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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
नवंबर 26, 1949

भारतीय संविधान सभा में संविधान के मसौदे पर संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का अध्यक्षीय वक्तव्य !

            यथावत उद्दृत...........

डा. अम्बेडकर द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव पर मत लेने से पूर्व मैं कुछ शब्द कहना चाहता हूँ। .........एक इतने बड़े महान कार्य को पूरा करने पर मैं इस सभा को बधाई देना चाहता हूँ। मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि इस सभा ने जो कार्य किया है उसका मैं मूल्य आंकू  अथवा जो संविधान इसने बनाया है उसके गुण और दोषों को बताऊं। इस कार्य को औरों पर तथा आगे आनेवाली संतति पर छोड़ने में मुझे संतोष है। मैं केवल उसकी कुछ मुख्य बातें बताने तथा उस रीति को बताने का प्रयास करूंगा जिसका इस संविधान के निर्माण करने में हमने अनुसरण किया है।

ऐसा करने से पूर्व मैं कुछ उन तथ्यों का वर्णन करना चाहूँगा जो इस कार्य की महानता को प्रकट करेंगे जिसको हमने लगभग 3 वर्ष पूर्व हाथों में लिया था। यदि आप उस जनसंख्या का विचार करेंगे जिसका इस सभा को ध्यान रखना पड़ा तो आपको विदित होगा कि वह रूस रहित समस्त यूरोप की जनसंख्या से अधिक है। यह जनसंख्या 31 करोड़ 90 लाख है और रूस रहित यूरोप की जनसंख्या 31 करोड़ 70 लाख है। एक एकात्मक सरकार के अधीन आना तो दूर रहा यूरोप के देश कभी संगठित तक नहीं हो पाए हैं या एक संयुक्त मंडल (कान्फेडरेशन) तक नहीं बना पाए हैं। यहां जनसंख्या और देश के इतने बड़े आकार के होते हुए भी हम एक ऐसा संविधान बनाने में सपफल हुए हैं जिसके अंतर्गत सारा देश और सारी जनसंख्या आ जाती है। आकार के अतिरिक्त और भी कठिनाइयां थीं जो इस समस्या ही के अंतर्गत थीं। हमारे यहां देश में कई संप्रदाय रहते हैं। हमारे यहां देश के भिन्न-भिन्न भागों में कई भाषाएं प्रचलित हैं। हमारे यहां और भी अन्य प्रकार की भिन्नताएं हैं जो भिन्न-भिन्न भागों में मनुष्यों को परस्पर विभाजित करती हैं। हमें केवल उन क्षेत्रों के लिए ही उपबंध नहीं बनाने पड़े जो शैक्षणिक तथा आर्थिक रूप में उन्नत हैं। हमें जनजातियों जैसे पिछड़े लोगों के लिए भी तथा जनजाति क्षेत्रों के समान पिछड़े क्षेत्रों के लिए भी उपबंध बनाने पड़े। सांप्रदायिक समस्या एक बहुत ही जटिल समस्या थी जो इस देश में एक अरसे से प्रचलित थी। दूसरा गोल-मेज सम्मेलन जिसमें महात्मा गांधी गए थे, इसी कारण असफल हुआ कि सांप्रदायिक समस्या हल न हो सकी। इसके बाद का देश का इतिहास इतना आधुनिक है कि उसके कहने की यहां आवश्यकता नहीं है। पर हम यह जानते हैं कि परिणामस्वरूप देश का विभाजन करना पड़ा और पूर्वोत्तर तथा पश्चिमोत्तर में हमारे देश में से दो भाग निकल गए।

दुसरी महान समस्या देशी राज्यों की समस्या थी। जब अंग्रेज भारत में आए तो उन्होंने सारे देश को एकदम एक ही बार नहीं जीता। वे समय समय पर थोड़ा थोडा करके उसको लेते चले गए। वे टुकड़े जो उनके प्रत्यक्ष कब्जे तथा नियंत्रण में आ गए ब्रिटिश भारत के नाम से ज्ञात हुए, परंतु एक बड़ा भाग भारतीय राजाओं के शासन तथा नियंत्रण में रहा। उस समय अंग्रेजों ने यह सोचा कि यह उनके लिए आवश्यक तथा लाभदायक नहीं है कि उन राज्य-क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखें और इस कारण उन्होंने पुराने शासकों को अपनी (अंग्रेजों की) प्रभुता के अधीन बने रहने दिया। पर उन्होंने उनसे भिन्न-भिन्न प्रकार की संधियां कीं और संबंध स्थापित किए। हमारे यहां लगभग छ: सौ रियासतें थीं जो भारत के राज्य-क्षेत्र के तिहाई भाग से अधिक भाग को घेरे हुए थीं और जिनमें देश की एक चौथाई जनसंख्या थी। छोटे-छोटे ठिकानों से लेकर मैसर, हैदराबाद, काश्मीर इत्यादि बड़ी-बड़ी रियासतों तक वे भिन्न-भिन्न आकार प्रकार की थीं। जब अंग्रेजों ने इस देश को छोड़ना निश्चित किया तो उन्होंने हमको शक्ति दी, पर इसके साथ-साथ उन्होंने यह भी घोषणा की, राज्यों से जो संधियां या संबंध उनके थे वे सब भंग हो गए। वह प्रभुता भी मिट गई जिसका वे इतने काल तक प्रयोग करते रहे और जिससे वे शासकों को व्यवस्थानुसार चला सकते थे। इस समय भारतीय सरकार को इन राज्यों से सुलझने की समस्या का सामना करना पड़ा जिनमें भिन्न-भिन्न प्रकार की शासन व्यवस्थाएं थीं, कुछ राज्यों की सभाओं में लोकप्रिय प्रतिनिधान का कुछ रूप था और कुछ में ऐसी कोई बात न थी और उन पर पूर्णतया स्वतंत्र शासन था।

इस घोषणा के परिणामस्वरूप कि देशी राजाओं के साथ संधियां और उन पर प्रभुता भंग हो गई थी। किसी राजा या राजाओं के गुट को यह अधिकार मिल गया था कि वे स्वाधीन हो जाएं और यहां तक कि किसी विदेशी शक्ति से संधि संबंधी बातचीत भी करें और इस प्रकार इस देश में स्वाधीन राज्य क्षेत्र के भागों की स्थापना हो। यद्यपि भौगोलिक अथवा अन्य ऐसी अनिवार्यताएं अवश्य थीं जिनके कारण उन राज्यों में से अधिकांश के लिए यह नितांत असंभव था कि वे भारत सरकार के विरुद्ध हो सकें पर संवैधानिक रूप में ऐसा हो सकता था। अतः आरंभ में ही उनके प्रतिनिधियों को सभा में लाने के लिए संविधान सभा को उनसे बातचीत करनी पड़ी जिससे कि उनसे परामर्श कर संविधान बनाया जा सके। प्रथम प्रयास में ही सफलता मिली और कुछ रियासतें शुरू ही में इस सभा में आ गईं पर कुछ रियासतें संकोच करती रहीं। यह आवश्यक नहीं है कि उन घटनाओं के गुप्त भेदों को खोला जाए जो उन दिनों परदे की आड़ में हो रही थीं। केवल यह कहना पर्याप्त होगा कि अगस्त 1947 तक जबकि स्वाधीनता अधिनियम प्रवृत्त हुआ लगभग सब रियासतें भारत में प्रवेश कर गईं, सिवा दो उल्लेखनीय अपवादों के- उत्तर में काश्मीर और दक्षिण में हैदराबाद। काश्मीर ने तुरंत ही अन्य राज्यों के उदाहरण का अनुसरण किया और प्रविष्ट हो गया। हैदराबाद सहित सब रियासतों से आगे कार्रवाई न करने (स्टैंडस्टिल) के करार हुए और हैदराबाद की स्थिति पूर्ववत बनी रही। जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया यह स्पष्ट होता गया कि छोटे-छोटे राज्यों के लिए अपनी पृथक स्वाधीन सत्ता रखना किसी प्रकार संभव नहीं था। अतः भारत में सम्मिलित होने का कार्य आरंभ हुआ। कुछ समय में केवल छोटी-छोटी रियासतें ही भारत के किसी न किसी प्रांत से मिलकर एक नहीं हो गई वरन कुछ बड़ी बड़ी रियासतें भी मिल गई। बहुत सी रियासतों ने अपने संघ बना लिए और ये संघ भारतीय संघ के भाग बन गए हैं। यह कहना चाहिए कि रियासतों की जनता और शासकों को श्रेय प्राप्त है और सरदार पटेल के बुद्धिमत्तापूर्ण तथा दूरदर्शी पथप्रदर्शन के अधीन राज्य मंत्रालय के लिए भी यह कम श्रेय की बात नहीं है कि अब जबकि हम यह संविधान पारित कर रहे हैं रियासतों की स्थिति न्यूनाधिक रूप में वही है जो कि प्रांतों की है और देशी रियासतों और प्रांतों के सहित सबका हम इस संविधान में राज्यों के रूप में वर्णन कर सके हैं। जो घोषणा सरदार पटेल ने अभी की है उससे स्थिति बहुत स्पष्ट हो गई है, और अब इस नए संविधान में रियासतों और प्रांतों में वह अंतर नहीं है जो पहले था।

