वीर बाँकुड़ा बाबू कुंवर सिंह !!

1857 की क्रांति और उसमें बाबू कुँवर सिंह की भूमिका भारतीय जनमानस एवं उसकी स्मृतियों का अभिन्न हिस्सा हैं। इतिहास अपनी भूमिकाएँ अपने हिसाब से चुनने की आजादी किसी को नहीं बख्शताप्रदत्त भूमिकाएँ कौन कितनी प्रामाणिकता से निभा ले जाता है इतिहास अपनी परिधि में उतना 'स्थान' उसके लिए निर्धारित कर देता हैबाबू कुँवर सिंह इतिहास की पुस्तकों में जितने नहीं हैं, उससे अधिक आमजन की स्मृतियों में दर्ज हैं। बाबू कुँवर सिंह को जानते-पढते यह बात शिद्दत से महसूस होती है कि आखिरकार 'लोक इतिहास की एक बड़ी प्रयोगशाला में कैसे तब्दील हो जाता है।
          टेलर ने लिखा है कि "जिला शाहाबाद में बाबू कुँवर सिंह की बहुत बडी और कीमती जायदाद है। बाबू कुँवर सिंह एक उच्चकुल और पुराने घरान से हैं। वह एक उदार और लोकप्रिय जमींदार हैं और उनकी रियाया उन्हें बहुत स्नेह करती हैं। ‘टू मन्थस इन आरा' के लेखक हाल्स ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि कवर सिंह बड़ा-से-बड़ा दुश्मन भी उस पर यह दोषारोपण नहीं कर सकता था कि उसने निरपराध व्यक्तियों का खून बहाया था।
          दरअसल बाबू कुँवर सिंह का पालन-पोषण बड़े ही उदारतापूर्ण माहौल में हुआ था। उनके पिता साहबजादा सिंह भी शाहाबाद के सर्वविदित दयाल एवं अत्यंत लोकप्रिय व्यक्ति थे। साहबजादा सिंह के बारे में फ्रांसिस बकानन लिखता है, "रैयतों से लगान नहीं वसूल हो रही है और सरकार की मालगुजारी चुकाने के लिए जमींदार के सिर पर कर्ज बढ़ता जा रहा है...... बाब साहबजादा सिंह की जमींदारी शाहाबाद में सबब बड़ी और जिले भर में फैली हुई थी। जिसमें रैयतों की संख्या एक लाख से ऊपर की होगी और उस शोषण और उत्पीडन युग में भी यह जमींदार अपने रैयतों की लाचारी वगैरह का विचार करके बराबर लगान छोड़ देता है और सामंतशा युग में भी अपने वर्ग के लोगों की आलोचनाओं की परवाह किए बिना छोटी जाति और नीचे तबके के लोगों कोता है। उनकी बातें सुनता है। मुसीबतों में उनका साथ देता है और राज्यकाज में भी उनकी सहायता लेता है.......... साहबजादा सिंह के अतिशय शिकार प्रेमी होने के कारण और पिछड़ी जातियों का साथ देने के कारण शाहाबाद और निकटवर्ती जिले की अद्यत जातियों यानी पासी बहेलिया और मिस्कार जिनका पेशा ही शिकार करना और चिडिया पकडना और बेचना था। स्पृश्य बन गई और उनके छुए जल आदि का पान सभी उच्चवर्ण के लोग करने लगे।" ।
          साहबजादा सिंह का यह चरित्र राजपूती आन-बान-शान के विरुद्ध था। यह जमीन्दारी और सामंतशाही का प्रतिकल पड़ता था। हम इसे वर्ग विरोधी चरित्र भी कह सकते हैं और यही चरित्र अपने पिता से बाबू कुँवर सिंह में भी प्रतिरोषित हुआ था। बाबू कुँवर सिंह अत्याचार नहीं कर सकते थे; अपनी रियाया का खून चूस कर मालगुजारी नहीं दे सकत थे, इसलिए अंग्रेजों ने कभी-कभी बाबू कुँवर सिंह को अक्षम शासक भी बताया है।
