हमारा खोया हुआ गौरवशाली अतीत (खंड 02)

सनातन धर्म क्या है !!

वर्तमान में हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जिसमे सभ्यता की विराट भूख छुपी हुई है। यह न तो कट्टरवाद है और न ही फासीवाद। यह एक अपवाद जैसा ऐतिहासिक क्षण है जिसमें भारत और विदेशों में रहने वाले हिन्दुओं की एक पूरी नौजवान पीढ़ी जवान हो रही है और सिर्फ एक ही ज्वलंत  प्रशन कर रही है आखिर हम कौन हैं? वास्तव में हमारी पहचान क्या है?

हाल के समय में भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाले उपन्यास इसके पुराण और इतिहास का नव-कल्पित ढंग से पुनर्प्रस्तुत रूप है। The Immortal of Meluha में सिन्धु घाटी सभ्यता काल की कल्पना की गयी है जिसमें केन्द्रीय चरित्र शिव हैं। वो शिव, हिमालय में रहने वाले एक यौद्धा नौजवान हैं, जिसे मेलुहा के अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित और वैज्ञानिक चेतना संपन्न-लोग चुना हुआ महादेव मानते हैं। मेलुहा में हमारे ऋषियों को वैज्ञानिक और हमारे देवी-देवताओं को मनुष्य या आलौकिक प्रतीत होने वाला माना गया है। उसमें वर्णित महँ सभ्यताएं भव्य है और वे सक्षम तरीके से संगठित हैं। वहां हर कोई डॉक्टर, ईन्जीनिएर या प्रबंधक होता है। फिर भी वे मनुष्य हैं, वे भारतीय हैं, वे हिन्दू हैं। वे अच्छी-बुरी चीजों के बारे में तर्क-वितर्क करते हैं। और उनमे से अधिकांश बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण हैं।

यानि यह ऐसा युग है जिसमें हम अपने देवताओं को मानव-स्वरुप में या मनुष्य सा व्यवहार करता देखना चाहते हैं।
यह भी दिलचस्प है कि हमारी पहचान को लेकर हमारा नया दृष्टिकोण किसी अकादमिक या राजनीतिक विचारधारा से निकलकर आने की बजाय हमारी लोकप्रिय संस्कृति और उसके माध्यमों द्वारा सामने आ रहा है। हमारे पास अभी तक अपने इतिहास को ज्यादा से ज्यादा शुद्ध रूप में लिखने का कोई संसाधन नहीं है।

हम कितने प्राचीन हैं और कितनी विविधता लिए हुए है, ये बातें जानने के बाद  यह बिलकुल स्वाभाविक है कि हिन्दू धर्म की कोई भी परिभाषा इसकी विराटता और भव्यता को सही तरीके से व्यक्त नहीं कर पाती। यह बात भी समझ आने लायक है कि हम अक्सर हिन्दू धर्म को उसके सही रूप में व्याख्यायित करने की बजाय गलत रूप में व्याख्यायित करते हैं। अनौपचारिक रूप से हम किसी भी वैसे व्यक्ति को हिन्दू कहते हैं जो मुसलमान, इसाई या यहूदी या फिर सिक्ख या बोद्ध, जैन नहीं है। इन नास्तिकों को भी हिन्दू कहते हैं और ऐसे व्यक्तियों को भी जो पूरी तरह नास्तिकों कोभी हिदू कहते हैं और ऐसे व्यक्तियों को भी जो पूरी तरह से अपने स्वैच्छिक चुनाव या अभिरुचि के कारण हिन्दू बना है, न की जन्म के कारण।

अगर वास्तव में सनातन धर्म के विचार का आनंद करते हैं, जो प्रकृती, वास्तविकता, प्रेम या कहें कि उस सत्य का शाश्वत रूप है ‘जिसमे ब्रह्माण्ड के सरे अवयवों को धारण किया हुआ है’ तो ऐसे में हम उन बातों की व्याख्या कैसे कर सकते हैं कि कैसे हमारी आध्यात्मिक संस्कृति ने इस विचार को पुरे इतिहाद में जिया है?

हमारे पास हमारे हिन्दू इतिहास-लेखनशास्त्र के दो माँडल हैं। एक माँडल हिन्दुफोबिया इतिहास- लेखनविधा का है जो संदेहास्पद है और दूसरी तरफ एक लोकप्रिय वैकल्पिक हिन्दू इतिहास का लेखन भी है जिसे अक्सर हिन्दू राष्ट्रवादी अति-कल्पना कह कर ख़ारिज कर देते हैं। दरअसल, यह दूसरा माँडल इस बात को स्थापित करने का प्रयाश करता रहता है कि हमारा एक विकसित अतीत था जो निरंतर विदेशी हमलों द्वारा क्षतिग्रस्त होता चला गया। ऐसे में हमें इन दोनों मोडलों से अलग एक तीसरे वैकल्पिक मोडल कि तरफ अपनी दृष्टि डालनी चाहिए, जो न हमारी सभ्यता कि बर्बर और असभ्य कहकर व्याख्या करता है जिसे शर्मिंदगी में जीना चाहिए, और न ही हमें पीड़ित और रुदाली करने वाले के रूप में व्याख्या करता है जिसे हमेशा बदला लेने के लिए क्रुद्ध अवस्था में बने रहना चाहिए। शायद हमें यह सिखने और पहचान करने की आवश्यकता जरुरत है कि आखिर हमारे दर्शन में ऐसा क्या है जिसने हमें कटीं राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में भी अस्तित्व रक्षा करने में मदद की है और जो अभी भी बरक़रार है।


अतीत के प्रति हमारा दृष्टिकोण या अतीत की तरफ निगाह उसी तरह की होनी चाहिए – उसका कर्तव्य के प्रति जो हमें अपने बच्चों को सिखाना है। हमें अपने बच्चों को सिर्फ तथ्य और आंकड़े नहीं सिखाने हैं, बल्कि उन्हें वो दृष्टि देनी है कि वे इस दुनिया में पसरी विरत सुन्दरता को देख सकें, उस ह्रदय को प्राप्त कर सकें जिससे कृतज्ञता और दयालुता का अनुभव होता है और उसे भी ज्यादा वो हाथ प्राप्त कर सकें जिसके द्वारा इस दुनिया को और नए तरीके से गढा जा सकता है, हमेशा ज्यादा। 

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