कामाध्यतम के कवि दिनकर और उनकी ‘उर्वशी’ !!

रामधारी सिंह दिनकर की उर्वशी, उनकी छायावादोत्तर काल की एक दिव्य रचना है। हम इसे भारतीय वाङमय के सनातन उर्वशी का नवीन अवतार भी कह सकते है। उर्वशी पुरूरवा की सुप्रसिद्ध प्रणय कथा इसका आधार है। अपनी सहेली अप्सराओं के साथ उर्वशी कुबेर के घर से वापस लौट रही है तभी वह एक दानव द्वारा अपहरण कर ली जाती है। सहेलियों की संत्रस्त पुकार सुनकर गगन मार्ग से जाता हआ पुरुरवा उस दैत्य से उर्वशी का उद्धार करता है। राजा के रूप और पराक्रम से मुग्ध होकर वह उसके प्रेम-पाश में बँध जाती है। पुरूरवा भी उर्वशी के प्रेम में आकुल-व्याकुल हो जाता है। उसकी एक राज-महिषी औशीनरी है जो प्रतिव्रता होकर भी पुरूरवा के प्रेम प्रसाद से वंचित रहती है। एक दिन उर्वशी की प्रेम वेदना से त्रस्त होकर चित्रलेखा उसे पुरूरवा के प्रमद वन (मर्त्यलोक) में उतारती है जहाँ उसका पुरूरवा से प्रेम-मिलन सम्पन्न होता है। दाम्पत्य रस के उपयोग हेतु वे दोनों गंधमादन पर्वत पर चल जाते हैं। सुरम्य प्रकृति के बीच एक वर्ष व्यतीत करने के उपरांत पुरूरवा राजधानी लौट आता है। उर्वशी गर्भवती होकर नवजात शिशु आयु को जन्म देती है उसे महर्षि च्यवन के आश्रम में उन्हीं की पत्नी सुकन्या की देख-रेख में छोड़ देती है। क्योंकि भरत ने उसे शाप दिया था कि जिस दिन राजा उर्वशी के पुत्र को देख लेगा, उसी दिन उर्वशी पृथ्वी छोड़कर स्वर्ग में लौट आयेगी। सोलह वर्ष तक आयु ऋषि आश्रम में पोषण पाता है। एक दिन च्यवन ऋषि की आज्ञा से सुकन्या आयु को पुरूरवा की राज-सभा में ला उपस्थित करती है। पुरूरवा अतिप्रसन्न होकर आयु का संवाद सुनता है। किन्तु इसी अकल्पित हर्षोल्लास की घड़ी में उर्वशी अदृश्य हो जाती है। सुकन्या इस रहस्य को पुरूरवा को बताती है जिससे उसे मर्मातक पीड़ा होती है। वह भी आयु को राज्याभिषिक्त कर प्रव्रज्या पर वन की ओर चला जाता है।
उर्वशी पुरूरवा का यह एक सामान्य रेखाचित्र है जिसे दिनकर ने कुछेक नवीन उदभावनओं के साथ सजाने-सँवारने का सफल और मनोहारी प्रयास किया है। काव्य के आरम्भ में ही अप्सराओं के आकाश से धरती पर उतरने का उल्लासपूर्ण रमणीय चित्र देकर दिनकर ने अप्सराओं के साथ उर्वशी का सुन्दर उन्मीलन प्रस्तुत किया है जो अपनी नाटकीयता के लिए अत्यंत सजीव है। इसी तरह पुरूरवा का स्वप्न में कुंजर पर आरूढ़ होकर नगर के बाहर कानन में पहँचना, हाथी का चोरी से अदृश्य हो जाना, फिर भटकते हुए च्यवन ऋषि के आश्रम में पुरूरवा का पहुँचना और वहाँ दिव्य बालक को धनुष के साथ प्रत्यंचा भाँजता हए देखना, फिर सम्पूर्ण दृश्य का तिरोहित हो जाना आदि का उल्लेखकर दिनकर ने कथानक की नाटकीयता में यथेष्ट वृद्धि की है। सुकन्या द्वारा आयु के प्रस्तुतीकरण से संयुक्त कर कवि ने काव्य को प्रभविष्णुता से सम्पन्न कर दिया है। महाकवि कालिदास ने विक्रमोर्वशीय में उर्वशी को इन्द्र द्वारा फिर से पुरूरवा की जीवन संगिनी के रूप में प्रत्यावर्तित करना दिखाया है। इसलिए कालीदास का काव्य सुखांतकबन जाता है। किन्तु दिनकर ने अपने उर्वशी काव्य में पुरूरवा को प्रवाजित चित्रित कर उसे दुखांतक स्वरूप दे डाला है। पुरुरवा की प्रव्रजया के साथ ही काव्य का अंत होना चाहिए था। किन्तु, दिनकर ने औशीनरी के व्यथित ह्रदय के प्रति सहानुभूति रखते हुए सती-साध्वी नारी की अकल्पनीय वेदना की उपेक्षा नहीं की। 'विक्रमोर्वशीय' में कालिदास ने उर्वशी वियोग पुरूरवा को किंवा जड़ अथवा विक्षिप्त चित्रित किया है और अंत में भरत शाप से उत्पन्न वियोग को निरस्त करते हुए उर्वशी पुरूरवा के दाम्पत्य को स्थायित्व प्रदान किया है। वहीं दिनकर ने गंधमादन प्रकरण में एकांत संयोग-सुख अर्थात प्रणय-सुख को मन के उतुंग महत्व में अधिरोहन कराकर भूमा की प्राप्ति की प्रतिष्ठा की है। जब उर्वशी के लिए देव लोक सुखद नहीं दिखा, सौरभ को साँस भर-भर कर पीने से संतुष्टि नहीं मिली तो वह ‘सत्य का स्पर्श' और "जीवित हर्ष" प्राप्त करने धरती लोक आती है
स्वर्ग स्वप्न का जाल,/ सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मै,/ नहीं कल्पना का सुख,/ जीवित हर्ष खोजती हूँ मैं।/ तृप्ति नहीं अब मुझे/ साँस भर-भर सौरभ पीने से/ उब गयी हूँ दबा कंठ,/ नीरव रह कर जीने से। 