          राजस्व बोर्ड के मंत्री को लिखे टेलर के पत्र की कुछ पंक्तियाँ, "अधिकांश राजपूतों की तरह बाबू कुँवर सिंह भी बिल्कल अशिक्षित हैं बड़ी आसानी से वे स्वार्थी लोगों के शिकार रहे हैं.......उदार प्रकृति और फिजूलखचा खानदानी आदतों के कारण उनका खर्च बहुत बढ़ा हुआ है और उसकी पूर्ति कर्ज लेकर ही की जाती है।"
          वैसे तो बाबू कुँवर सिंह की बहुत बड़ी जमीन-जायदाद थी जिससे उसे कम-से-कम तीन लाख सालाना का तो होती थी, परंतु एक लाख अड़तालीस हजार तो उनको सरकार को मालगुजारी ही दे देनी होती थी। टेलर और डेम्पियर दोनों मानते हैं कि बाबू कुँवर सिंह पढ़े-लिखे नहीं थे, जायदाद की देखभाल नहीं कर सकते थे, भारी के था और यह भी कि उनके बेईमान एजेंटों ने ही उन्हें धोखा दिया था। वे सूद की अच्छी-अच्छी दरों पर व रकमों के पट्टे लिख देते थे। जिसका नतीजा यह हुआ कि उसे केवल कुछ हजार रुपए ही मिले जबकि वह लाखों रूपये की देनदारी से बंध गया” बाबू कुँवर सिंह पर तेरह लाख रुपए का कर्ज हो गया था। उनके ऋणदाताओं ने सरकार से प्रार्थना भी की कि वह उनके जायदाद का प्रबंध अपने हाँथ में ले ले और धीरे-धीरे उनका ऋण भी चूका दिया जाय।
          बाबू कुँवर सिंह पर बढ़ते हुए कर्ज और उनके द्वारा मालगुजारी की अदायगी की सम्भावना नहीं देखकर वर्ष 1855-56 में बंगाल की सरकार और उसके स्थानीय अधिकारीयों ने बाबू कुँवर सिंह की संपत्ति और मान-मर्यादा की रक्षा के लिहाज से, भारत में अंग्रेजी सल्तनत की प्रचलित परम्पारा के प्रतिकूल, उनके राज्य को सरकारी प्रबंध में ले लिया। इसे समझने की जरुरत है। यह एक कूटनीतिक चाल भी थी जिसके मात्र समझे जाने चाहिए।
          इस रियासत की भौगोलिक स्थिति बंगाल और उत्तर पश्चिम भरत के बीच सम्पर्क मार्ग के रूप में काफी महत्वपूर्ण थी। यहीं से होकर गंगा नदी और ग्रेड ट्रंक रोड का गजरना होता था। अत: किसी न किसी बहाने इस पर अधिकार रखना उनके फायदे की चीज थी।
          स्वभाव से अक्खड़ और जन्मभूमि से गहरा अनुराग रखने वाली जनता, जो रुपयों की खातिर अपनी आस्था नहीं बदल सकती, शाहाबाद की ऐसी जनता के बीच बाबू कुंवर सिंह अत्यंत लोकप्रिय थे। फिर ऐसे जनप्रिय शासक को किसी प्रकार अपनी ओर मिलाए रखना दूरदर्शिता ही थी।
           शाहाबाद की जनता अंग्रेजी सत्ता को सार्वभौमिकता को जब तक हदय से स्वीकार नहीं कर लेती तब तक उसकी  आस्था में बसे उनके प्रिय प्रतीक को तो किसी भी कीमत पर अंग्रेजी सरकार अपनी ओर रखती ही। उस जनप्रिय नरेश को सम्मान देकर अंग्रेजी सत्ता खुद वैधता की तलाश में थी। शाहाबाद की विद्रोही जनता के दिल में वह अपने लिए जगह बनाना चाहती थी। 
