शौर्य दिवस


    महाराणा प्रताप
(जन्म 9 मई 1540 — मृत्यु  19 जनवरी 1597)

है जिसका इतिहास पुराना और विश्व में ख्याति महान
भारत की वह वीर भूमि है नाम है उसका राजस्थान

वैसे तो भारत की पवित्र भूमि अनेक महान योद्धाओ के जीवन, त्याग, बलिदान और बहादुरी के गाथाओ से इतिहास भरा पड़ा है उनमे से प्रमुख रूप से महाराणा प्रताप के नाम से भारतीय इतिहास गुंजायमान हैं। यह एक ऐसे योद्धा थे जिन्होंने मुगुलों को छठी का दूध याद दिला दिया था। इनकी वीरता की कथा से भारत की भूमि गोरवान्वित हैं। महाराणा प्रताप मेवाड़ की प्रजा के राणा थे। महाराणा प्रताप राजपूतों में सिसोदिया वंश के वंशज थे। ये ऐसे बहादुर राजपूत थे जिन्होंने हर परिस्थिती में अपनी आखरी सांस तक अपनी प्रजा की रक्षा की, भूखे रहना काबुल किया, घांस की रोटी खाने पसंद किया परंतु अपने निजी सुख के लिए अपनी प्रजा के स्वाभिमान से कभी समझौता नही किया। इन्होने सदैव अपने एवं अपने परिवार से उपर प्रजा को मान दिया। एक ऐसे राजपूत थे जिसकी वीरता को अकबर भी सलाम करता था।

महाराणा का प्राम्भिक जीवन
महाराणा के पिता राणा उदय सिंह एक महान योद्धा थे। महराणा उदय सिंह की जीवन रक्षा की कहानी पन्ना धाय से जुडी हुई है, उदय सिंह के पिता राणा रतन सिंह के मृत्यु के पश्चात उदय सिंह के बड़े भाई विक्रमादित्य ने राजगद्दी संभाली। अपने पुत्र की जान गवां कर राणा उदय सिंह के जीवन को बचने वाली पन्ना धाय से शायद ही कोई अनभिज्ञ हो। किस तरह पन्ना धाय ने अपने बेटा को राणा उदय सिंह की जगह पर लिटा कर, फोलों की टोकरी में उदय सिंह को छुपा कर कुम्भलगढ़ की तरफ निकल गयी। पन्ना धाय ने एक ऐसा बलिदान दिया जो की इतिहास में आज तक किसी ने न दिया होगा। कुम्भलगढ़ में आशा शाह देपुरा को कुंवर उदय सिंह को सौंपकर पन्ना धाय चित्तोड़ वापस चली आई, उस समय उदय सिंह की आयु केवल 15 वर्ष की थी। यहीं पर उदय सिंह ने शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने फिर जयवंताबाई से शादी की। प्रताप सिंह इन दोनों के ही पुत्र थे। प्रताप का जन्म ही युद्ध के दौरान हुआ था, एक तरफ उदय सिंह अपनी मातृभूमि को वापस पाने के लिए बनवीर से युद्ध कर रहे थे और इसी शुभ क्षण में भगवान एकलिंग का अवतार लिए प्रताप सिंह धरती में पधारे। उनके जन्म के उत्सव में चार चाँद तब लग गए जब ये खबर आई की महाराणा उदय सिंह बलवीर को हरा वापस चित्तोड़ के किला पर अपना अध्यापत स्थापित कर चुके है, प्रताप के जन्म की उत्सव चित्तोडगढ के किला में ही बड़े धूम धाम से मनाया गया।