इधर पुरूरवा भी 'ताप उभयदिक सम है' का व्याघात झेलता दीखता है-
"जिसका ध्यान प्राण में / मेरे यह प्रमोद भरता है,/ उससे बहुत निकट होकर/ जीने का जी करता है।"

उर्वशी पुरुरवा प्रणय परिपाक में यदि कोई बाधा है तो यह कि- राजा को एक रानी भी है। लेकिन जब चित्रलेखा समझाती है, भय की क्या बात है? किस राजा का प्रणय एक घाट पर बंधा रहता है? श्रीमंत लोग प्रेम का नया बोध करते ही रहते हैं। नित्य नयी सुन्दरताओं पर मरते ही रहते हैं। सहधर्मिणी कुल के पोषणार्थ आती हैं, न कि पति  को नित्य नूतन मादकता से भरने के लिए।
कुल कामिनी जो भी हो, उर्वशी हृदय की रानी रहेगी, नृपति के प्रणय की एकमात्र पूर्ण स्वामिनी बनेगी। उर्वशी का सौंदर्य तो पुरूरवा को एक मधुर अनुभव प्रदान करता है - "कब था ज्ञात मुझे, इतनी सुन्दर होती है नारी?" कवि ने उर्वशी के रूप सौंदर्य को प्रकृति का दर्पण मानकर उसे निष्कलुष कामना की गरिमा से समन्वित कर डाला है :
"दर्पण जिसमें प्रकृति/ रूप अपना देखा करती है,/ वह सौंदर्य, कला/ जिसका सपना देखा करती है।/ नहीं उर्वशी नारी नहीं,/ आभा है निखिल भुवन की,/ रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है/ स्रष्टा के मन की।" 

पुरुरवा का पूर्वानुराग गुण-कथन तक ही सीमित न रहकर अनेक कामदशाओं में परितोष पाता है और उर्वशी भी उसकी समस्त चेतना को आच्छादित कर देती है –
"आह ! कौन मन पर यों/ मढ़ सोने का तार रही है ?/ मेरे चारों ओर कौन / चाँदनी पुकार रही है ?" 