          वैसे भी अंग्रेजी सरकार जमीन-जब्ती तथा राज्यापहरण की कुख्यात नीति के चलते काफी बदनाम हो चुकी थी। अतः संकट के समय अंग्रेजी सरकार इस वीरभूमि के राजा को सम्बल देकर अपनी छवि को कुछ बेहतर भी करना चाहती रही होगी, ताकि अन्य राजवंशों पर भी कुछ अच्छा प्रभाव पड़े। वैसे एक हकीकत सरकार यह भी जानती थी कि कँवर सिंह को कोई संतान नहीं थी और कँवर सिंह काफी वृद्ध भी हो चले थे। इसलिए कुंवर सिंह के प्रति सदाशयता दर्शाते हुए सरकार उनकी रियासत की ‘केयरटेकर' की भूमिका में आ गई थी।
          लेकिन सवाल यह भी है कि उपनिवेशवादी भूख 'छवि' की चिंता कब तक करती। 1857 में एकाएक अँग्रेजी सरकार ने सिंह की रियासत को छोड़ दिया और यह भी आदेश निर्गत किया कि वे कर्ज के सारे रुपये एक महीने के भीतर अदा करें। अदायगी न होने पर रियासत नीलाम हो सकती है। यही नहीं सरकार ने कर्ज देने वालों से भी सख्ती करने कहा।
          ऐसा क्यों हुआ। सम्भवतः यह बात पता लग गई थी कि कुंवर सिंह क्रांतिकारियों से मिलकर अंग्रेजी सरकार के खिलाफ षडयंत्र करने लगे थे। इसीलिए, रियासत का प्रबन्धन छोड़ दिया गया कि कुंवर सिंह क्रांति की अपेक्षा कर्ज अदायगी और अन्यान्य प्रबन्धनों में प्रवृत होकर उलझ जाएँगे। क्रांति के दो महीने पहले रियासत वापस भी की गई तो, कर्ज एक पैसा भी नहीं दिया गया था। यह भी सही है कि भारी ऋण के बावजूद बाबू कुँवर सिंह ने क्रांतिकारी गतिविधियों में चन्दा दिया था। वर्ष 1845-46 के हरिहर क्षेत्र में मेले में ख्वाजा हुसैन अली खाँ के साथ प्रांत भर के हिंदू-मुसलमान रईस जुटे थे जिसमें बाबू कुँवर सिंह भी थे और इनको नेपाल के राजा को पक्ष में लाने का दायित्व सौंपा गया था। 1857 में नानासाहब से पत्राचार भी नाना से घनिष्ठता संस्तुत करता है। कर्नल भैलेसन ने कहा कि विद्रोही सिपाहियों से उसकी गुप्त सांठ-गांठ थी, उनके ही आदमियों के द्वारा नावें उपलब्ध कराई गई थी, जिसपर चढ़कर सिपाहियों ने सोन नदी पार किया था। आरा के तत्कालीन मजिस्ट्रेट एच सी. बेक ने भी माना है कि बाबू कुँवर सिंह का विद्रोह पूर्वनियोजित था। एक तथ्य से तो यह पता चलता है कि अँग्रेजों के विरुद्ध बाबू कुँवर सिंह वर्ष 1845-46 से ही क्राति एवं विद्रोह की भूमिका तैयार कर रहे थे और यह भी कि जगदीशपुर रियासत की जब्ती की नीयत अँग्रेज भी बहुत पहले से पाले हुए हुआ थे।
          सैम्युअल्स ने बड़े करीने से एक भ्रांति प्रचारित की कि कुंवर सिंह का विद्रोह आर्थिक कठिनाइयों के चलते हुआ था, इसके पीछे सिर्फ 'स्वार्थ' काम कर रहा था। बाद में भी इसको लेकर बहसें चलती रहीं कि क्या रियासतों को बचा  लेना ही तत्कालीन सरदारों का मूल मकसद था?
