कालिदास के काव्य में प्रकृति-वर्णन !!


आज के आधुनिक एवं भौतिकवादी युग में लोग प्रकृति को भूलते जा रहे हैं। प्रकृति मानव की सहचरी एवं साक्षात परमात्मा का रूप है और इसके साथ तादात्म्य  में रखने से ही परमानंद की प्राप्ति होती है; क्योंकि मनुष्य जब सभी प्रकार के कृत्रिम साधनों से उब जाता है, नीरज हो जाता है तो उसको वास्तविक सुख प्रकृति के गोद में ही प्राप्त होता है। विश्व कवि कालिदास ने अपने काव्य से प्रकृति-चित्रण के दृश्यावली को सजीव, साक्षात रूप में हमारी आंखों के सामने चित्रित करते हैं।
महाकवि के साथ रचनाएं विश्व प्रसिद्ध है-
गीतिकाव्य एवं खंडकाव्य-
1-   ऋतूसंघाराम  2- मेघदूतम
महाकाव्य-
   3- कुमारसंभवम्   4- रघुवंशम्
नाटक-
5-   मालविकाग्निमित्र  6-  विक्रमोर्वशीयम्  7-  अभिज्ञानशाकुंतलम
इन सभी गीतिकाव्यों तथा नाटकों में महाकवि कालिदास ने प्रकृति-चित्रण को तथा प्रकृति चित्रण में वर्ण (रंग)- संयोजन की छटा, रसप्रभाव-प्रवणता और मौलिक उद्द्भावानाओ को कोमलकांत पदावली में चित्रित किया है कि इस को हृदयंगम करते ही दुख-दैन्य भरे पापतापमय संसार का साथ छूट जाता है।
          प्रकृति-सम्राट महाकवि कालिदास ने प्राकृतिक दृश्यों की मंदाकिनी को भारतवर्ष के काव्य-भूतल पर अविछिन्न काव्यधारा के रूप में प्रवाहमान किया है इस काव्यधारा ने कहीं सूर्योदय के समय निकलने वाली लालिमा को, कहीं हिमालय, मेघ, पशु-पक्षी, लता, सरिता आदि के सौन्दर्य को, तो कहीं खेत और खलिहानों, वनों और उद्धयानों, नदियों और तगाडो को तो कहीं फल-फूलयुक्त वनस्पतियों, चौकड़ी भरते हिरण, वराह, नृत्य करते मयूरों, आकाश में उड़ते हंस, बक आदि का ऐसा सजीव चित्रित किया है; मानो यह प्रकृति के रूप में साक्षात दृष्टिगोचर हो रहे हों
          पृथ्वी और स्वर्ग लोक के अखिल सौन्दर्य, लावण्य एवं रमणीयता को यदि एक ही नाम से व्यक्त करना हो तो केवल कला की अथाह अनुभूति का प्रमाणिक नाम ऋतूसंघाराम ने से ही सब स्पष्ट हो जाता है। यह महाकवि की प्रथम रचना है। जिसमें प्रकृति-चित्रण के अनेकानेक चित्र अनायास ही परिलक्षित होते हैं एक श्लोक में कवि ने कहा है--
    “विपांडूरं कीटरजस्त्रिन्नावितमं भुजंग्वाद्रकगतिप्रसपिर्तम”
अर्थात जब बरसात का पानी घरों के दीवारों से प्रथम बार टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनाता हुआ पीले-पीले के सूखे पत्तों को हटाता हुआ ऐसा प्रतीत होता है, मानो काला भुजंग वन में विचरण कर रहा हो
          मेघदूत में भी प्रकृति के अनुपम वर्णन की छटा हमें बहुत ही प्रभावित करती है, कोई यक्ष जब पहाड़ी ढलान पर मेघ को देखता है तो वह यह मेघ से अत्यंत प्रभावित हो जाता है और उसी समय वह यक्ष कह उठता है-
    "धूमो ज्योतिः सलिलमरुतां संनिपातः क्व मेघः"
इस प्रकार धुँआ, अग्नि, जल और वायु के समन्वित रूप मेघ का ऐसा आकार कालिदास जी चित्रित करते हैं, मानो आकाश में मेघ स्वयं ही पर्वतशिखर- जैसा सजीव हो उठता है, न केवल मेघ अपितु मानचित्र से हिमालय की तराई में बसी अलका तक के वर्णन में कालिदास ने प्रकृति के विभिन्न क्षेत्रों का इतना हृदयग्राही वर्णन किया है कि पाठक आत्ममुग्ध, मंत्रमुग्ध हो उठता है।