प्रताप बचपन से ही बहुत ही बहादुर और अपनी वीरता दिखाकर लोगो को अचंभित कर जाते थे, वे जितने वीर थे उतने ही स्वाभाव से सरल और सहज थे। वे बहुत ही साहसी और निडर थे। बच्चों के साथ खेल खेल में ही दल बना लेते थे और ढाल तलवार के साथ युद्ध करने का अभ्यास करते थे। अपने लड़ाकू तेवर और अस्त्र-शस्त्र सांचालन में निपुणता के कारण वे अपने मित्रों के बीच काफी लोकप्रिय हो गए थे। उनमे नेतृत्व के गुण इसी अवस्था में जागृत होने लगे थे। प्रताप को गुरु आचार्य राग्वेंद्र का भरपूर साथ मिला उन्हें प्रताप की ताकत और सूज बूझ को सही दिशा प्रदान किया। प्रताप भी अपने गुरु से बहुत सारी शिक्षा प्राप्त की। गुरु राग्वेंद्र ने शक्ति सिंह, सागर सिंह और जगमाल को भी शिक्षा दी। एक बार गुरु ने उन चारों राजकुमारों को तालाब में से कमल का फूल लाने को कहा। गुरु की आज्ञा पाकर चारों राजकुमार तालाब में कूद गए और एक दुसरे के साथ पहले फूल लाने के लिए होड़ करने लगे, कि अचानक बीच में ही जगमाल थक गए और डूबने लगे तब प्रताप आगे बढ़कर जगमाल की मदद किये तबतक इधर शक्ति सिंह कमल लेकर गुरूजी के पास पहुँच गए और कहने लगे मैंने सबसे पहले कमल का फूल लेके आया हूँ, गुरु जी बोले प्रताप तम्हारे आगे था पर वो अपने भाई को मदद करने के कारण पहले नहीं पहुँच सका, शक्ति सिंह का सारा हर्ष क्षण भर में ही गुम हो गया। अब गुरु जी ने कहा की अब मुझे देखना है की तुम में से सबसे अच्छा घुड़सवार कौन है ये घोड़े लो और उस टीले में जो सबसे पहले आएगा वो ही विजयी रहेगा। दौड़ शुरू होने से पहले ही जगमाल ने अपने हाथ खड़े कर लिए और कहा मैं नहीं जाऊंगा उस टीले तक मैं थक चूका हूँ, गुरु जी ने जगमाल के मुख में विलाशिता की भावना को परख लिया था इसलिए उन्होंने कहा की कोई बात नहीं जगमाल मेरे साथ ही रहेगा तुम लोग जाओ। प्रताप सबसे पहले उस टीले से लौट आये उसके बाद शक्ति सिंह और सागर सिंह सबसे आखिरी में आया। गुरु जी ने प्रताप की बहुत तारीफ की, इस पर शक्ति सिंह जलभुन गया. शक्ति सिंह भी प्रताप की तरह ही बहुत साहसी था पर प्रताप से तुलना होने पर वो हर बार हार जाता था जो की उसे पसंद नहीं था. एक बार जंगल में गुरु जी चारों राजकुमार को कुछ शिक्षा दे रहे थे कि तभी एक बाघ ने शक्ति सिंह को पीछे से झपटने के लिए आगे बढ़ा, शक्ति सिंह डर से हिल भी न पाया था, गुरुवर कुछ कर पाते, उसके पहले प्रताप ने सामने रखा भाला बाघ के सीने में डाल दिया बाघ वही गिर पड़ा, तब शक्ति सिंह के जान में जान आई, शक्ति सिंह ने प्रताप का धन्यवाद किया और गुरु जी ने भी प्रताप की बहुत प्रसंशा की। इस तरह से प्रताप की शिक्षा पूरी हुई। राणा उदय सिंह जब भी प्रताप को देखते थे वो हर्ष उल्लास से भर जाते थे, राणा प्रताप को विश्वास था की उनके बाद मेवाड़ का भविष्य एक सुरक्षित हाथों में जाने वाला है। इसी सोच के साथ लगातार उदय सिंह गुप्त रूप से अपनी सेना को एक जुट करने में लग गए। लगभग 10 साल के लम्बे समय के बाद उदय सिंह ने अफगानों में आक्रमण करने का निर्णय लिया, वे अपने सभी राजकुमारों को किसी सुरक्षित स्थान में पहले पहुंचा देना चाहते थे पर प्रताप जो की अभी केवल 13 साल के ही थे किसी तरह उनको युद्ध की खबर हो गयी, वो इस युद्ध से कैसे अनछुए रह सकते है इसलिए अपने पिता के आज्ञा के बगैर उस युद्ध में कूद गए, थोड़े ही समय में युद्ध शुरू हो गया, और प्रताप इतनी कम उम्र में ही अपनी प्रतिभा की चमक चारों ओर बिखेरने लगे थे, इस युद्ध में कई राजपूत सिपाहियों ने प्रताप का भरपूर साथ दिए, बहुत ही मुश्किल से किसी तरह इस युद्ध में राणा उदय सिंह विजयी रहे, जब उन्हें पता चला की प्रताप भी इस युद्ध में सम्मिलित थे उनकी आँखे आशुओं से नम हो गयी और उन्होंने प्रताप को गले लगा लिया। अब सम्पूर्ण मेवाड़ में उदय सिंह का राज था। इस तरह से प्रताप सिंह की खायाति पूरे राजपूताने में फैलने लगी, मेवाड़ की प्रजा प्रताप के स्वाभाव से अत्यंत प्रसन्न रहती। क्योंकि कभी कभी प्रताप तो उनकी मदद करने में इतने खो जाते थे की वे भूल जाते थे की वो एक राजकुमार है। और इस तरह प्रताप अपने वीरता की गाथा को बिखरते हुए बड़े होने लगे।