इसमें संदेह नहीं कि इस कार्य को पूरा करने में हमें तीन वर्ष लगे हैं, पर जब हम, जो काम पूरा हो चुका है उस पर और जो दिन इस संविधान के बनाने में हमने लगाए हैं उनकी संख्या पर, विचार करें- इसका विवरण कल डॉ. अम्बेडकर ने दिया था- तो जो समय हमने व्यतीत किया है उसके प्रति खेद करने के लिए कोई कारण नहीं मिल सकता है।

इसके कारण राज्यों की वह समस्या, जो न सुलझने वाली प्रतीत होती थी, और सांप्रदायिक समस्या हल हो गई। जो बात गोलमेज सम्मेलन में न सुलझने वाली सिद्ध हुई थी और जिसके परिणामस्वरूप देश का विभाजन हुआ वह सब सम्बद्ध पक्षों की सम्मति से हल कर ली गई है और यह कार्य भी माननीय सरदार पटेल के बुद्धिमतापूर्ण मार्गदर्शन के अधीन हुआ।

आरंभ में हम पृथक निर्वाचक मंडलों से छुटकारा पा चुके थे जिन्होंने हमारे राजनैतिक जीवन को इतने वर्षों तक विषमय बना दिया था, पर उन संप्रदायों के लिए, जो पृथक निर्वाचक मंडलों का पहले उपभोग करते रहे थे, स्थानों का रक्षण स्वीकार करना पड़ा और यह उनकी जनसंख्या के आधार पर है न कि जैसा 1919 के अधिनियम में और 1935 के अधिनियम में किया गया था कि उनको तत्कथित उन ऐतिहासिक तथा अन्य श्रेष्ठताओं के आधार पर अतिरिक्त प्रतिनिधान दिया गया था जिसका कुछ संप्रदाय दावा करते थे। यह केवल इसी कारण हो सका है कि संविधान जल्दी पारित नहीं हो पाया और इस समय में सम्बद्ध संप्रदायों ने स्थानरक्षण को भी छोड़ दिया अतः हमारे संविधान में सांप्रदायिक आधार पर स्थानों के रक्षण की व्यवस्था नहीं है वरन् हमारी जनसंख्या में केवल दो प्रकार के लोगों के लिए रक्षण रखा गया है, अर्थात् दलित जातियां जो हिंदू हैं और जनजाति के लोग जो शिक्षा तथा अन्य बातों में पिछड़े हुए हैं।

जिन बातों पर खर्च हुआ यदि उन बातों पर विचार करें तो जो खर्च सभा ने अपने तीन वर्ष के जीवन में किया है वह बहुत अधिक नहीं है। मैं समझता हूँ कि 22 नवंबर तक 63, 96, 729 रुपया खर्च में आया है।

संविधान के संबंध में जिस रीति को संविधान सभा ने अपनाया वह यह थी कि सर्वप्रथम 'विचारणीय बातें' निर्धारित की जो कि लक्ष्यमूलक संकल्प के रूप में थीं जिसको एक ओजस्वी भाषण द्वारा पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था और जो अब हमारे संविधान की प्रस्तावना है। इसके बाद संवैधानिक समस्याओं के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर विचार करने के लिए कई समितियां नियुक्त की। डॉ. अम्बेडकर ने इन समितियों के नामों का वर्णन किया था। इनमें से कई समितियों के सभापति या तो पंडित जवाहरलाल नेहरू होते थे या सरदार पटेल। अतः इस प्रकार हमारे संविधान की मूलभूत बातों का श्रेय इन्हीं को है। मुझे केवल यही कहना है कि इन सब समितियों के उचित और ठीक रीति से कार्य किया और अपने अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किए जिन पर सभा ने विचार किया और उनकी सिफारिशों को उन आधारों के रूप में ग्रहण किया गया जिन पर संविधान का मसौदा तैयार किया गया था। यह कार्य श्री बी. एन. राउ ने किया जिन्होंने अपने इस कार्य में अन्य देशों के संविधानों के पूर्ण ज्ञान और इस देश की दशा के व्यापक ज्ञान तथा अपने प्रशासी ज्ञान का भी पुट दिया। इसके बाद सभा ने मसौदा समिति नियुक्त की जिसने श्री बी. एन. राउ द्वारा निर्मित मूल मसौदे पर विचार किया और संविधान का मसौदा बनाया जिस पर द्वितीय पठन की स्थिति में इस सभा ने विस्तारपूर्वक विचार किया। जैसा कि डॉ. अम्बेडकर ने बताया था 7635 से कम संशोधन नहीं थे जिनमें से 2473 संशोधन पेश किए गए। मैं केवल यह सिद्ध करने के लिए यह कह रहा हूँ कि केबल मसौदा समिति के सदस्य ही इस संविधान पर दत्तचित होकर अपना ध्यान नहीं दे रहे थे वरन अन्य सदस्य भी सचेष्ट थे और मसौदे की पूर्णरूप से जांच परख कर रहे थे। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मसौदे में केवल प्रत्येक अनुच्छेद पर ही नहीं वरन लगभग प्रत्येक वाक्य पर और कभी-कभी तो प्रत्येक अनुच्छेद के प्रत्येक शब्द पर हमें विचार करना पड़ा। माननीय सदस्यों को यह जान कर खुशी होगी कि इस कार्यवाई में जनता बड़ी दिलचस्पी ले रही थी और मुझे यह विदित हुआ है कि जितने समय तक संविधान विचाराधीन रहा उस समय मैं 53, 000 दर्शकों को दर्शक गलरी में जाने दिया गया। परिणाम यह हुआ कि संविधान के मसौदे का आकार बढ़ गया भार जब यह पारित हआ तो श्री बी. एन. राउ मूल मसौदे के 243 अनुच्छेद और 13 अनुसूचियों के स्थान में उसमें 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां हो गई। मैं उस शिकायत को कोई महत्व नहीं देता हूँ जो कभी कभी इस रूप में की जाती थी कि यह संविधान बहुत विशाल हो गया है। यदि उपबन्धों पर भली प्रकार से विचार कर लिया गया है तो इस बृहदाकर से हमारे चित्त की स्थिर वृत्ति में कोई विघ्न नहीं पड़ना चाहिए।