          हम यदि महाकवि कालिदास के कुमारसंभव को देखें-पढ़ें तो उसने भी प्रकृति-चित्रण के ऐसे रमणीय चित्र विद्यमान हैं, जो हमे सहज ही आकृष्ट कर लेते हैंप्रथम सर्ग के प्रथम श्लोक में – “अस्युत्तरस्याँ दिशि देवतात्मा” (1/1) इस श्लोक में हिमालय का कालिदास ने ऐसा विशद चित्रण किया है, मनो वह प्रकृति को मापने का एक अति विशाल शुभ्रदंड हो। कुमारसंभव में शिव के  महिमामय स्वरूप का दर्शन भी प्रकृति-चित्रण को परिलक्षित करता है- चर्म पर बैठे समाधिस्थ शिव का जटा-जूट सर्पों से बंधा है, अपने कुछ-कुछ खुले नैनों से शारीर के भीतर चलने वाले सब पवनों को रोककर शिव इस प्रकार अचल बैठे हैं, जैसे ना बरसने वाला श्याम जलधर (बादल) हो, बिना लहरों वाला निश्चल गंभीर जलाशय हो या  चल पवन में विद्यमान दीपशिखा वाला दीपक हो।
          यदि रघुवंशम् को ही ले तो इसमें महाकवि ने प्रकृति छटारूपी मंदाकिनी को इस प्रकार प्रवाहित किया है, मानो संसार के समस्त रसिक जन उसमें गोता लगाते लगाते थक गए हों, भूल गए हों रघुवंशम् के द्वितीय सर्ग श्लोकपुरस्कृता वत्त्मरनी” में राजा दिलीप और  धर्मपत्नी सुदक्षिणा के बीच नंदिनी गाय इस प्रकार से जो चित्रित होती है, मानो दिन और रात के मध्य संध्याकालीन लालिमा हो। ऐसा चित्र कालिदास जी उपस्थित कर सकते हैं। अन्य कवियों के लिए सर्वथा दुर्लभ हो और अकल्पनीय ही है।
          यदि हम अभिज्ञानशाकुंतलम् को लें तो उसमें भी प्राकृतिक दृश्यों का ऐसा अद्भुत और मर्मस्पर्शी वर्णन है कि पाठक उसमें अभिभूत-सा हो जाता है। अभीज्ञान की नायिका अप्रतिम सुंदरी शकुंतला प्रकृति के साक्षात पुत्री परिलक्षित होती है। तपोवन के मृगों, पशु-पक्षिओं, तथा लता-पादपों के प्रति उसका हृदय बांधव-स्नेह से आप्लावित है। तपोवन की पावन प्रकृति की गोद में पली निसर्ग कन्या शकुंतला जिस समय आश्रम-तरुओं को सींचती हुई हमारे सम्मुख आती है, उस समय आश्रम के वृक्षों के प्रति शकुंतला का स्नेह ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे उसके सहोदर हों। शकुंतला के विदाई के समय लताओं के पीले-पीले पत्ते इस प्रकार आभाहिन दृष्टिगोचर होते हैं, हिंदी को मानो वे स्वयं अश्रुपात कर रहे हो।
          ऐसा ही चित्र विक्रमोर्वशीयम् के प्रथम अंक में भी है“अविर्भुते शशिनी तमसा मुच्यमानेव रात्रिः:” यहाँ चंद्रमा उदित हो रहा है और रात्रि अंधकार के परदे से निकलती जाती है तथा धुंए का आवरण क्रमशः अदृश्य होता चला जा रहा है, कगारों के गिरने से प्रकृति छटा की अभिव्यक्ति को चित्रित करता है, यह भी अन्यत्र दुर्लभ है।

महाकवि कालिदास ने अपने काव्यों और नाटकों में प्राकृतिक दृश्यों को ऐसा चित्रांकित किया है, जिसका सौंदर्य देखते ही बनता है। कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि भी भारतीय संस्कृति के मूल्यों और आदर्शों के अनुरूप पवित्र और उदार है। तपस्या से अर्जित सौंदर्य को ही महाकवि कालिदास सफल मानते हैं। महाकवि के साहित्य का सौंदर्य और उनकी सौंदर्य-दृष्टि अनुपम है, अतुलनीय है, जिसका अनुकीर्तन शताब्दियों से हो रहा है और सदैव-सदैव होता भी रहेगा।

Comments

  1. नवीन आर्टिकल प्रस्तुत है हमारें ब्लॉग पर ॥संस्कृते किन्न विद्यते?॥ विषय है "मेघदूत में प्रकृति चित्रण"।
    https://www.samskritekinnavidyate.com/2021/05/blog-post_9.html

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