गुरु पूर्णिमा !!



'हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥'
चेतना का स्तर ऊंचा उठाने और प्रतिभा, प्रखरता को आगे बढ़ाने की आवश्यकता गुरुवरण से ही पूरी होती है। गुरु केवल मार्गदर्शन ही नहीं करते, वरन अपनी तपश्चर्या, पुण्य संपदा एवं प्राण ऊर्जा का एक अंश देकर शिष्य की पात्रता और क्षमता बढ़ाने में योगदान करते हैं।
डॉ. एस. राधाकृष्णन ने कहा है कि- 'शिक्षा को मनुष्य और समाज का कल्याण करना चाहिए। इस कार्य को किए बिना शिक्षा अनुर्वर(नॉन प्रोडक्टिव) और अपूर्ण है। शिक्षा जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है एवं इस प्रक्रिया का मूलाधार गुरु है। किसी भी राष्ट्र का विकास शिक्षा एवं शिक्षक के अभाव में असंभव है, चाहे वह राष्ट्र कितने ही प्राकृतिक संसाधनों से आच्छादित क्यों न हो।
चरित्र की उत्कृष्टता एवं व्यक्तित्व की समग्रता ही गुरु अनुग्रह की वास्तविक उपलब्धि है। यह जिस भी साधक में जितनी अधिक मात्रा में दिख पड़े, समझा जाना चाहिए गुरु की उतनी ही अधिक कृपा बरसी, अनुदान-वरदान मिला।
स्वाध्याय एवं सत्संग से मनुष्य ऋषि ऋण से गुरु ऋण से मुक्त हो सकता है। साहित्य के कुछ पृष्ठ नित्य पढ़ने का संकल्प लेकर गुरु चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती है। अब समय आ गया है कि पुष्प, फल, भोजन दक्षिण आदि से ही गुरु पूजन पर्याप्त न माना जाए, वरन जन-जन को अपना जीवन निर्माण करने के लिए गुरु के उपयोगी वचनों को हृदयंगम करने और उन्हें कार्यरूप में परिणित करने का प्रयत्न किया जाए।
हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर यदि एक बुराई छोड़ने और एक अच्छाई ग्रहण करने की परंपरा पुन: आरंभ की जाए तो जीवन के अंत तक इस क्रम पर चलने वाला मनुष्य पूर्णता और पवित्रता का अधिकारी बनकर मानव जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
संत कबीर कहते हैं-
'हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥'
अर्थात् भगवान के रूठने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना संभव नहीं है।
दुनिया के समस्त गुरुओं को मेरा नमन।

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