पुरूरवा का प्राण रसमयी वेदना में डूब चुका है। उसे विश्वास होता है कि उसकी विरहाकुल पुकार से स्वर्ग अवश्य डोल उठेगा। "नीलिमा पुंज हमारा मिलन मार्ग खोलगा।" उर्वशी का दूसरा अंक पुरुष और नारी के निसर्गों का निरूपण है। जिसमें रानी औशीनरी को उसकी सखी निपुणिका पुरूरवा-उर्वशी के प्रथम मिलन की सूचना देती है। मदनिका कहती है कि प्रीति के प्रथम-प्रथम जगने पर नारी नर को दर्लभ स्वप्न के समान सुरम्य लगती है। पुरुष को पूर्णतया विजित करने का वही एकमात्र मुहुर्त होता है:
"यही लग्न है वह जब नारी,/ जो चाहे, वह पाले,/ उड्दुओं की मेस्खला/ कौमुदी का दुकूल मँगवा ले।/ रंगवा ले उँगलियाँ / पदों की उषा के जावक से,/ सजवा ले आरती पूर्णिमा/ के विधु के पावक से। " 

जब नारी की सौंदर्य वारूणी का पान पुरुष कर लेता है, तब उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व-तप, ज्ञान, मान, अभिमान- प्रमदा के चरणों पर चढ़ जाता है। किंतु प्रेम की प्रकृत प्रकति भी अजीब है। इसमें पुरुष का क्या दोष ? प्रेम दूरी और अपरचित का रोमांस तो चाहता ही है:-
 "जो अलभ्य, जो दूर, उसी को अधिक चाहता मन है। " 
उर्वशी के तीसरे अंक में कवि का प्रणय के प्रौढ़ स्वरूप को चित्रित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। दिनकर इस अंक को ही अपनी सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि मानते हैं। रचना का मौलिक द्वन्द्व यहीं प्रतिफलित हुआ है। उर्वशी अपने प्रथम मिलन की प्रेमिल स्मृतियों का बखान करती हुई, पुरूरवा को उपालम्भ देती है कि वह यश और प्रताप का, फूलों एवं कलयों  का आनंद लुटाता हुआ महल में बैठा रह गया और उसे मिला तभी जब वह ललना की मर्यादा गँवाकर स्वर्ग लोक छोड़ स्वयं पृथ्वी पर आ गयी। पुरूरवा अपने प्रेम की निष्ठा का विश्वास दिलाता है और अपनी विवशता का उल्लेख इन शब्दों में करता है,
"चिर कृतज्ञ हूँ/ इस कृपालुता के हित, किन्तु/ मिलन का इसे छोड़कर/ कौन पंथ संभव था ?
कवि उर्वशी के रूप दीप्ति से ही अधिक अभिभावित होकर उसे निखिल भुवन की आभा और स्रष्टा के मन की निष्कलुष कामना से समन्वित करता है :-
"दर्पण, जिसमें प्रकृति रूप/ अपना देखा करती है,/  वह सौंदर्य, कला/ जिसका सपना देखा करती है।/ नहीं, उर्वशी नारी नहीं,/ आभा है निखिल भुवन की,/ रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है/ स्रष्टा के मन की।"

यहाँ उर्वशी के माधुर्य पक्ष को संवारने में कालिदास का ऋण सर्वाधिक प्रतीत होता है । दुष्यंत ने भी शकुंतला के रूप रचना में संसार के सकल सौंदर्य का संभार देखा है-
"चित्ते निवेश्य परिकल्पितसत्वयोगा 
रूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता नु। 
स्त्रीरत्नसृष्टिरपरा प्रतिभाति सा मे 
धातुर्विभुत्वमनुचिन्त्य वपुश्च तस्याः। 