अब हमें इस संविधान की मुख्य बातों पर विचार करना है। सबसे पहला प्रश्न यह है और इस पर वाद-विवाद हो चुका है कि यह संविधान किस श्रेणी का है। मैं स्वयं उस श्रेणी को कोई महत्व नहीं देता हूँ जो इस संविधान को दी जाएगी- चाहे आप उसे फेडरल संविधान कहें या एकात्मक शासन तंत्र का संविधान कहें या और कुछ कहे। जब तक संविधान हमारे प्रयोजनों की पूर्ति करता है तब तक इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है। हमारे लिए यह कोई बंधन नहीं है कि हम एक ऐसा संविधान रखें जो संसार के संविधानों की ज्ञात श्रेणियों के पूर्णतया अनुरूप हो। हमें अपने देश के इतिहास के कुछ तथ्यों को लेना पड़ेगा और इतिहास के तथ्यों जैसी इन वास्तविकताओं का इस संविधान पर कोई कम प्रभाव नहीं पड़ा है।

आप सबको यह विदित है कि 1930 के गोलमेज सम्मेलन तक भारत में पूर्णतया एकात्मक शासन व्यवस्था थी और प्रांतों को जो कुछ भी शक्तियां थी वे भारत सरकार से प्राप्त होती थीं। प्रथम बार फेडरेशन का प्रश्न व्यावहारिक रूप में उठा जिसके अंतर्गत केवल प्रांत ही नहीं रखे गए बरन् उन अनेक रियासतों को भी रखा जो उस समय वर्तमान थी। 1935 के संविधान में एक फेडरेशन की व्यवस्था की गई जिसमें सम्मिलित होने के लिए दोनों भारत के प्रांतों और रियासतों से कहा गया। पर उस संविधान का फेडरल भाग प्रवर्तन में नहीं आ सका क्योंकि बहुत समय तक बातचीत करने पर भी ये बातें निश्चित न हो सकी जिनके अनुसार शासक सम्मिलित होने के लिए सहमत हो सकते थे और जब युद्ध छिड़ गया तो संविधान के उस भाग का निराकरण करना पड़ा।

वर्तमान संविधान में लगभग उन सब रियासतों को जो हमारी भौगोलिक सीमाओं के भीतर हैं प्रविष्ट ही नहीं कराया गया है वरन् उनमें से अधिकांश को पूर्ण एकक के रूप में भारत में मिला दिया गया है, और जिस रूप में यह संविधान है। इसमें जहां तक राज्य के विभिन्न एककों का संबंध है पहले जो प्रांत थे और जो देशी रियासते थी उनके आधार पर प्रशासन और शक्ति विभाजन के विषय में कोई अंतर नहीं रखा गया है। यूनाधिक रूप में उनकी स्थिति अब समान यही है और कुछ समय बीतने पर जो कुछ थोड़ा सा अंतर इस समय है वह भी मिट जाएगा। अतः जहां तक संविधान की श्रेणी का संबंध है हमें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।

सबसे पहला और अति स्पष्ट तथ्य जो किसी भी पर्यवेक्षक का ध्यान आकर्षित करेगा वह यह है कि हम एक गणराज्य बना रहे हैं। भारत में प्राचीन काल में गणराज्य थे, पर यह व्यवस्था  2000 वर्ष पूर्व श्री इससे भी अधिक समय पूर्व थी और ये गणराज्य बहुत छोटे-छोटे थे। जिस गणराज्य की हम अब स्थापना कर रहे हैं, उस गणराज्य जैसा गणराज्य हमारे यहां कभी नहीं था, यद्यपि उन दिनों में भी और मुगल काल में भी ऐरो साम्राज्य थे जो देश के विशाल भागों पर छाए हुए थे। इस गणराज्य का राष्ट्रपति एक निर्वाचित राष्ट्रपति होगा। हमारे यहा ऐसे बड़े राज्य का निर्वाचित मुखिया कमी नहीं हुआ जिसके अंतर्गत भारत का इतना बड़ा क्षेत्र आ जाता है। और यह प्रथम बार ही हुआ है कि देश के तुच्छ से तुच्छ और निम्न से निम्न नागरिक को भी यह अधिकार मिल गया है कि वह इस महान राज्य के राष्ट्रपति या मुखिया के योग्य हो और बने जो आज संसार के विशालतम राजों में गिना जाता है। यह कोई छोटा विषय नहीं है कि हमारे यहां निर्वाचित राष्ट्रपति होगा, अतः कुछ ऐसी समस्याए खड़ी हो गई हैं जो बड़ी जटिल प्रकार की है। हमने राष्ट्रपति के निर्वाचन की व्यवस्था की है। हमने निर्वाचित विधानमंडल की व्यवस्था की  है जिसको सर्वोच्च प्राधिकार प्राप्त होंगे। अमरीका में विधानमंडल और राष्ट्रपति दोनों का निर्वाचन होता है और वहां दोनों को न्यूनाधिक रूप से समान शक्तियां होती हैं। प्रत्येक को अपने अपने क्षेत्र में, राष्ट्रपति को कार्यपालिका क्षेत्र में और विधानमंडल को विधायी क्षेत्र में।

हमने विचार किया कि हम अमरीका का आदर्श ग्रहण करें या ब्रिटिश आदर्श जहां राजा वंशानुगत होता है और वह समस्त आदर और शक्ति का स्रोत है, पर जो वास्तव में किसी शक्ति का उपभोग नहीं करता। सब शक्तियां विधानमंडल में निहित होती हैं और मंत्री विधानमंडल के ही प्रति उत्तरदायी होते हैं। हमें एक निर्वाचित राष्ट्रपति की स्थिति का एक निर्वाचित विधानमंडल से मेल बिठाना था और ऐसा करने में हमने राष्ट्रपति के लिए न्यूनाधिक रूप में ब्रिटेन के बादशाह की स्थिति को अपनाया है। यह संतोषजनक हो या न हो कुछ लोग सोचते हैं कि राष्ट्रपति को बहुत अधिक शक्तियां दे दी गई हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि निर्वाचित राष्ट्रपति होने के कारण उसे जो शक्तियां दी गई हैं उनसे अधिक शक्तियां होनी चाहिए।

यदि आप इस विषय की ओर उस निर्वाचक मंडल के दृष्टिकोण से ध्यान दें जो संसद का निर्वाचन करता है और जो राष्ट्रपति का निर्वाचन करता है तो आपको विदित होगा कि देश की लगभग पूरी की पूरी वयस्क जनसंख्या संसद के निर्वाचन करने में भाग लेती है और केवल भारत की इस संसद के सदस्य ही नहीं वरन राज्यों की विधानसभाओं के सदस्य भी राष्ट्रपति के निर्वाचन करने में भाग लेते हैं। अतः परिणाम यह निकलता है कि संसद और विधानसभाओं का निर्वाचन देश की समूची वयस्क जनसंख्या द्वारा किया जाता है और राष्ट्रपति का निर्वाचन उन प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है जो समस्त जनसंख्या का दो बार प्रतिनिधान करते हैं। एक बार राज्यों के प्रतिनिधि के रूप में और दूसरी बार देश की केंद्रीय संसद में उसके प्रतिनिधि के रूप में। यद्यपि राष्ट्रपति का निर्वाचन उसी निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है जो केंद्रीय और राज्य के विधानमंडलों का निर्वाचन करता है परंतु उसकी स्थिति एक संवैधानिक राष्ट्रपति की स्थिति जैसी है।