महाराणा प्रताप का संघर्षपूर्ण जीवन

अकबर लगभग पुरे मेवाड़ पर अपना अधिपत्य जमा चूका था। और राणा प्रताप के पास बहुत बड़ी चुनौती थी। पर राणा प्रताप ने इस चुनौतीपूर्ण कार्य को भी बड़ी ही सरलता के साथ पूरा करते गए, एक एक कर के महाराणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि को मुगलों के चंगुल से स्वतंत्र कराते गए। जब ये बात अकबर को पता लगी तो उसे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि हल्दीघाटी के इस विशाल युद्ध में जिस तरह से प्रताप और उनके वीरों ने अपना शोर्य दिखाया था उससे तो ये स्पष्ट ही था कि मेवाड़ में मुग़ल सेना ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकती है। अतः मेवाड़ को जीतने के स्थान में अकबर ने सदा राणा को पकड़ने के लिए दबदबा बनाये रखा। राणा के बहादुर साथी और भील सदा ही उनकी रक्षा अपने प्राणों पर खेल कर करते रहे उधर महाराणा प्रताप हल्दीघाटी की युद्ध में अकबर की नींद को उदा देने के बाद बिठुर की जंगलों में जा छिपे थे। उनके परिवार को उनके पास सुरक्षित बुला लिया गया था। उनकी स्थिति बहुत ही दैन्य हो गयी थी, जंगलों में मुग़ल सैनिकों से बचते बचाते वे अनेक प्रकार का कष्ट झेल रहे थे। उन्हें सबसे ज्यादा कष्ट तब होता था जब उनकी जान बचाने के लिए कोई आगे बढ़कर अपनी जान दे देता था। हल्दीघाटी की युद्ध के बाद अकबर की नींद उड़ गयी थी। उसे डर था की समस्त राजपूताने के राजपूत के दिल में कहीं राणा प्रताप के लिए प्यार और इज्जत ना पैदा हो जाये। हल्दीघाटी का रण कौशल ने प्रताप का पद ऊँचा कर दिया था, उस समय की स्थिति ऐसी हो गयी थी कि राजपूताना ही नहीं बल्कि समस्त भारतवर्ष में राणा प्रताप और उनके वीर चेतक की गाथा सुने जाने लगी थी, कवि राणा प्रताप की वीरता में कविता लिखने लगे थे, स्त्रियाँ राणा प्रताप की वीरता और शोर्य के गीत गाने लगी थी, देश का माहौल में अजीब सा बदलाव नजर आने लगा था, इस बदलाव में राणा प्रताप की तरह भारतवासी गुलामी की बेड़ियों से आजाद होकर स्वाधीन होने के सपने देखने लगे थे। बच्चे मेवाड़ के पराक्रम को बड़े ही ध्यान से सुनने लगे थे, जगह जगह नाट्य रूपांतरण के द्वारा महाराणा प्रताप की शूरवीरता को दर्शाया जाने लगा और अकबर को धोखे से छलने वाला, कपटी और धूर्त बताने लगे थे। असहाय और साधनहीन महाराणा अपनी तथा अपने परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए भीलों की मेहरबानी पर दिन काट रहा था और अकबर उसे जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिए भीलों की टोली को जंगल जंगल भेज रहा था। मुग़ल सैनिक महाराणा के नाम से थर्राते थे। परन्तु अकबर के आदेश के आगे विवश थे। अनेक सैन्य टुकड़ियाँ विभिन्न जंगलों में राणा प्रताप की टोह में लगी थी। राणा प्रताप की सुरक्षा के लिए भील अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिए थे। अनेक बार ऐसे अवसर भी आये की कई बार मुग़ल सैनिक टोह लेते लेते राणा प्रताप के बिलकुल ही पास आ पहुंचे और छापामार कर बस उन्हें पकड़ने ही वाले थे की सही वक़्त पर भीलों की टोलियाँ ने उन्हें आगे बढ़कर चुनौती दी। मुग़ल सैनिक के साथ मुठभेड़ में अनेक भीलों ने अपनी जाने गँवा दी और राणा प्रताप को अपने छिपने के स्थान से भाग जाने का अवसर प्रदान किया। भीलों की कुर्बानियों के कारण राणा प्रताप का मन बुरी तरह से दुखी हो गया। ऊपर से उनकी पत्नी तथा बच्चों के शारीर भूख का ताप सहते सहते सूख कर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गए थे। मन के साथ साथ महाराणा का शरीर भी टूटने लगा था। उनकी समझ में नहीं आ रहा था की क्या करे. जंगलों में छिप कर रहने से उनकी बहरी दुनिया से संपर्क बिलकुल ही टूट गया था। उनके परिवार के अन्य सदस्यों का भार भीलों ने विभिन्न स्थानों में उठाया हुआ था। राणा तक यह समाचार बराबर पहुँच रहे थे की मेवाड़ की जनता अपने राणा पर गर्व करते है, वे अपने राणा पर अपना तन मन धन सब कुछ न्योछावर करने को तैयार है, किन्तु कंदराओं में छिप कर जनत अक सहयोग कैसे लिया जा सकता था। राजपूत जाति के बिखराव और पतन में कोई कमी नहीं रह गयी थी। स्वयं महाराणा प्रताप के भाई और भतीजे विरोधी खेमे में चले गए थे। अनेक राजपूत आकबर की अधीनता को स्वीकार कर चुके थे। इन्ही राजाओं की शक्ति के कारण अकबर ने राणा को चारों ओर से घेर रखा था। कई राजपूत राजाओं ने मेवाड़ के कई हिस्सों में अपना अधिकार जमा लिया था। लगभग पूरा मेवाड़ फिर से अकबर के अधीन हो चूका था। ऐसे में राणा प्रताप के सब्र का बाँध टूट गया। महाराणा की पत्नी ने किस तरह घास-पात एकत्रित की, उनसे कुछ रोटियां बनाई और कई दिनों से भूखे दोनों बच्चों के सामने रख दी। इतने में जंगल से एक बिलाव आया और बच्चों के आगे से रोटियां उठा के ले गया। अब किसी भी तरह से रोटियां नहीं बनाई जा सकती थी और बच्चे भूख से बिलख रहे थे। बच्चों को रोता देख पत्नी भी दुखी हो गयी।