          लेकिन बाबू कुँवर सिंह तो 1845 से ही लगे हुए थे। संताल विद्रोह से भी इनकी सहानुभूति के तार जुड़े हुए थे। आर्थिक कारण ही रहे होते तो कर्ज में डूबा कोई राजा उनको चन्दा क्यों देता जो उसके प्रभुओं के विरुद्ध बगावत को अंजाम देने जा रहे थे। वे जानबूझ कर अंगरेजों के खिलाफ क्रांति की मशाल और क्यूँ धधकाते और क्यूँ अपनी रियासत भी खतरे में डाल लेते? यदि अर्थ की लालसा इतनी ही प्रबल थी तो अपनी रियाया का कर्ज लगान, मालगुजारी क्यों माफ करते है और क्यों अपनी रियासत को कर्ज में डुबोते रहे। वे हदयहीन हो सकते थे, सख्ती से कर वसूल सकते थें और अंग्रेजों को उनका 'दाय' देकर खुश रख सकते थे। लेकिन रियासत के इस सरदार ने ‘लोक’ के प्रति निष्ठा बहाल रखी।
          बाबू कुँवर सिंह की रियासत पर तो बहुत दिनों से संकट आसन्न था। वैसे भी कोई विरोध कहाँ से और कब शुरू करेगा यह युगबोध भी तय करता है। उसके वाजिब तर्क और जायज तेवर क्या होंगे यह समय की मान्यताएं तय करती हैं। रावण का कोई भी अत्याचार कम नहीं था। 'सीदहिं विप्र धेनुसुर धरती' विप्र, धेनु, सुर, धरनी चारो पर अत्याचार कर रहा था। इनमें से किसी एक के लिए भी प्रभु अवतार ले सकते हैं और रामजी भी रावण का वध कभी भी कर सकते थे। उनका तो जन्म या कहें 'अवतार' ही इसी शुभ कार्य के लिए हुआ था फिर वे अपनी पत्नी के अपहरण का अपराध होने तक क्यों रुके रहे। रामचन्द्र जैसा अवतारी पुरुष भी ‘चुनौती' को व्यक्तिगत दायरे में क्यों ले आता है। यह उन्नीसवीं शदी की 'जनवादी' आख्याओं से पहले संभव नहीं था कि 'चुनौती' की वैधता व्यक्तिगत दायरों से बाहर भी पुष्ट की जा सके। सही कारण की तलाश शायद व्यक्तिगत दायरों में ही सम्पन्न होती रही हो। और आधारों पर भी व्यापक हितों की लड़ाई लड़ी जाती है तो इसका स्वागत ही होना चाहिए। और तात्कालिक उभारों एवं  कारणों की व्याख्या ऐतिहासिक संदर्भो में ही होनी चाहिए।
          बहरहाल, बाबू कुँवर सिंह के प्रमुख सहायकों में उनके भाई अमर सिंह, भतीजा रितभंजन सिंह, उनका तहसीलदार  हरिकिशन सिंह और उनके साठ वर्षीय मित्र निशान सिंह थे। दिलावर खाँ और सरनाम सिंह का भी जिक्र आता ही है। सुरेन्द्र नाथ सेन तो कहते हैं कि शाहाबाद के राजपूत इस बात पर तुले हुए थे कि वे यह सिद्ध दें कि वीरता कोई गुजरे जमाने की चीज नहीं
          25 जुलाई 1857 को दानापुर की सात और आठ नम्बर की पलटन ने बगावत कर दी। आरा पहुँच कर सिपाहियों ने खजाना लूट लिया और जेलों से कैदियों को मुक्त कराने के बाद घेरा शुरू हुआ। बाबू कुँवर सिंह के पास दो पुरानी तोपें थीं। लेकिन समुचित गोला-बारूद के अभाव में वे उतनी कारगर नहीं रहीं। घेरे में घिरे हुए डॉक्टर हॉल का कथन है कि “सिख जो हमारे साथ थे, यदि वे भी धोखा दे देते तो उन्होंने हमारा नाश्ता बनाकर खा लिया होता।'' खेर विंसेट आयर के आने के बाद घेरा उठा लेना पड़ा। हालांकि दानापुर से कप्तान के नेतृत्व में 300 गोरे और 100 सिखों की एक सेना आरा मदद के लिए आ रही थी लेकिन रास्ते में ही कुँवर सिंह के सैनिकों ने एक आम के बाग में रात के समय घात लगाकर उनपर आक्रमण किया। नतीजा यह रहा कि लगभग 415 आदमियों में से सिर्फ 50 बचकर दानापुर पहुँच सके। कप्तान डनवर भी मारा गया।
