तृष्णा !!

एक व्यक्ति को धन प्राप्त करके अमीर बनने की इच्छा हुई। अमीर बनने की कामना से वह एक संन्यासी के पास गया। उनसे उसने कहा, 'बाबा! मैं बहुत गरीब हूं, मुझे कुछ दो।' संन्यासी ने कहा, 'मैं अकिंचन भला तुम्हें क्या दे सकता हूं ? मेरे पास तो अब कुछ भी नहीं है।' संन्यासी ने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं माना। तब बाबा ने कहा,'अच्छा यदि तुम इतना आग्रह कर रहे हो तो जाओ नदी के किनारे एक पारस का टुकड़ा पड़ा है, उसे ले जाओ। मैंने उसे फेंका है। उस टुकड़े से लोहा सोना बनता है।'

वह दौड़ा-दौड़ा नदी के किनारे गया। वहां से पारस का टुकड़ा उठा लिया और बाबा को नमस्कार कर घर की ओर चला। वह अभी सौ कदम ही गया होगा कि उसके मन में कुछ विचार उठा और वह उल्टे पांव संन्यासी के पास लौटकर बोला,'बाबा ! यह लो तुम्हारा पारस, मुझे नहीं चाहिए।' संन्यासी ने पूछा, 'क्यों ?' उसने कहा,'बाबा! मुझे वह चाहिए जिसे पाकर तुमने पारस को ठुकराया है। वह पारस से भी कीमती है, अतः आप कृपया वही मुझे दीजिए।' बाबा ने कहा, 'तो ठीक है। अपनी तृष्णाओं को छोड़ दो, तृष्णाओं के छोड़ते ही सब कुछ स्वयं ही पा लोगे।'

मशहूर मनोवैज्ञानिक डॉ. गोपालजी मिश्र अपने अनुभवों से लिखते हैं कि,'तृष्णा जैसा साथी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। संगी-साथी, घर-परिवार, पद-प्रतिष्ठा, लोकसंग्रह, स्वास्थ्य, धन आदि सभी परिस्थिति विशेष में छूट सकते हैं। एक तृष्णा ही ऐसी होती है जो कभी नहीं छूटती।' आचार्य चतुर सेन शास्त्री अपनी कृति 'पराजित नारी' में तृष्णा के लिए स्पष्ट कहते हैं, 'तृष्णा सब दुखों की जड़ है। शरीर को सुख पहुंचाने वाली वस्तुओं के उपभोग की इच्छा को तृष्णा कहते हैं। मनुष्य के मन में जब तृष्णा का अंकुर फूटता है तब उसे बहुत अच्छा लगता है, परंतु अंत में वही तृष्णा उसे खा जाती है और उसका जीवन नष्ट हो जाता है। यह इतनी सशक्त है कि आजीवन कारावास के कैदियों तक के ह्रदयों में ताना-बाना बुनती रहती है। तृष्णा उन्हें भी नहीं छोड़ती। एकांतवासी भी तृष्णा के मोहपाश से नहीं बच पाता। संसार के बड़े दुखों में एक तृष्णा है। 

तृष्णा के लिए स्वयं भगवान 'श्रीराम' ने कहा है - संसार में जितने भी दुख हैं उन सबमें तृष्णा ही सबसे बड़ी दुखदायिनी है। जो कभी घर से बाहर भी नहीं निकलता उसे भी तृष्णा बड़े संकट में डाल देती है।'


अपनी जरूरतों को कम करके, आवश्यकताओं में कटौती करके ही तृष्णा के पंजे से बचा जा सकता है और सिर्फ अपनी जरूरत भर इच्छाओं की पूर्ति करना कभी गलत नहीं होता।

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