भामाशाह का योगदान और महाराणा का विजय अभियान :-

भामाशाह चितौड़ के सबसे  बड़े धनपति थे। उनके पास अपार धन सम्पदा थी। मुगलों के आक्रमण के बाद उन्होंने चितौडगढ़ का त्याग कर दिया था। कई वर्षों तक वह मुगल आक्रांताओं से अपनी धन संपत्ति को छुपाये रखा। चितौडगढ़छोड़ देने के वावजूद भी उनमें मातृभूमि-प्रेम लेश मात्र भी काम न हुई थी। भामाशाह को राणा प्रताप का पता चला तो और वह राणा प्रताप की तलाश में लग गए क्योंकि उन्हें पता चला था की राणा को युद्ध के लिए धन की आवश्यकता है। उनकी हार्दिक इच्छा थी की महाराणा उनका धन ले लें और एक मजबूत सेना का गठन कर मुगलों से अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराएँ। राणा प्रताप के संपर्क में आते ही भामा शाह अपनी सारी संपत्ति लेकर  उनके पास जा पहुंचे, उन्होंने आग्रह किया कि इस धन वो स्वीकार कर लें और एक सेना का संगठन कर मुगलों को मुंह तोड़ जवाब दे। भामाशाह का निवेदन को महाराणा प्रताप ने अति संकोच के साथ स्वीकार किया। यह राशी इतनी बड़ी थी की इससे 5000 हजार सैनिकों को 12 वर्षों तक वेतन दिया जा सकता था। इतनी बड़ी राशी का योगदान देकर भामाशाह मातृभूमि के ऋण से उऋण होकर इतिहास में अमर हो गए। महाराणा प्रताप ने भी उनकी अपने मातृभूमि के लिए योगदान देने पर बहुत प्रसंशा किया। सबने भामाशाह का कृतज्ञता व्यक्त की सबके चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे। शक्तिसिंह के हृदय में युद्धोन्माद लहरे लेने लगा। भामाशाह से धन लेने के बाद राणा प्रताप ने अपने सेना को संगठित किया। अनेक राजपूत राजाओं ने आगे बढ़कर राणा प्रताप का सहयोग दिया। शक्तिसिंह ने भी अपने द्वारा संगठित सैन्य शक्ति राणा प्रताप को दे दी। और अब वह राणा का वफादार सैनिक बन गया। दूसरी तरफ राजा पृथ्वीराज ने अकबर से प्रतिशोध लेने के लिए अकबर का साथ छोड़ दिया और वे राणा प्रताप से आकर मिल गए। राणा प्रताप ने हमले कर मुगलों को कुमलमेर से खदेड़ दिया। पुरे कुमलमेर क्षेत्र में फिर से महाराणा ने कब्ज़ा कर लिया। मुग़ल सेना पहले ही राणा प्रताप के गुरिल्ले युद्ध से आतंकित थी। जहाँ-जहाँ महाराणा ने दबाव बनाया वहां वहां मुग़ल सेना पीछे हटते चली गयी। किनसहारा का किला अभी भी शक्तिसिंह के कब्जे में था। अकबर ने राजा मानसिंह को आदेश दे दिया की किनसहारा का किला को शक्तिसिंह से छीन लिया जाए.मानसिंह ने महाबत खान को बुलाकर उसे 10 हजार सैनिक दिए और शक्तिसिंह पर आक्रमण करने को कहा। महाबत खान ने किनसहारा किला पहुँच कर शक्तिसिंह को चुनौती दी उस समय शक्तिसिंह केवल 1 हज़ार सैनिको के साथ किले की रक्षा कर रहा था। महाबत खान ने किले की घेराबंदी कर दी और आशा कर रहा था की रसद खत्म होने पर शक्तिसिंह अपनी सेना लेकर किले से बाहर निकलेगा, तब उसे मार गिराया जायेगा। परन्तु शक्ति सिंह ने हार नहीं मानी। शक्तिसिंह ने तुरंत ही महाराणा प्रताप के पास खबर भिजवा दी। महाबत खान ने दुर्ग के पूर्व की दिवार तोड़ डाली और उसकी सेना किले में घुसने की तयारी करने लगी। शक्तिसिंह ने मुकाबला करते हुए मरने का फैसला कर लिया था। परन्तु ठीक उसी समय महाराणा प्रताप की जयजयकार शक्तिसिंह के कानो तक पहुंची, शक्तिसिंह बिना समय गंवाए आक्रमण का आदेश दे दिया। उसी समय प्रताप की सेना भी पिछे से पहुँच गई। दोनों सेनाओं ने मिल कर महाबत खान की सेना को घेर लिया। मुग़ल सेना दो पाटों के बीच फंस गयी। महबत खान को कैद हो गई। जब उसे महाराणा के सामने लाया गया तो उन्होंने महबत खान को छोड़ दिया। इस प्रकार से किनसहारा का किला बच गया। इस युद्ध में मुगलों के 10 हजार सैनिकों में से 8 हजार सैनिक मारे गए। राणा के विपुल युद्ध सामग्री हाथ लगी।