दूसरी तरफ कवि दिनकर को पुरूरवा के मानसिक संघर्ष को चित्रित करने में अत्यंत सफलता प्राप्त हुई है। उर्वशी जब कहती है कि "हरण किया क्यों नहीं, माँगा अपयश था? पुरूरवा अपने अंतर्द्वंद का स्पष्ट उल्लेख करता है – 
“मैं मनुष्य, कामनावायु/ मेरे भीतर बहती है/ कभी मंद गति से प्राणों में/ सिहरन पुलक जगाकर/ कभी डालियों को मरोड/ झांझा की दारूण गति से/ मन की दीपक बुझा,/ बनाकर तिमिराच्छन्न हृदय को।/ किंतु पुरूष क्या कभी मानता है/ तन के शासन को?/ फिर होता संघर्ष, तिमिर में दीपक फिर जलते हैं।" 

उर्वशी के दृढ़ आलिंगन में कसे रहने पर भी पुरुरवा का प्रणय भोग से दूर हो जाना द्वन्द का ही परिचायक है। क्षण में अगाध प्रेम-सिंधु का आलोड़न तथा क्षण में  अखण्ड शांति, क्षण में उर्वशी को प्रनायोत्त्फुल दृष्टि से निहारना और फिर यह भाव कि “युवती नारी नहीं, प्रार्थना की कोई कविता है"- एक विचित्र द्वन्द का परिचायक है। कवि का तर्क है कि "नारी के भीतर एक और नारी है जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है जब शरीर की धारा उछालते-उछालते उसे मन के समुद्र में फेंक देती है अर्थात् दैहिक चेतना से परे वह प्रेम की समाधि में जाकर निस्पन्द हो जाता है। परिरम्भ-पाश में बँधे प्रेमी परस्पर एक-दूसरे का अतिक्रमण करके किसी ऐसे लोक में पहुँचना चाहते हैं जो किरणोज्ज्वल और वायवीय है। पुरूरवा के प्रसग में ऐसी दुर्बलता की कल्पना कृत्रिम द्वन्द् का सायास प्रयास मात्र है । संभोग सुखों को अतिक्रात कर मानसिक मिलन की पवित्र अन्तेर्द्वंद चित्रण के कारण है। इसी तरह उर्वशी भी दार्शनिक मनोभाव के कर में फंसी दीखती है। यह पुरुरवा के प्रणय  के प्रति अनमनस्य दीखती है "यह किसका अंकुश है जो ज्वलनशील न जीवन का रस ही छक कर पीने देता है और न गंधों के आकाश में उसे देवता सदृश्य जीने देता है? प्रेम की परितृप्ति के लिए धरती पर आनेवाली उर्वशी को कवि ने दार्शनिक द्वन्द् का अनूठा उपहार दे डाला। यही आगे चलकर ' अंकुश' तथा 'आग' का द्वन्द् बनता है:
"कौन है अंकुश,/ इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ।/ पर, सरोवर के किनारे कंठ में/ जो जल रही है,/ उस तृषा उस वेदना  
उस वेदना को जानता हूँ।/ आग है कोई, नहीं जो शांत होती/ और खुलकर खेलने से भी/ निरंतर भागती है।"

पुरुरवा इस अंकुश को पहचानता नहीं है। यह असत्य प्रतीत होता है, क्योंकि वह पूर्व में ही कह चूका है- 
"यह सब उनकी कृपा,/ सृष्टि जिनकी निगूढ रचना है।/ झुके हुए हम धनुष मात्र हैं/ तनी हुई ज्या पर से,/ 
किसी और की इच्छाओं के/ वाण चला करते हैं।" 