इसके बाद हम मंत्रियों पर आते हैं। वे वास्तव में विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी हैं और राष्ट्रपति को मंत्रणा देंगे और राष्ट्रपति के लिए यह आवश्यक है कि उस मंत्रणा के अनुसार कार्य करे । जहां तक मैं जानता हूँ यद्यपि स्वयं इस संविधान में ऐसे विशिष्ट उपबंध नहीं हैं जो राष्ट्रपति को अपने मंत्रियों की मंत्रणा स्वीकार करने के लिए बाध्य करते हों पर यह आशा की जाती है कि उस परंपरा को इस देश में भी स्थापित किया जाएगा जिसके अधीन इंग्लैंड का बादशाह सदैव अपने मंत्रियों की मंत्रणा के अनुसार चलता है और संविधान में लिखित शब्द के कारण नहीं वरन् इस कल्याणकारी परंपरा के फलस्वरूप राष्ट्रपति सब विषयों में एक संवैधानिक राष्ट्रपति होगा। केंद्रीय विधानमंडल में लोकसभा और राज्य परिषद नाम से ज्ञात दो सदन होंगे जो मिलकर भारत की संसद का गठन करेंगे। सब प्रांतों में जिनको अब राज्य कहा जाएगा हम विधानसभा रखेंगे सिवा उनके जिनका अनुसूची 1 के भाग ग और घ में वर्णन है, पर प्रत्येक राज्य में द्वितीय सदन नहीं होगा। कुछ प्रांतों में, जिनके प्रतिनिधियों ने यह अनुभव किया कि उनके लिए द्वितीय सदन अपेक्षित हैं, द्वितीय सदन के लिए व्यवस्था कर दी गई है। परंतु संविधान में एक ऐसा भी उपबंध है कि यदि कोई प्रांत ऐसे द्वितीय सदन को बनाए रखना नहीं चाहता है या यदि कोई प्रांत जिसमें द्वितीय सदन नहीं है वह द्वितीय सदन चाहता है तो यह इच्छा विधानमंडल द्वारा मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से और विधानसभा के कुछ सदस्यों के बहुमत से प्रकट करनी होगी। अतः यद्यपि कुछ राज्यों के लिए द्वितीय सदनों की व्यवस्था करते हुए भी हमने उनको सरलता से मिटाने या सरलता से स्थापित करने की भी व्यवस्था संविधान में इस प्रकार का संशोधन करके की है और यह संशोधन कोई संवैधानिक संशोधन नहीं है वरन् एक साधारण संसदीय हैं विधान का विषय है।

हमने वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की है जिसके द्वारा प्रांतों में विधानसभाओं और केंद्र में लोकसभा का निर्वाचन होगा। यह हमने एक बहुत बड़ा कदम उठाया है। यह केवल इस कारण ही बड़ा कदम नहीं है कि हमारा वर्तमान निर्वाचक-मंडल एक बहुत ही छोटा निर्वाचक-मंडल है और वह अधिकतर संपत्ति-अर्हता पर आश्रित है। वह इस कारण भी बड़ा कदम है कि उसके अंतर्गत एक बहुत बड़ी संख्या हो जाती है। हमारी जनसंख्या यदि अधिक नहीं तो लगभग 32 करोड़ है और मतदाताओं की सूचियां जो कि प्रांतों में बनाई जा रही हैं। उनके बनाने में जो अनुभव हमें हुआ उससे यह विदित हुआ है कि मोटे रूप में वयस्क जनसंख्या 50 प्रतिशत है और इस आधार से हमारी सूचियों में 16 करोड़ से कम मतदाता नहीं होंगे। इतनी बड़ी संख्या में मतदाताओं द्वारा निर्वाचन को संगठित करने का कार्य बहुत बड़ा कार्य है और ऐसा अन्य कोई देश नहीं है जहां इतने बड़े परिमाण में कभी निर्वाचन हुआ हो।

इस संबंध में मैं आपके सामने कुछ तथ्यों का वर्णन करूंगा। मोटे रूप में यह अनुमान लगाया गया है कि प्रांतों में की विधानसभाओं में 3800 सदस्यों से अधिक सदस्य होंगे और जिनका निर्वाचन उतने ही निर्वाचक क्षेत्रों में से या शायद कुछ कम क्षेत्रों में से होगा और फिर लोकसभा के लिए लगभग 500 सदस्य होंगे और राज्य परिषद् के लिए लगभग 220 सदस्य। इस प्रकार हमें 4500 से अधिक सदस्यों के लिए निर्वाचन की व्यवस्था करनी होगी और देश को लगभग 4000 निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित करना होगा। एक दिन मनोविनोद के रूप में मैं यह अनुमान लगा रहा था कि हमारी निर्वाचक सूची का क्या आकार प्रकार होगा। यदि आप फलस्केप नाप के एक पृष्ठ पर 40 नाम का तो सब मतदाताओं के नाम छापने के लिए हमें फुलस्केप नाप के 20 लाख पष्ठों की आवश्यकता होगी और यदि आप इन सबकी एक प्रति बनाएं तो उस प्रति की मटाई लगभग 200 गज होगी। केवल इसी एक बात से हमें यह अनुमान हो जाता है कि यह कार्य कितना विशाल है और इन सुचियों को अंतिम रूप देने, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करने, मतदान करने के स्थलों को नियत करने और अन्य उन प्रबंधों को करने में कितना काम बढ़ जाता है और यह सब अबसे लेकर 1950-51 के शीत काल तक हो जाना चाहिए जिस समय के लिए यह आशा की जाती है कि निर्वाचन होंगे।

कुछ लोगों ने इस बात के प्रति संदेह किया है कि वयस्क मताधिकार बुद्धिमानी की बात होगी। यद्यपि मैं इसे एक ऐसे प्रयोग के रूप में देख रहा हूँ जिसके परिणाम के संबंध में आज कोई भी व्यक्ति भविष्यवाणी नहीं कर सकता है पर मैं इससे आश्चर्यचकित नहीं हुआ हूँ। मैं एक ग्रामीण व्यक्ति हूँ और यद्यपि अपने कार्य के कारण मुझे बहुत अधिक समय तक नगरों में रहना पड़ा है परंतु मेरी जड़ अब भी वहीं है। अतः मैं उन ग्रामीण व्यक्तियों से परिचित हूँ जो इस महान निर्वाचक-मंडल का एक बड़ा भाग होगा। मेरी सम्मति में हमारे इन लोगों में बुद्धि और साधारण ज्ञान है। उनकी एक संस्कृति भी है जिसको आज की आधुनिकता में रंगे हुए लोग चाहे न समझें पर है वह एक ठोस संस्कृति। वे साक्षर नहीं हैं और पढ़ने लिखने का मंत्रवत कौशल उनमें नहीं है। पर इस बात में मुझे रंचमात्र भी संदेह नहीं है कि यदि उनको वस्तुस्थिति समझा दी जाए तो वे अपने हित तथा देश के हित के लिए उपक्रम कर सकते हैं। कुछ बातों में तो मैं वास्तव में उनको किसी भी कारखाने के श्रमिक से भी अधिक चतुर समझता हूँ जो अपने व्यक्तित्व को खो देता है और जिस यंत्र का उसे संचालन करना पड़ता है न्यूनाधिक रूप से वह उसी यंत्र का एक भाग बन जाता है। अतः मेरे मन में इस बात के प्रति कोई संदेह नहीं है कि यदि उनको वस्तुस्थिति समझा दी जाए तो वे केवल निर्वाचन की बारीकियों का ही नहीं समझेंगे बल्कि बुद्धिमानीपूर्वक अपना मत भी देंगे और इसलिए इनके कारण भविष्य के प्रति मुझे कोई शंका नहीं है। अन्य उन लोगों के प्रति मैं यह बात नहीं कह सकता हूँ जो नारों द्वारा तथा उनके सामने अव्यावहारिक कार्यक्रमों के संदर चित्र रखकर उन पर प्रभाव डालने का प्रयत्न करें। फिर भी मेरा यह विचार है कि उनका पुष्ट साधारण ज्ञान वस्तुस्थिति को ठीक-ठीक समझने में उनकी सहायता करेगा। अतः हम यह आशा कर सकते हैं कि हमारे विधान-मंडलों में ऐसे सदस्य होंगे जो वास्तविकता से परिचित होंगे और जो वस्तुस्थिति पर यथार्थ दृष्टिकोण से विचार करेंगे।