          बीबीगंज में विसेंट आयर के तोपखाने और एनफील्ड राइफलों के समक्ष कुँवर सिंह और उनके बागी साथियों की बंदूकें नहीं टिक सकीं। यह लडाई 2 अगस्त की रात में लड़ी गई और दसरे दिन आरा को मुक्त कराने में अंग्रेज सेना सफल रही। हाल्स को फिर उद्दृत किया जाना जरूरी है, "इस सारे समय में आरा के अंग्रेज बंदी थे। कई इसाई और यूरोपीय परिवार कुँवर सिंह के कब्जे में रहे। वास्तव में हम यह नहीं जानते कि दुसरे बागियों न ने जो अत्याचार किये उनमें कुँवर सिंह भी कभी शामिल हुआ।" शाहाबाद की धरती के लिए गौरव की बात है कि तमाम विपरीतताओं और पराजयों के बीच हमारे सरदार ने धैर्य नहीं खोया। जीवन और मृत्यु के संघर्षों के बीच भी हम क्रूर नहीं हुए। एक सच्चा क्रांतिकारी और जनता के प्रति जवाबदेह शासक ही ऐसा संतुलन साध सकता है।
          बीबीगंज की लड़ाई में हारकर कुँवर सिंह ने दुने उत्साह से जगदीशपर में मोर्चाबंदी की।11 अगस्त 1857 को धोखे से कुंवर सिंह को यहाँ भी पीछे हटना पड़ा। आपसी मनमुटाव और अस्त्र-शस्त्रों की कमी वीर कुँवर सिंह की जीत के आडे गई। डुमराँव महाराज वख्श सिंह भी इसी यद्ध में अँग्रेजों की ओर से लड़ रहे थे। दुलौर नामक स्थान पर इस युद्ध के बाद जगदीशपुर गढ़ के साथ-साथ कुँवर सिंह के द्वारा बनवाए गए एक विशाल मंदिर को भी ध्वस्त कर दिया गया था।
           दुलौर की लड़ाई के बाद कुँवर सिंह और अमर सिंह सासाराम पहुँचे। 11 आगस्त 1857 से 17 अगस्त 1858 तक कुँवर सिंह एक उद्देश्य लिए पूर्वी एवं मध्य भारत के विभिन्न स्थानों पर घूमते रहे। इसी बीच अमर सिंह से उनका साथ भी छुटा। सासाराम में रामगढ़ से आने वाले विप्लवी सिपाहियों का एवं भागलपुर की 5 नं. की रेगुलर सेना की अंतहीन प्रतीक्षा के बाद कुँवर सिंह पश्चिम रीवा की तरफ अकेले ही प्रस्थान कर गए, जहाँ सरदार हम्मत अली और हरचन्द राय पहले से ही विद्रोह का विगुल बजे हुए थे। वहां के राजा से 100000 का खिराज वसूलने के बाद कुँवर सिंह बांदा गए। नान्य साहब के एजेंट शान्ति सुपे की सेना से गठजोड़ की इच्छा रखते हुए भी वहां के जमींदारों के प्रबल विरोध के चलते कुँवर सिंह को बांदा छोड़ना पड़ा। बांदा से ग्वालियर, ग्वालियर से 2000 सैनिकों के साथ अयोध्या और फिर वहां से लखनऊ होते हुए आजमगढ़ जाना भी सिद्ध हो जाता है।एताद्सम्बन्धी प्रचुर साक्ष्य दिल्ली के नेशनल आर्काइव्स में प्राप्त है। कालपी से ग्वालियर आते समय कुँवर सिंह के पौत्र विर्भंजन की मृत्यु हुई, कहा यह भी जाता है कि वह धर्मंन बीबी नाम की एक नर्तकी के प्रति अनुरक्त थे, उसकी भी मृत्यु वहीँ हुई।    