एक दूसरा द्वन्द्व पुनः सृजित हुआ है। पुरूरवा के भीतर एक पुकार उठती है कि चन्द्रमा को पकड़ कर निचोडो और उस अमृत का पान करो।
यह पुकार "रूप का रसमय निमंत्रण" है या उसके ही "रूधिर की वह्नि” है। रूप का निमंत्रण रूधिर की वह्नि से अलग कोई अर्थ नहीं रखता है। रक्त की आग ही मूल वस्तु है जिसकी ज्वाला ही रूप-रस का सम्मान किंवा पान कर सकती है। यही आग पुरूरवा को रूप के आसव का पान करने के लिए अनुप्राणित करती है। तभी एक दूसरा द्वन्द् दस्तक दे जाता है: 
“अभी तक भी नहीं समझा ?/ दृष्टि का जो पेय है,/ वह रक्त का भोजन नहीं है।/ रूप की अराधना का मार्ग/ आलिंगन नहीं है।" 

भुजाओं के बंधन शिथिल होते ही वह फिर द्वन्द् से घिर जाता है
रूप की आराधना का मार्ग/ आलिंगन नही तो और क्या है ?/ स्नेह को सौंदर्य का उपहार रस/ चुम्बन नहीं तो और क्या है ?

रक्त की आग जो खुलकर खेलने के लिए धधकती रहती है, वह खलकर खेलने से परहेज करती प्रतीत होती है, "आग है कोई, नहीं जो शांत होती, और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है। यह आग पुरूरवा का अन्तर्द्वद् है जो दिनकर की गहन बौद्धिकता की उपज है। पुरूरवा को उर्वशी के अव्याख्येय स्वरूप की अनुभूति होती है : "कविता, कुसुम या कामिनी हो।" तब उसकी यही भाव दशा अर्थात् प्रेम समाधि बन जाती। कवि की नजर में यह दुर्गम समाधि बन जाती है। रहस्य प्रेरित होकर वह पुनः कुसुम की गोद में गिर पड़ता है। पुरूरवा हत-बुद्धि है। वह अपने को मर्त्य मानव का सूर्य तो कहता है लेकिन रूपसी रमणी के बंकिम नयन से बिंधकर वह उर्वशी के हाथ का लीला कमल भी बन जाता है। उसके वक्ष पर सिर रखे ही मरना चाहता है। उर्वशी के भुजपाश में पुरूरवा का शरीर ही बंदी नहीं है अपितु वहाँ तो उसके व्यग्र और व्याकुल प्राण भी विश्राम पाते हैं। विवशता की मनः स्थिति में वह उर्वशी के रक्त - कणों में समाकर प्रार्थना के गीत गाना चाहता है। उर्वशी उसके मनुजत्व को परिभाषित करती है "तू पुरुष तभी तक, गरज रहा जब तक यह वैश्वानर।" यहाँ रक्त की भाषा की विश्वसनीयता का आग्रह है जो बुद्धि के चिन्तन से श्रेयस्कर दीखता है:
पढो रक्त की भाषा को/ विश्वास करो इस लिपि का;/ यह भाषा, यह लिपि/ मानस को कभी नहीं भरमायेगी।
उर्वशी ने पुरूरवा के भीतर एक रहस्य चिंतक को जगा दिया है जो उस आकाश में विहार करना चाहता है जिसमें उर्वशी की अलक्ष्य रूप रश्मियाँ समा रही हैं, जिसकी निर्विकल्प सुषमा में नर और नारी किसी एक ही मूल सत्ता के प्रतिमान प्रतीत होते हैं। अशेष सुंदरी उर्वशी परमात्मा की विराट छवि का एक अंश भर है। देह और आत्मा की खाई अनुल्लंघ्य नहीं है। आलिंगनबद्ध नर-नारी का देह धर्म से दूर अन्तरात्मा के लोक में उठ जाना श्रेयस्कर है। कवि का ध्येय जीवन को कैलास लोक पहुँचाना है जहाँ प्रत्येक पुरुष शिव है और प्रत्येक नारी शक्तिदायिनी शिवा है। यह प्रेम के ऊर्ध्वगामी शील का एक उदात्त उदाहरण है किंतु रक्त की लिपि पढ़ने के उर्वशी के आग्रह का ऐसे प्रत्युत्तर की संभावना- कि पुरूरवा दार्शनिक भंगिमा में प्रणय के उन्नयन के ऊर्ध्व स्वरूप का निरूपण करे- यह कृत्रिम प्रतीत होता है। इससे उर्वशी महाकाव्य के कलात्मक महत्व का क्षरण होता है।