यद्यपि संसद में द्वितीय सदन के लिए और कुछ राज्यों में द्वितीय सदन के लिए उपबंध बना दिया गया है, परंतु सर्वोच्च स्थान लोकसभा का ही है। वित्त तथा धन संबंधी सब विषयों में लोकसभा की सर्वोच्चता कितने ही शब्दों में निर्धारित की गई है। और अन्य विषयों में भी जहां उत्तर सदन को विधियों का सूत्रपात करने और पारित करने की समान शक्तियां कही जा सकती हैं वहां भी लोकसभा की सर्वोच्चता न सुनिश्चित की गई है। जहां तक संसद है का संबंध है यदि दोनों सदनों में मतभेद हो जाता है तो एक संयुक्त सत्र किया जा सकता है । पर संविधान यह उपबंध करता है कि राज्य परिषद् के सदस्यों की संख्या लोक-सभा के सदस्यों की संख्या के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। अतः संयुक्त सत्र की दशा में भी लोकसभा की सर्वोच्चता का निर्वाह किया गया है जब तक कि स्वयं लोकसभा में ही बहुमत थोड़ा न हो जो वास्तव में एक ऐसी दशा हो जाएगी जिसमें उसकी सर्वोच्चता नहीं रहेगी। प्रांतीय विधानमंडलों में यदि प्रथम सदन किसी विनिश्चय को दूसरी बार करता है तो वह विनिश्चय माना जाएगा। अतः उत्तर सदन कुछ समय के लिए विधेयकों में केवल विलंबन कर सकता है, पर उन्हें रोक नहीं सकता। किसी विधान पर राष्ट्रपति या राज्यपाल को, यथास्थिति, अपनी अनुमति देनी होगी, पर यह अनुमति उसके मंत्रालय की मंत्रणा के आधार पर ही होगी जो अंततोगत्वा लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। अतः लोकसदन में जनता के प्रतिनिधियों द्वारा व्यक्त किए गए रूप में जनता की इच्छा ही अंत में सब विषयों का निश्चय करेगी। द्वितीय सदन और राष्ट्रपति या राज्यपाल केवल पुनर्विचार के लिए निदेश दे सकते हैं और कुछ विलंब कर सकते हैं परंतु यदि लोकसभा दृढ़ है तो संविधान के अधीन उसे सफलता मिलेगी। अतः समूचे देश की सरकार, दोनों केंद्र में तथा प्रांतों में, जनता की इच्छा पर निर्भर होगी जो दिन प्रति दिन विधानमंडलों में उसके प्रतिनिधियों द्वारा व्यक्त हुआ करेगी और कभी कभी साधारण निर्वाचनों में प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा व्यक्त होगी।

संविधान में हमने एक न्यायपालिका की व्यवस्था की है जो स्वाधीन होगी। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त करने के लिए इससे अधिक कुछ और सुझाव देना कठिन है। अवर न्यायपालिका को भी किसी बाह्य या असंबद्ध प्रभाव से मुक्त रखने का सविधान में प्रयास किया गया है। हमारा एक अनुच्छेद राज्य की सरकारों के लिए कार्यपालिका के कृत्यों को न्यायिक कृत्यों से पृथक करने के विषय को प्रस्तुत करने के कार्य को सरल कर देता है और उस दंडाधिकारी न्यायालय को, जो आपराधिक मामलों पर विचार करता है, व्यवहार न्यायालयों के आधार पर लाने के कार्य को सरल कर देता है। मैं केवल यही आशा प्रकट कर सकता हूँ कि यह सुधार, जो बहुत समय पूर्व हो जाना चाहिए था तथा राज्यों में तुरंत कर दिया जाएगा।

कुछ विशेष विषयों को निपटाने के लिए हमारे संविधान में कुछ स्वाधीन अभिकरणों की योजना की गई है। अतः इसमें दोनों संघ और राज्यों के लिए लोक सेवा आयोगों की व्यवस्था की गई है और इन आयोगों को स्वतंत्र आधार पर रखा है जिससे कि कार्यपालिका से प्रभावित हुए बिना ये अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकें। एक बात जिससे हमें बचना है वह यह है कि जहाँ तक माननीय रूप में संभव हो सकता है स्वार्थ साधन, कुल-पोषण और पक्षपात के लिए कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। मेरा विचार है कि जिन उपबंधों को हमने अपने संविधान में पुर स्थापित किया है वे इस दशा में बड़े सहायक होंगे।

एक और स्वाधीन प्राधिकारी नियंत्रण-महालेखा परीक्षक है जो हमारी दित व्यवस्था की देखभाल करेगा और इस बात पर ध्यान रखेगा कि भारत या किसी भी राज्य के आगमों के किसी अंश का बिना समुचित प्राधिकार के किसी प्रयोजनों मदों के लिए उपयोग न हो और जिसका यह कर्तव्य होगा कि वह हमारे हिसाब-किताब को ठीक रखे। जब हम इस बात पर विचार करें कि हमारी सरकार को अरबों में काम करना होगा तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह विभाग कितना महत्वपूर्ण और आवश्यक होगा। हमने एक और महत्वपूर्ण प्राधिकारी की व्यवस्था की है अर्थात निर्याचन आयुक्त जिसका कार्य विधान मंडलों के निर्वाचनों का संचालन तथा निरीक्षण करना होगा और इस संबंध में अन्य आवश्यक कार्रवाई करनी होगी। एक संकट जिसका हमें सामना करना होगा वह किसी ऐसे भ्रष्टाचार से उत्पन्न होता है जिसका शायद पक्ष, अभ्यर्थी या शक्ति प्राप्त सरकार आचरण कर बैठे। हमें एक दीर्घ काल से लोकतंत्रात्मक निर्वाचनों का कोई अनुभव प्राप्त नहीं है सिवा पिछले कुछ वर्षों के बारे में। अब जब कि हमें यथार्थ शक्ति प्राप्त हो गई है भ्रष्टाचार का संकट केवल काल्पनिक मात्र ही नहीं है। अतः यह बात ठीक ही है कि हमारा संविधान इस संकट के प्रति सतर्क है और मतदाताओं द्वारा एक ठीक तथा यथार्थ निर्वाचन के लिए उपबंध करता है। विधान-मंडल, उच्च न्यायालयों, लोक सेवा आयोग, नियंत्रक-महालेखा परीक्षक और निर्वाचन आयुक्त के विषय में जो कर्मचारी वृंद इनको इनके कार्य में सहायता प्रदान करेगा उस कर्मचारी बंद को भी इनके नियंत्रण ही में रख दिया है और अधिकांश विषयों में उनकी नियुक्ति, पदवृद्धि और अनुशासन उनकी अपनी-अपनी विशिष्ट संस्थाओं में निहित है और इस प्रकार उनकी स्वाधीनता के लिए और भी अधिक रक्षाकवच दे दिए गए हैं।

इस संविधान की दो अनुसूचियों में अर्थात् 5 और 6 अनुसूचियों में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए विशेष उपबंध रखे गए हैं। आसाम को छोडकर अन्य राज्यों की जनजातियों के और जनजाति-क्षेत्रों के विषय में जनजाति मंत्रणादात्री परिषद् के द्वारा जनजातियां प्रशासन पर प्रभाव डाल सकेंगी। आसाम की जनजातियों के और जनजाति क्षेत्रों के विषय में जिला परिषदों और स्वायत्तशासी प्रादेशिक परिषदों के द्वारा उनको अधिक व्यापक शक्तियां दे दी गई हैं। राज्य मंत्रालयों में एक मंत्री के लिए भी आगे और उपबंध है जिस पर जनजातियों और अनुसूचित जातियों के कल्याण का भार होगा और एक आयोग उस रीति के बारे में प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा जिसके अनुसार इन क्षेत्रों पर प्रशासन किया जाता है। इस उपबंध का बनाना इस कारण आवश्यक था कि जनजातियां पिछड़ी हुई है और उनको रक्षा की आवश्यकता है और इस कारण भी कि अपनी समस्याओं को सुलझाने की उनकी अपनी ही रीति है और जन-जातिवत जीवन बिताने का उसका अपना ढंग है। इन उपबंधों ने उनको पर्याप्त संतोष प्रदान किया है जैसे कि अनुसूचित जातियों के कल्याण और रक्षण के उपबंधों ने उनको संतोष दिया है।