राणा प्रताप ने अपनी बहादुरी और जन सहयोग से अकबर द्वारा जीता गया लगभग सारा क्षेत्र फिर से जीत लिया। अपनी सेना को आधूनिक साज सामग्री से युक्तकर, महाराणा ने कुम्भलगढ़ को अपना केंद्र बना लिया।

हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध के बाद अकबर ने अनेक आक्रमण किये अनेक चाले चली परन्तु वह महाराणा के लिए परेशानी पैदा करने के अलावा और कुछ भी नहीं कर सका। न अकबर चैन से बैठा और ना ही उसने महाराणा को चैन की सांसे लेने दी परन्तु उसने अपनी सारी ताकते झोंक कर भी महाराणा को अंतिम रूप से झुका ना पाया। अनेक संघर्षो और युद्धों के बाद बार बार मेवाड़ राज्य कई बार मुगलों के हाथों चला गया पर अंततः महाराणा ने मंडलगढ़ और चित्तौड़गढ़ को छोड़कर पुरे मेवाड़ में अपना अधिपत्य स्थापित कर ही लिया।




महाराणा प्रताप और प्रसिद्द हल्दीघाटी का युद्ध

मुगल इतिहासकार अबुल फजल ने इसे खमनौर का युद्धकहा है। राणा प्रताप के चारण कवि रामा सांदू झूलणा महाराणा प्रताप सिंह जी रामें लिखते हैं- महाराणा प्रताप अपने अश्वारोही दल के साथ हल्दीघाटी पहुंचे, परंतु भयंकर रक्तपात खमनौर में हुआ।

हल्दीघाटी का युद्ध ना केवल राजस्थान के इतिहास बल्कि हिंदुस्तान के इतिहास में एक महत्वपूर्ण युद्ध था जिसमे मेवाड़ की आन बचाने के लिए महाराणा प्रताप जबकि राजपूतो को पराजित करने के लिए अकबर की सेना आमने सामने हुयी थी।
जब राजस्थान के सभी राजाओं ने अकबर के सामने घुटने टेक दिए थे लेकिन राणा प्रताप ने अकबर की गुलामी स्वीकार नहीं की थी तब हल्दीघाटी के मैदान में युद्ध हुआ था इसीलिए इसको हल्दीघाटी का युद्ध कहा जाता है। महाराणा प्रताप के पास उस समय अकबर से बहुत कम मात्रा में सेना थी फिर भी अपने सम्मान के लिए महाराणा प्रताप 15 जून साल 1576 को अकबर की बड़ी और ताकतवर सेना के सामने युद्ध के लिए आ गए। इतिहास की सबसे बड़ी एवं प्रसिद्द युद्धों में से एक ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ सिर्फ चार घंटे में समाप्त हो गयी थी।हालांकि कीच इतिहासकार इस अवधी को चार दिन बताते हैं। महाराणा प्रताप की सेना में मुख्य सेनापति ग्वालियर के राम सिंह तंवर, कृष्णदास चुण्डावत, रामदास झाला, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, पुरोहित जगन्नाथ जैसे योद्धा थे। महाराणा प्रताप की सेना की अगुआई अफगान योद्धा हाकिम खां सुर ने की थी जिसके परिवार से अकबर का पुराना बैर था जब सुरी वंश के शेरशाह सुरी को मुगलों ने हराया था इसलिए वो प्रताप से मिलकर मुगलों को हराना चाहते थे। महाराणा प्रताप की तरफ आदिवासी सेना के रूप में 400-500 भील भी शामिल थे जिसका नेतृत्व भील राजा रांव पूंजा कर रहे थे।

राजस्थान का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना में 22,000 सैनिक जबकि अकबर की सेना में 80,000 सैनिक थे जबकि दूसरी तरफ अकबर की सेना का नेतृत्व करने के लिए अकबर ने आमेर के राजपूत राजा मान सिंह को सेनापति बनाकर महाराणा प्रताप से लड़ने को भेजा। ये भी अजब संयोग था कि राजपूत, राजपूत से लड़ रहा था।