कवि रामधारी सिंह दिनकर ने अनेक मोहक विम्बों की अवतारणा कर उर्वशी और पर को समय सरिता में अखण्ड शांति का करते चित्रित किया है। उनके हृदयों की अव्याहत भाव से समस्त विश्व में व्याप्त प्रणयी- द्वय अपने हृदयों की अमखर ध्वनन कर रहे हैं। उर्वशी पूछती है कि इस सृष्टि  की महिमा को हम कहाँ समेट कर रखें? इस प्रश्न  के उत्तर में पुरूरवा कहता है कि "इस सुख को  उस अद्वैत भवन में रखो जहाँ पहुँचकर दिक और काल एक हो जाते हैं, इस प्रदीप्त विश्व के अंचल में रखो जो इसी प्रकार प्रणय का गूढ़ कूजन सुनता जायेगा, उस अदृश्य के चरणों पर रखो जिसकी मृदु स्मृति में हम दोनों क्रीड़ा-विहार करते हैं, जो स्वयं नारी बनकर पुरुष को और पुरुष बनकर नारी को उद्वेलित किया करता है। आगे पुरुरवा कहता है: “प्रणय के अलिंगन में शिथिल देह नहीं बँधती, यही विभा बँधती है और मद विभोर अधरों का चुम्बन इसी अदृश्य के चरणों में चढ़ता है। देह मिटटी है,  किंतु दैहिक प्रकाश की किरणे मिटटी नहीं हैं। अधर नष्ट हो जाते हैं किन्तु चुम्बन की झनकार नहीं मिटती। अतएव, सारे आकारों में जमनेवाले निराकार के चरणों में ही प्रणय की तरंगे अर्पित होती हैं।" (उर्वशी पृ0 71) औपनिषदिक विचार कि रमणेच्छा से अनुप्राणित परमात्मा ने अपने को नर-नारी के द्वैत में विभक्त कर लिया, पुरूरवा के प्रस्तुत बयान में यही कथन प्रतिफलित होता लगता है। चुम्बन की झनकार की अमिट स्थिति प्रणय की उसी अविनश्वर मौलिक सत्ता का विलास है। दिनकर ने पार्थिव प्रेम को अपार्थिव बनाने का दार्शनिक आधार तैयार किया है। परमेश्वर तक पहुँचने के लिए प्रकृति के किसी संबंधों को तोड़ना आवश्यक नहीं। नारी को आलिंगनबद्ध करने वाला नर अथवा नर से परिचय प्राप्त करने वाली नारी परम तत्व का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सक कर सकती, यह समझना नितांत भ्रांतिपूर्ण है। प्रकृति माया नहीं है वह बुद्धि माया है जो अर्जन-वर्जन का भेद सिखाती है। हम कह सकते है कि उर्वशी काव्य में वेदांत का अद्वैत तत्व, गीता का अनासक्ति-भाव, उमर खैयाम का योग तत्व, अस्तित्वादियों की निस्सहायता और मनोविज्ञान का सहज लैंगिक आकर्षण आदि सब मिलकर एक विचित्र दर्शन की सृष्टि करते हैं।
"काम-कृत्व वे सभी दुष्ट हैं,/ जिनके संपादन में,/ मन आत्माएँ नहीं, /मात्र दो वपुष मिला करते हैं।/ या,/ तन का क्या अपराध ?/ यंत्र वह तो सुकुमार प्रकृति का,/ तन का का अमृत,/ लेकिन यह मन का काम गरल है।/ या, / परिम्भ पाश में बँधे हुए/ उस अम्बर तक उठ जाओ रे,/ देवता प्रेम का सोया है,/ चुम्बन से उसे जगाओ रे। 

चुम्बन और चिंतन के इस कामाध्यात्मिक द्वन्द् की सृष्टि में दिनकर की प्रतिभा बाजी मार लेती है किंतु विश्वप्रिया उर्वशी के प्रति कवि ने न्याय नहीं किया है- यही खेद जनक स्थिति है। 

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