संघ और राज्यों के प्रशासी तथा अन्य कार्यों के सब रूपों में संघ और राज्यों में परस्पर शक्ति तथा प्रकार्यों के विभाजन संबंधी विषय को इस सविधान में बड़े विवरण पूर्ण ढंग से लिया गया है। कुछ लोगों ने यह कहा है कि जो शक्तियां केंद्र को दी गई है वे बहुत अधिक हैं और बहुत ही व्यापक हैं और राज्यों को उस शक्ति से वंचित कर दिया है जो उनके अपने क्षेत्र में वास्तव में उनकी ही होनी चाहिए थी। इस आलोचना पर मैं कोई निर्णय देना नहीं चाहता हूँ और केवल यही कह सकता है कि अपने भविष्य के प्रति हम आवश्यकता से अधिक सतर्क नहीं हो सकते हैं। विशेषकर जब हम इस देश के कई शताब्दियों के इतिहास को याद खें। पर वे शक्तियां जो केंद्र को राज्यों के सके अंतर्गत कार्रवाई करने के लिए दी गई है, वे केवल आपात संबंधी है जो चाहे राजनैतिक हो दावितीय और आर्थिक आपात हो, और मुझे यह आश नहीं है कि केंद्र की ओर से उस शक्ति की अपेक्षा और अधिक शक्ति हथियाने की प्रवृत्ति होगी जो इस नूचे देश के सुप्रशासन के लिए आवश्यक है। किसी दशा में भी केंद्रीय विधान-मंडल में राज्यों के प्रतिनिधि होगे और जब तक उनको यह विश्वास नहीं होगा कि उन पर अतिक्रमण करने की आवश्यकता है तब तक इस बात की संभावना नहीं हो सकती कि ये उन राज्यों के विरुद्ध जिनकी जनता के ये प्रतिनिधि है केंद्रीय कार्यपालिका द्वारा किसी ऐसी शक्ति के प्रयोग से सहमत हो जाए। में इस शिकायत को कोई महत्व नहीं देता हूँ कि अवशिष्ट शक्तियां केंद्र को सौपदी गई है । सप्तम अनुसूची की तीन सूचियों में शक्तियों को बड़े व्यापक विस्तृत रूप में परिभाषित तथा सीमांकित कर दिया गया है और जो कुछ भी अवशेष रह गई हो उनके अंतर्गत किसी बड़े क्षेत्र के आने की संभावना नहीं है और इस कारण इन अवशिष्ट शक्तियों के सौंपने का अभिप्राय यह नहीं है कि जो शक्तियां राज्यों की होनी चाहिए उनका वास्तव में बहुत अधिक अल्पीकरण कर दिया गया हो।

उन समस्याओं में से एक समस्या जिनके सुलझाने में संविधान सभा ने बहुत समय लिया देश के राजकीय प्रयोजनों के लिए नामा संबंधी समस्या है। यह एक स्वभाविक इच्छा है कि हमारी अपनी भाषा होनी चाहिए और देश में बहत सी भाषाओं के प्रचलित होने के कारण कठिनाइयों के होते हुए भी हम पदी को अपनी राजभाषा के रूप में स्वीकार कर सके है जो एक ऐसी भाषा है जिसे देश में सबसे अधिक लोग समझते है। जब हम यह विचार करते है कि विट्जरलैंड जैसे एक छोटे से देश में तीन राजभाषाओं से कम राजभाषा नही है और दक्षिणी अफ्रीका दो राजभाषाए है तो इस विनित्यय का एक बड़े डी महायपूर्ण विनिश्चय के रूप में संघटित करने के दृढ़ निश्चय की ओर सुविधा-क्षमता की भावना इस बात से प्रकट होती है कि वे लोग जिन की भाषा हिंदी मही है उन्होंने खेकापूर्वक इसे राष्ट्र भाषा भाषा के आरोपण करने का प्रश्न ही नहीं है। अग्रेजी राज्य में अंग्रेजी और मुस्लिम राज्य मे फारसी कचहरी और राज की भावाएं थी। यद्यपि लोगों ने इन नाथाओं का अध्ययन किया और उनमें विशेष योग्यता प्राप्त की, पर कोई यह दावा नहीं कर सकता है कि उनको इस देश के अधिकांश लोगों ने स्वेच्छापूर्वक ग्रहण किया। अपने इतिहास में पहली बार इस समय हमने एक भाषा स्वीकार की है जिसका समस्त राजकीय प्रयोजनों के लिए सारे देश में प्रयोग होगा और मुझे यह आशा करने दीजिए कि यह उन्नत होकर एक ऐसी राष्ट्रीय भाषा का रूप धारण करे जिसमें सबको समान रूपले गौरव मिले, और इसके साथ-साथ प्रत्येक क्षेत्र को अपनी निजी भाषा की उन्नति करने की स्वतंत्रता ही नहीं होगी बरन उसको उस भाषा को उन्नत बनाने के लिए प्रोत्साहित भी किया जाएगा जिसमें उसकी संस्कृति और परंपरा पवित्र रूप से स्थापित है। व्यावहारिक कारणों वश इस अंतकालीन समय में अंग्रेजी का प्रयोग अनिवार्य समझा गया और इस विनिश्चय से किसी को निराश नहीं होना चाहिए जिसको विशुद्ध व्यावहारिक विचारों के आधार पर किया गया है। अब यह इस समूचे देश का कतव्य है और विशेष कर उनका जिनकी भाषा हिंदी है कि इसको ऐसा रूप दें और इस प्रकार से विकसित करें कि यह एक ऐसी भाषा बन जाए जिसमें भारत की सामासिक संस्कृति की पर्याप्त तथा सुंदर रूप में अभिव्यकित हो सके।

हमारे संविधान की और महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें किसी अधिक कष्ट के बिना संशोधन किया जा सकता है। यहां तक कि संवैधानिक संशोधन भी ऐसे कठिन नहीं है जैसे कुछ अन्य देशों में हैं। और इस संविधान के बहुत से उपवर्षा का संशोधन तो साधारण अधिनियमों द्वारा संसद कर सकती है और संवैधानिक संशोधनों के लिए निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक नहीं है । इस समय एक ऐसा उपबंध रखा गया था जिसमें यह प्रस्थापित किया गया था कि इस संविधान के प्रवृत्त होने के बाद पांच वर्ष तक इसमें संशोधन करना सरल बना दिया जाए पर इस कारण ऐसा उपबंध अनावश्यक हो गया कि इस संविधान में संवैधानिक संशोधनों के लिए निर्धारित प्रक्रिया के बिना संशोधन करने के लिए अनेक अपवाद रख दिए गए हैं। समष्टि रूप से हम एक ऐसा संविधान बना सके हैं जो मेरा विश्वास है कि देश के लिए उपयुक्त सिद्ध होगा। हमारे निदेशक सिद्धान्तों में एक विशिष्ट उपबंध है जिसको मैं बहुत महत्व देता हूँ। हमने केवल अपने लोगों की भलाई के लिए ही उपबंध नहीं बनाए हैं वरन अपने निदेशक तत्वों में हमने यह निर्धारित किया है कि राज्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की उन्नति का, राष्ट्रों के बीच न्याय और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का, अंतर्राष्ट्रीय विधि और संधि बंधनों के प्रति आदर बढ़ाने का और अंतर्राष्ट्रीय विवादों में मध्यस्थता द्वारा निबटारे के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा। संघर्षों से जर्जरित संसार में एक ऐसे संसार में जो दो विश्व युद्धों के सहार के पश्चात अब भी शांति और सद्भावना स्थापित करने के लिए शस्त्रीकरण में विश्वास कर रहा है, यदि हम राष्ट्रपिता की शिक्षाओं का सच्चे रूप में पालन करें और अपने संविधान के इस निदेशक तत्व पर चलें तो यह निश्चित है कि हम अवश्य ही एक महान कार्य करने में सफल होंगे । इन कठिनाइयों के होते हुए भी जो हमें घेरे हुए है और एक ऐसे वातावरण के होते हुए भी जो हमारा मार्ग भली प्रकार रोक सकता है। हे ईश्वर ! तू हमें इस मार्ग पर चलने की सदबुद्धि और शक्ति दे। हम स्वयं अपने में और उस स्वामी की शिक्षाओं में विश्वास रखें जिसका चित्र मेरे सर पर टंगा हुआ है और केवल अपने देश की ही नहीं वरन इस सारे संसार की आशाओं को हम पूरा करेंगे और केवल अपने देश के ही नहीं वरन सारे संसार के सर्वोत्तम हितों के प्रति हम सच्चे सिद्ध होंगे।

