगे नहीं ले जाना चाहती बल्कि मध्य युग के अँधेरे पन्नो में धकेल देना चाहती है ‘मजहबी आतंकवाद’ एवं ‘स्व-अहंकार’ की पुष्टि।
धर्म और विज्ञान का जन्म ही मानव मात्र के कल्याण के लिए होता है। पर इतिहास गवाह है कि एक महान अच्छाई ही हमेशा महान बुराई के रूप में उभरती है और संसार के विनाश का कारण बनती है और आज नाभकीय हथियारों के ढेर पर बैठे विश्व का परिदृश्य हमारे सामने है जहा मजहब के नाम पे विज्ञान को हथियार बना आतंकवाद दुनिया को मटियामेट कर देना चाहता है।
एक माचिस की तिल्ली अगर घर में खाना बनाने के लिए आग जला सकती है तो... वही माचिस की तिल्ली... किसी के घर में आग भी लगा सकती है। टाइटन-2 मिसाइल का आविष्कार इंसानो द्वारा घातक न्यूक्लिअर वेपन्स के ट्रांसपोर्ट के लिये किया गया था पर इसी टाइटन 2 ने उन अंतरिक्ष यात्रियो को अंतरिक्ष में पहुचाया जिन्होंने बाद में..चाँद पर इंसानी कदमो के निशान बनाये।
जब भी मैं रात के अँधेरे में अपने ऊपर चमकते इन खूबसूरत सितारों को देखता हूँ तो अक्सर मेरे दिमाग में एक ख्याल आता है कि... हम अकेले क्यों है? 14 अरब वर्ष पहले जन्मे इस ब्रह्माण्ड में सिर्फ हमारी आकाशगंगा मिल्की वे में ही करोडो गृह ऐसे है जिनमे जीवन के लिए आधारभूत अवयव मौजूद है तो पिछले 14 अरब वर्षो में क्यों कोई सभ्यता class-2 सिविलाइज़ेशन के स्तर पर नहीं पहुंच पाई? क्यों आज तक हमें..कही किसी और दुनिया के सिगनल्स का इन्तजार है?
जवाब शायद थोड़ा दुखद हो सकता है शायद ब्रह्माण्ड में हमारे जैसी Type-0 सभ्यताए ही ज्यादा व्यापक है क्योकि जब मनुष्य उन्नति के पायदान पर एक कदम ऊपर चढ़ता है  तो "आत्महत्या" का सामान भी खुद तैयार करता है शायद कभी एक ऐसा वक़्त आये जब हम इंटर गैलेक्टिक ट्रेवल के लायक हो पाये और किसी ना किसी दिन शायद हम किसी ऐसे "एलियन प्लेनेट" पर कदम रखें जहां... हमारे यंत्र हमें रेडिएशन की एक मोटी परत के नीचे किसी सभ्यता के अवशेषो के बारे में बताएं एक ऐसी सभ्यता...जो एक कदम बढ़ाने से पहले ही नियति के क्रूर पंजो में फंस कर... आणविक युद्ध में फंस कर काल का ग्रास हो गई।

Comments

  1. सचमुच इसका यह पक्ष बेहद दुखद है.
    मनुष्य को आविष्कार करना तो आ गया पर उसकी विध्वंसात्मक सोच के चलते, सही उपयोग नहीं सीख पाया.

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  2. सत्य एवम मार्मिक प्रसंग नीरज जी।
    वर्चस्व की लड़ाई में विध्वंश को ही नियति मान लिया,अविष्कार का अर्थ अब तक हम समझ ही नही सके ...

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