अकबर की सेना में सेनापति मानसिंह के अलावा सैय्यद हासिम, सैय्यद अहमद खां, बहलोल खान, मुल्तान खान गाजी खान, भोकाल सिंह, खोरासन और वसीम खान जैसे योद्धा थे जिन्होंने मुगलों के लिए इससे पहले कई युद्धों लड़े थे। महाराणा प्रताप के लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह थी उनका सगा भाई शक्ति सिंह मुगलों के साथ था और उनको इस पहाड़ी इलाके में युद्ध के लिए रणनीति बनाने में मदद कर रहा था ताकि युद्ध में कम से कम मुगलों का नुकसान हो।
21 जून साल 1576 को दोनों की सेनाएं आगे बढ़ी और रक्ततलाई पर दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ जो केवल चार घंटे में ही समाप्त हो गया। हल्दीघाटी के युद्द में महाराणा प्रताप की सेना से उनके सेनापति हाकिम खां सुर, डोडिया भीम, मानसिंह झाला, रामसिंह तंवर और उनके पुत्र सहित अनेको राजपूत योद्धा शहीद हुए जबकि अकबर की सेना से मान सिंह के अलावा सभी बड़े योद्धा मारे गये थे।

इस युद्ध की सबसे एतेहासिक घटना वो थी जब महाराणा प्रताप मान सिंह के करीब पहुँच गये थे और अपने घोड़े चेतक को उन्होंने मानसिंह के हाथी पर चढ़ा दिया और भाले से मान सिंह पर वार किया लेकिन मान सिंह तो बच गये लेकिन उनका महावत मारा गया। चेतक जब वापस हाथी से उतरा तो हाथी की सूंड में लगी तलवार से चेतक का एक पैर बुरी तरह घायल हो गया। चेतक केवल तीन पैरों से 5 किमी तक दौड़ते हुए अपने स्वामी महाराणा प्रताप को रणभूमि से दूर लेकर गया और एक बड़े नाले से चेतक ने छलांग लगाई जिसमें चेतक के प्राण चले गये। उस समय महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह उनके पीछे थे और शक्तिसिंह को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने महाराणा प्रताप की मदद की। दूसरी तरफ महाराणा प्रताप के रण से चले जाने पर उनके स्थान पर उनके हमशक्ल झाला मान सिंह ने उनका मुकुट पहनकर मुगलों को भ्रमित किया और रण में कूड़े पड़े और झाला मान सिंह शहीद हो गये।

महाराणा का अंतिम समय

अकबर द्वारा युद्ध विराम की घोषणा:-
अब प्रताप ने उदयपुर से 57 मील की दुरी पर स्थित चावंड में अपनी राजधानी स्थापित कर ली। 1583 के बाद महाराणा का केंद्र स्थल चावंड नगर बन गया। अकबर जब सारे प्रयत्न कर के हार गया और उसे राणा प्रताप को काबू में करने का कोई रास्ता नजर नहीं आया तो वह बुरी तरह से बौखला गया। उसने मानसिंह को एकांत में बुलाया और स्थिति की गंभीरता पर विचार किया। मानसिंह ने अकबर को सूचित किया की राजपूत महाराणा पर बार बार आक्रमण करने की निति से प्रसन्न नहीं है. महाराणा ने बेमिसाल बहादुरी का परिचय देकर मुग़ल शक्ति को हर बार नाकामयाब कर दिया है। ऐसे बहादुर व्यक्ति की तबाही से राजपूत क्षुब्ध है। स्वयं मानसिंह ने राणा प्रताप पर और अधिक आक्रमण ना करने की निति से सहमती जताई। अकबर समझ गया था कि यदि राणा पर और अधिक हमले किये गए तो राजपूत बगावत पर उतर जायेंगे और जिस मंतव्य से राणा शेर की तरह डटा हुआ युद्धों की विभीषिका को झेलता रहा है उसमे वह कामयाब हो जायेगा। एक बार राजपूत उसके हाथ से निकल राणा प्रताप के साथ हो गए, तब सम्पूर्ण मुग़ल सल्तनत ही खतरे में पड़ सकता है।