मै उस आलोचना के प्रति कुछ नहीं कहना चाहता हूँ जो विशेषकर मूलाधिकारों संबंधी भाग में उन अनुच्छेदों के संबंध में हैं जिनके द्वारा परमाधिकारों को कम कर दिया गया है और जो उन अनुच्छेदों के संबंध में हैं जो आपात शक्तियों के विषय में है। अन्य सदस्यों ने इन आपत्तियों पर विस्तारपूर्वक विचार प्रकट किया है। इस समय मुझे केवल यही कहना है कि देश की वर्तमान दशा और जो प्रवृत्तियां स्पष्ट दिखाई दे रही हैं उन्होंने इन उपबंधों को आवश्यक बना दिया है और ये उपबंध अन्य देशों के अनुभव पर आधृत हैं जिनको उन देशों ने न्यायिक विनिश्चयों द्वारा प्रवृत्त किया, यद्यपि इन उपबंधों की व्यवस्था उनके संविधान में नहीं थी।

ऐसी केवल दो खेद की बातें हैं जिनमें मुझे माननीय सदस्यों का साथ देना चाहिए। विधानमंडल के सदस्यों के लिए कुछ अर्हताएं निर्धारित करना मैं पसंद करता। यह बात असंगत है कि उन लोगों के लिए हम उच्च अर्हताओं का आग्रह करें जो प्रशासन करते हैं या विधि के प्रशासन में सहायता देते हैं और उनके लिए हम कोई अर्हता न रखें जो विधि का निर्माण करते हैं सिवा इसके कि उनका निर्वाचन हो। एक विधि बनाने वाले के लिए बौद्धिक उपकरण अपेक्षित हैं और इससे भी अधिक वस्तुस्थिति पर संतुलित विचार करने की स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने की सामर्थ्य की आवश्यकता है और सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि जीवन के उन आधारभूत तत्वों के प्रति सच्चाई हो। एक शब्द में यह कहना चाहिए कि चरित्रबल हो( वाह, वाह )। यह संभव नहीं है कि व्यक्ति के नैतिक गुणों को मापने के लिए कोई मापदंड तैयार किया जा सके और जब तक यह संभव नहीं होगा तब तक हमारा संविधान दोषपूर्ण रहेगा। दूसरा खेद इस बात पर है कि हम किसी भारतीय भाषा में स्वतंत्र भारत का अपना प्रथम संविधान नहीं बना सके। दोनों मामलों में कठिनाइयां व्यावहारिक थीं और अविजेय सिद्ध हुई। पर इस विचार से खेद में कोई कमी नहीं हो जाती है।

हमने एक लोकतंत्रात्मक संविधान तैयार किया है। पर लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों के सफल क्रियाकरण के लिए उन लोगों में, जो इन सिद्धांतों को कार्यान्वित करेंगे, अन्य लोगों के विचारों के सम्मान करने की तत्परता और समझौता करने तथा श्रेय देने के लिए सामर्थ्य आवश्यक है। बहुत सी बतें जो संविधान में नहीं लिखी जा सकती हैं अभिसमयों द्वारा की जाती है। मुझे यह आशा करने दीजिए कि हममें ये योग्यताएं होंगी और इन अभिसमयों का हम विकास करेंगे। मतदान तथा सभाकक्षों (लॉबी) में मत विभाजन की शरण लिए बिना जिस रीति से हम यह संविधान बना सके हैं यह इस आशा को प्रबल बनाती है।

यह संविधान किसी बात के लिए उपबंध करे या न करे, देश का कल्याण उस रीति पर निर्भर करेगा जिसके अनुसार देश का प्रशासन किया जाएगा। देश का कल्याण उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा जो देश पर प्रशासन करेंगे। यह एक पुरानी कहावत है कि देश जैसी सरकार के योग्य होता है वैसी ही सरकार उसे प्राप्त होती है। हमारे संविधान में ऐसे उपबंध हैं जो किसी न किसी रूप में कुछ लोगों को आपत्तिजनक प्रतीत होते हैं। हमें यह मान लेना चाहिए कि दोष तो अधिकतर स्वयं देश की परिस्थिति और जनता में है। जिन व्यक्तियों का निर्वाचन किया जाता है यदि वह योग्य, चरित्रदान और ईमानदार है तो ये एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम सविधान बना सकेंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव होगा तो यह संविधान देश की सहायता नही कर सकेगा। आखिर संविधान एक यंत्र के समान एक निष्प्राण वस्तु ही तो है। उसके प्राण तो ये लोग है जो उस पर नियंत्रण रखते है और उसका प्रवर्तन करते है और देश को आज तक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है जो अपने सामने देश के हित को रखे। हमारे जीवन में भिन्न-भिन्न तत्वों के कारण भेदमूलक प्रवृत्तियां पैदा हो जाती है। हममें सांप्रदायिक भेद है, जातिगत भेद है, भाषा के आधार पर भेद है, प्रांतीय भेद है और और इसी प्रकार के अन्य भेद है। इसके लिए ऐसे चरित्र व्यक्तियों की, ऐसे दूरदर्शी लोगों और ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है। छोटे-छोटे समूहों और क्षेत्र के लिए पूरे देश के हितों का परित्याग न करें और जो इन भेदों से उत्पन्न हुए पक्षपात से परे हो। हम केवल यह आशा ही कर सकते है कि इस देश में ऐसे लोग बहुत मिलेंगे। स्वतंत्रता आंदोलन के समय जो संघर्ष हमने लिया था उसके अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता है कि नए अवसरों ने नए व्यक्तियों को जन्म दिया। केवल एक बार ही नहीं बल्कि प्रत्येक बार। जब कांग्रेस के नेताओं को यकायक जेल में बंद कर दिया गया और उनको इस बात का भी समय नहीं मिला कि ये दूसरों को कुछ हिदायतें दे जाते और अपना युद्ध जारी रखने की योजना बना जाते, जनता में से ऐसे व्यक्ति निकले जिन्होंने उन संघर्षों का इस योग्यता, सूझ और संगठन-शक्ति सहित चालन किया और उनको जारी रखा कि किसी भी व्यक्ति को यह आशा न थी कि उनमें ऐसे गुण होंगे। इस बात में मुझे संदेह नहीं है कि जब देश को चरित्रवान व्यक्तियों की आवश्यकता होगी तो ऐसे व्यक्ति मिलेंगे और जनता ऐसे व्यक्तियों को पैदा करेगी। जो लोग पहले से सेवा करते चले जा रहे है यह कहकर अपनी पतवार न डाल दें कि वे अपना सेवा-कार्य समाप्त कर चुके है  और अब वह समय आ गया है कि अपने श्रमलाभ का उपभोग करें। जो मनुष्य सच्चे हदय से अपने कार्य में संलग्न रहता है उसके लिए ऐसा कोई समय नहीं आता है। मैं समझता है कि भारतवर्ष में आज जो कार्य हमारे सन्मुख है वह उस कार्य से भी अधिक कठिन है जो उस समय हमारे सन्मुख था जबकि हम संघर्ष में लगे हुए थे। उत्त समय हमारे सामने ऐसी कोई विरोधी मांग नही थीं जिनमें परस्पर मेल बिठाना हो, दाल रोटी का प्रश्न नहीं था और शक्तियों का बाटने की बात नहीं थी। इस समय हमार सामने ये सब बातें हैं और बड़े-बड़े प्रलोभन भी हैं। ईश्वर करे इन प्रलोभनों से ऊपर उठने की और जस देश सेवा करने का जिसको हमने आजाद किया बुद्धि और शक्ति हममें हो।

अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए साधनों को अपनाना होता है उनकी पवित्रता पर महात्मा गांधी ने जोर दिया था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह शिक्षा चिरस्थायी है और यह केवल संघर्ष काल के लिए ही नहीं थी वरन आज भी इसका उत्तना ही प्राधिकार तथा मूल्य है जितना पहले था। यदि कोई काम गलत हो जाता है तो हमारी यह प्रवृत्ति है कि हम दूसरों को दोष देते हैं परंतु अंतर्परिक्षण कर यह देखने का प्रयास नहीं करते कि हमारा दोष है या नहीं। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्मों और उद्देश्यो का विवेचन करना चाहे तो दूसरों के कर्मा और उद्देश्यों को सही-सही जानने की अपेक्षा अपने कर्मों और उद्देश्यों का विवेचन करना बहुत सरल है। मै यही आशा करूंगा कि वे सब लोग जिनको भविष्य में इस संविधान को कार्यान्वित करने का सौभाग्य प्राप्त होगा, यह याद रखेंगे कि वह एक असाधारण विजय थी जिसको हमने राष्ट्रपिता द्वारा सिखाई गई अनोखी रीति से प्राप्त किया था और जो स्वाधीनता हमने प्राप्त की है उसकी रक्षा करना और उसको बनाए रखना और जनसाधारण के लिए उसको उपयोगी बनाना उन पर ही निर्भर करता है। विश्वासपूर्वक सत्य तथा अहिंसा के आधार पर और तब से अधिक यह कि हृदय में साहरा धारण कर और ईश्वर में विश्वास कर हम अपने स्वाधीन गणराज्य के संचालन करने के इस नए कार्य में संलग्न हों। समाप्त करने से पूर्व इस महान सभा के सब सदस्यों के प्रति मुझे अपनी कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए जिन्होंने मेरे साथ केवल बिनम्र व्यवहार ही नहीं किया बल्कि मैं यह कहूँगा कि उन्होंने सम्मानपूर्ण तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार किया। इस कुर्सी पर बैठे बैठे दिन प्रतिदिन की कार्रवाई देखते हुए मैंने जो अनुभव किया है वह कोई भी अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता कि मसौदा समिति के सदस्यों ने और अपना स्वास्थ्य खराब होने पर भी उसके सभापति डॉ. अम्बेडकर ने कितने उत्साह और लगन के साथ कार्य किया है (तालिया)। हम कोई ऐसा विनिश्चय नहीं कर सकते थे जो कभी भी इतना ठीक हो सकता था जितना कि वह जब हुआ जबकि हमने डॉ. अम्बेडकर को मसौदा समिति में सम्मिलित किया और उसका सभापति बनाया। उन्होंने अपने चुनाव को ही न्याययुक्त सिद्ध नहीं किया वरन् जो कार्य उन्होंने किया है उसमें चार चांद लगा दिए हैं। इस संबंध में समिति के अन्य सदस्यों में परस्पर भेद विभेद करना अपमानजनक होगा। मैं जानता हूँ कि उन सबों ने उतने ही साहस और उतनी ही लगन के साथ कार्य किया जितना उसके सभापति ने और ये देश की कृतज्ञता के पात्र है। यदि आप मुझे अनुज्ञा दें तो मैं अपनी ओर से तथ इस सभा की ओर से भी अपने संवैधानिक परामर्शदाता श्री बी. एन. राऊ को धन्यवाद दूं जिन्होंने उस सारे समय में जबकि वे यहां रहे अवैतनिक रूप में कार्य किया और अपने उच्च ज्ञान से इस सभा को ही सहायता न दी वरन अन्य सदस्यों को भी यह सामग्री देकर, जिसके आधार पर वे कार्य कर सकते थे, पूर्ण रूप से योग्यतापूर्वक अपने कर्तव्य पालन करने में उनको सहायता दी। इस कार्य में उन्हें अनुसंधानकों तथा अन्य कर्मचारियों ने सहायता दी जिन्होंने उत्साह और लग्न के साथ कार्य किया। श्री एस. एन. मुखर्जी की प्रशंसा सही की गई है जिन्होंने मसौदा समिति की बहुत ही अमूल्य सहायता की। संविधान सभा के सचिवालय के कर्मचारियों के संबंध में सर्वप्रथम मैं सचिव श्री एच. वी. आर. आयंगर का उल्लेख करूंगा और उनको धन्यबाद दूंगा जिन्होंने सचिवालय का एक कुशल कार्य करने वाले निकाय के रूप में संगठन किया। यद्यपि बाद में जबकि कार्य न्युनाधिक रूप में यंत्र चालित नियमितता के रूप में चलने लगा तो हम उनको कुछ कर्तव्यों से मुक्त कर सके जिससे किये दूसरा कार्य हाथों में ले सकें पर वे हमारे सचिवालय के या संविधान सभा के कार्य के संपर्क से कनी भी अलग नहीं हुए।

हमारे उप-सचिव श्री जुगलकिशोर खन्ना के अधीन कर्मचारियों ने योग्यता तथा श्रमपूर्वक कार्य किया। उनके कार्य पर सदैव ध्यान नहीं दिया जा सकता था कि वह कार्य इस सभा के सदस्यों की दृष्टि से ओझल होता था। पर मुझे विश्वास है कि उनकी कार्यक्षमता और कार्य के प्रति श्रद्धा की जो कई सदस्यों ने प्रशंसा की है वह पूर्णतया उनके अनुकूल है। हमारे प्रतिवेदकों ने अपना कार्य इस रीति से किया है कि उनको उस कार्य का श्रेय अवश्य प्राप्त होगा और उनके कार्य से समा की कार्यवाही के अभिलेख के रक्षण में सहायता मिली है और ये कार्यवाही बड़ी लंबी तथा कष्टदायक रही। मैं अनुवादकों का उल्लेख करूंगा और माननीय श्री घनश्याम सिंह गुप्ता के सभापतित्व में अनुवाद समिति का भी उल्लेख करूंगा जिसे संविधान में प्रयुक्त अंग्रेजी शब्दों के हिंदी पर्याय खोजने का कठिन कार्य करना पड़ा। इस समय वे भाषाविज्ञों की समिति की सहायता में लगे हुए हैं जो एक शब्दावलि तैयार कर रही है जो संविधान तथा विधि में प्रयुक्त अंग्रेजी शब्दों के पर्याय के रूप में सब भाषाओं को स्वीकार्य होगी। देख-रेख करने वाले पदाधिकारियों ने आरक्षी दल ने और मार्शल ने, यद्यपि इन का नाम अंत में है पर इससे इनका महत्व कम नहीं होता है संतोषजनक कार्य किया है (तालिया)। चपरासियों और छोटे पदों पर के लोगों को मुझे भुला नहीं देना चाहिए। उन सबों ने अपनी ओर से भरसक कार्य किया है। ये सब मुझे इस लिए कहना आवश्यक है कि संविधान निर्माण कार्य के समाप्त होने के साथ साथ इनमें से अधिकांश व्यक्ति जो अस्थाई रूप में कार्य कर रहे हैं यदि उनको अन्य विभागों या मंत्रालयों में नहीं लिया जाएगा तो ये नौकरी से अलग हो जाएंगे। मुझे यह पूर्ण आशा है कि उन सबको ले लिया जाएगा (वाह वाह) क्योंकि उनको पर्याप्त अनुभव है और ये लोग मन लगाकर कार्य करने वाले तथा कुशल कर्मचारी है। क्योंकि इन सबसे मुझे विनय, सहयोग और भक्ति पूर्ण सेवा प्राप्त हुई है अतः इन सबका मैं कृतज्ञ हूँ।

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