अगले ही दिन उसने एक महत्वपूर्ण घोषणाएं कर डाली, घोषणा यह थी कि महाराणा प्रताप से मुग़ल सम्राट की अब कोई दुश्मनी नहीं है, जब तक प्रताप जीवित है उनपर मुगलों की ओर से कोई और हमला नहीं किया जायेगा। अकबर ने सभी राजपूत से अपने गलतियों के लिए क्षमा याचना की, राजपूतों को और क्या चाहिए था, मुग़ल सम्राट अकबर उनसे क्षमा मांग रहा है इससे प्रतिष्ठा वाली बात और क्या हो सकती है। मुग़ल साम्राज्य से कटकर महाराणा के पीछे एक जुट होने का जो संकल्प उनके मन में जागा था, वो एक कच्चे घड़े की तरह टूट गया था। महाराणा प्रताप को जब ये पता लगा कि अकबर उनसे संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया है तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। वे उस मिटटी के बने राजपूत थे, जो शत्रु द्वारा उदारता दिखाए जाने पर कभी प्रसन्न नहीं होते थे। फिर अकबर से उनकी शत्रुता तो कई पीढियां पुरानी थी। मुगलों से संघर्ष करना उनकी जीवन शैली में शामिल हो गया था। सम्पूर्ण युद्ध विराम के समाचार से उन्हें ऐसा लगा की जैसे सारे काम एकाएक रुक गए हो। वास्तविकता तो ये थी कि 25 वर्षो से निरंतर युद्ध करते करते उनका शारीर जर्जर हो चूका था उन्हें आराम की सख्त जरुरत थी। परन्तु राणा प्रताप ने अपने सुख चैन और आराम को कभी भी महत्त्व नहीं दिया। उनकी एकमात्र चिंता बस यही थी की देश के राजपूतों में एक ऐसा जूनून पैदा हो कि वे एक होना सीखे और बहरी ताकतों के हाथों में न खेलकर अपनी ताकतों को पहचाने और अपने देश में अपने संयुक्त साम्राज्य की स्थापना के लिए कुछ करें।

राणा बीमार पड़ गए उनके मन में एक ही चिंता घर कर गयी थी की उनके बाद मातृभूमि के लिए लड़ने वाले राजपूतों की परम्परा समाप्त हो जाएगी। मेवाड़ का भविष्य भी उनको उज्जवल नहीं दिख रहा था। उन्हें भय था कि उनके बाद अमर सिंह मुगलों का दयित्व स्वीकार कर लेगा। जिस प्रतिष्ठा के लिए वे आजीवन हर तरह के कष्ट सहते हुए शत्रुओं से जूझते रहे, उनकी मृत्यु के बाद वह धुल में मिल जाएगी। राणा प्रताप से मिलने प्रतिदिन अनेक लोग आते थे। राणा बीमार है और मृत्यु की शय्या पर है ऐसी खबर दूर दूर तक फ़ैल गयी थी। अनेक राजपूत राजा उनका हाल चाल जानने और उनके दर्शन के लिए आने लगे थे। राजपूत ही नहीं अनेक बहादुर मुसलमान और मुस्लिम सरदार भी राणा के दर्शन करने में अपना अहोभाग्य समझते थे।

अब तो अंतिम दिन निकट आ पहुंचा था। महाराणा की दशा बिगड़ गयी थी। उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों गोविन्दसिंह, पृथ्वीराज, शक्तिसिंह, अमरसिंह आदि को बुलाया और कहने लगे- अब मुझे केवल एक बात बताओ मेरे बाद इस मातृभूमि की लड़ाई कौन लडेगा आप सब थक चुके है और अमरसिंह इस काबिल नहीं लगता है. आप शांत रहिये भैयाशक्तिसिंह ने आगे बढ़कर कहा- जब तक हम चितौड़ का किला जीत नहीं लेते है, मुगलों से कोई समझौता नहीं करेंगे। हम मुगलों के आगे कभी नहीं झुकेंगे, आपके द्वारा स्थापित वीरता की परंपरा को धक्का नहीं लगने देंगे, चाहे हमारे प्राण ही क्यों ना चले जाए। बप्पा रावल को साक्षी मानकर सभी राजपूतों ने प्रतिज्ञा की। राणा आश्वस्त हो गए और बोले- मुझे आप लोगो पर पूरा भरोसा है अब मैं चैन से मर सकूँगा। कहते हुए महाराणा ने शून्य में देखा और फिर गर्दन झुकाकर कहने लगे –“मेरा अंत समय निकट आ गया है। प्राण के निकलते समय मैं चित्तौडगढ के दर्शन करना चाहूँगा आप सब मुझे ऐसी जगह लिटा दीजिये जहाँ से मैं चितौड़गढ़ का किला स्पष्ट रूप से देख सकूँ। चितौड़गढ़ का किला जब राणा जी को दिखने लगा तो वो उठ बैठे और बोले –“हे मुग़ल पददलित चितौडगढ़ मैं तुझे अपने जीवन में प्राप्त ना कर सका। अकबर ने उसपर अन्याय से कब्ज़ा कर रखा है, मैं तुझे जीते बिना ही जा रहा हू परन्तु विश्वास रख मेवाड़ की युवा पीढ़ी तुझे शीघ्र ही मुक्त करा लेगी। मैंने प्राण पण से तेरे उद्धार की कोशिश की थी मगर......कहते कहते महाराणा का गला रुंध गया, दृष्टी किले के बुर्ज पर ही ठहर गयी थी. तभी वैद्य ने उनकी नाड़ी देखी और बोले- महाराणा की इहलीला समाप्त हो गयी

यह शब्द सुनते ही अमरसिंह, गोविन्दसिंह, शक्तिसिंह आदि राणा के गले से लिपटकर फूट फूट कर रोने लगे। मेवाड़ के जाज्वल्यमान सूर्य का अन्त हो गया। पूरा मेवाड़ शोक में डूब गया।

ऐसा कहा जाता है कि महाराणा प्रताप की म्रत्यु की खबर सुनकर अकबर भी सुन्न हो गया था।  अकबार जानता था कि महाराणा प्रताप जैसा वीर पुरुष पूरे विश्व में नहीं है।
जापान के राजघराने के बाद सिसोदिया राजवंश एकमात्र ऐसा प्राचीन राजघरान है जिसकी वंश परंपरा नही टूटी है।

महाराणा और उनका चेतक-
महाराणा प्रताप के पास उनका सबसे प्रिय घोड़ा चेतकथा। हल्दी घाटी के युद्ध में बिना किसी सहायक के महाराणा प्रताप अपने पराक्रमी चेतक पर सवार हो पहाड़ की ओर चल पड़े। उनके पीछे दो मुग़ल सैनिक लगे हुए थे, परन्तु चेतक ने महाराणा प्रताप को बचा लिया। रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था। घायल चेतक फुर्ती से उसे लांघ गया परन्तु मुग़ल उसे पार न कर पाये। चेतक की बहादुरी की गाथाएं आज भी लोग सुनाते हैं।
चेतक की गौरव गाथा का गुणगान करते हुए श्यामनारायण पांडे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'हल्दीघाटी' में लिखा है-
'चेतक की वीरता'

चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था

जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था

गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
वह आसमान का घोड़ा था

था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं

निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में

बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि की सेना पर घहर गया

भाला गिर गया गिरा निसंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग
यदि चेतक न होता तो शायद प्रताप सिंह महाराणा प्रताप न बन पाते।

महाराणा प्रताप सिंह के मृत्यु पर अकबर की प्रतिक्रिया~
अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था, पर उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं था, हालांकि अपने सिद्धांतो और मूल्यो की लड़ाई थी। एक वह था जो अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था , जब की एक तरफ यह था जो अपनी भारत माँ की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहा था। महाराणा प्रताप के मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था ओर अकबर जनता था कि महाराणा जैसा वीर कोई नहीं हे इस धरती पर।
यह समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आंसू आ गए। महाराणा प्रताप के स्वर्गावसान के वक्त अकबार लाहौर में था और वहीं उसे खबर मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है। अकबर की उस वक्त की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छंद में जो विवरण लिखा वो कुछ इस तरह है:-

हे गुहिलोत राणा प्रतापसिंघ तेरी मृत्यु पर शाह यानि सम्राट ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निश्वास के साथ आंसू टपकाए। क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालांकि तू अपना आडा यानि यश या राज्य तो गंवा गया लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धुरे को बांए कंधे से ही चलाता रहा। तेरी रानियां कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गया। तू कभी शाही झरोखे के नीचे नही खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर गालिब रहा। इसलिए मैं कहता हूं कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया।
सदियों बाद आज भी राणा करते हरेक हृदय पे राज
जबकि मिट गया कुछ ही सालो बाद ही अकबर का साम्राज्य
महाराणा प्रताप के पराक्रम की तुलना किसी से भी नही की जा सकती है वे आज भी हमारे देश भारत के शौर्य साहस राष्ट्रभक्ति की मिशाल बन गये है जिसके नाम से ही हर भारतीय अपने आप को गौरवान्वित करता है। मेवाड़ की धरती को मुगलों के आतंक से बचाने वाले ऐसे वीर सम्राट, शूरवीर, राष्ट्रगौरव, पराक्रमी, साहसी, राष्ट्रभक्त को कोटि-कोटि नमन।

विडंबना :~
1. आज तक हमें  इतिहास में सिर्फ यही पढाया जाता रहा है कि हल्दीघाटी का युद्ध या तो महाराणा प्रताप हार गए थे या अनिर्णीत रहा अर्थात बिना हार-जीत के फैसले के युद्ध 4 घंटे में समाप्त हो गयी थी। परंतु यदि गहन अध्ययन किया जाये तो हमें यह प्रमाण मिलता है कि हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप वहां के जमीनों के ‘पट्टे’ जारी किया करते थे। प्रश्न यह है कि जब महाराणा प्रताप हार चुके थे तो कैसे वह अपने इस अधिकार का प्रयोग कर रहे थे। विचारणीय प्रश्न है कि जो तथ्य सदियों से जनमानस में प्रचलित थी वह आजादी के बाद अचानक ही इतिहास के पन्नों में कैसे पलट गयी।
2. सरकार के द्वारा हल्दीघाटी की उपेक्षा से हल्दीघाटी के युद्ध की कीर्ति धूमिल हो रही थी, तब एक सेवानिवृत्त स्कूल अध्यापक श्री मोहन श्रीमाली ने अपने व्यक्तिगत प्रयासों एवं अपनी सारी पूंजी को लगाकर हल्दीघाटी में ही महाराणा प्रताप एवं चेतक की स्मृति में एक संग्रहालय के एक निर्माण करवाया।
                                                           - डॉ. नीरज कृष्ण 


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