          इन यात्राओं ने कुँवर सिंह को एक प्रेरणा-पुरुष के रूप में स्थापित किया, जिन रास्तों से कुँवर सिंह गुजरते उन रास्तों की बागी चिनगारियाँ शोलों में तब्दील हो जाती थी। जबलपर की 52 नं० की सेना जोश एवं उत्तेजना में भर विद्रोह कर चुकी थी। 50 नं. की सेना भी उनसे आ मिली। कई बागी कुँवर सिंह से मिलते रहे। बिना वेतन के, न जाने कितने स्वयं सेवक क्रन्तिकारी भावना से ओत-प्रोत हो कुँवर सिंह के साथ हो लिए।
          आजमगढ़ में अतरौलिया नामक जगह पर कर्नल मिलमैन के विरुद्ध उन्होंने मोर्चा लिया। आजमगढ पर कब्जा तक किया। गाजीपुर और इलाहाबाद से लार्ड मार्क के नेतृत्व में अँग्रेजी सेना पहँची। कछ दिनों बाद एडवर्ड लुगार्ड भी पहुँच गया। फलत: कुँवर सिंह बिहार प्रान्त लौट गए। लेकिन इसके पहले 81 साल के इस वृद्ध ने अपनी शौर्यगाथा इतिहास के पन्नों पर लिख दी थी। कहा जाता है कि सफेद घोड़े पर सवार यह सरदार अंग्रेजी सेना के बीच तलवार लिए बिजली की तरह कौंध रहा था। तानू नदी पार करने की कूटनीति और उस समय के युद्ध कौशल की तारीफ इतिहासकार मैलेसन ने खुब की है। अलग-अलग सैन्य टुकड़ियाँ बनाकर डगलस को भी झांसा दिया और वापसी में गंगा पार करते समय र झूठी सूचना फैलाई कि कुँवर सिंह की सेना बलिया के निकट गंगा पार करेगी। जबकि हकीकत में सात मील नीचे शिवपुर घाट में कुँवर की सेना गंगा पार कर रही थी। पता चलते ही अँग्रेजी सेना ने पीछा किया तब तक लगभग पुरी सेना पार उतर चुकी थी, अंतिम कश्ती बची थी और इसी में कुंवर सिंह थे। कहते हैं नदी पार करने के दौरान ही अँग्रेज सैनिक की गोली कुंवर सिंह की बाँह में लगी। सुनने में आता है कि उस वृद्ध सरदार ने तत्क्षण अपनी तलवार से उस बांह को काटकर अंतिम भेंट के रूप में गंगा में प्रवाहित कर दिया। उस पार कुछ ही दूरी पर कुँवर सिंह की राजधानी जगदीशपुर थी जो आठ महीनों तक अँग्रेजों के कब्जे में रही। 22 अप्रैल को बाबू कुँवर सिंह ने फिर राजधानी में प्रवेश किया। अमर सिंह ने पहले से ही कुछ स्वयंसेवक तैयार कर रखे थे। उनकी सहायता से जगदीशपर पर पुन: कब्जा किया गया। ली ग्राण्ड के नेतृत्व में एक सेना आरा से चली। परंतु वृद्ध सरदार के रणकौशल के आगे उसकी एक न चली। 150 में से 100 सेनिक मारे गए और यही नहीं ली ग्राण्ड भी अन्य अफसरों के साथ मारा गया। ‘इण्डियन म्यूटिनी' नामक पुस्तक में चार्ल्स बाल उस दिन अंग्रेजों की पराजय याद करते हुए लिखता है, "जो कुछ हुआ, उसे लिखते हए लज्जा आती है। लड़ाई का मैदान छोड़ हमने जंगल में भागना शुरू किया। शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा। हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे। वे एक गन्दे छोटे से पोखर की ओर लपके। कुँवर सिंह के सिपाहियों ने वहाँ भी दबोचा। जिल्लत की कोई हद न रही....... चारों ओर आहों, कराहों और रुदन के सिवा कुछ भी नहीं था। दवा मिल सकना असम्भव था। अस्पतालों पर बाबू कुँवर सिंह का कब्जा था....... हम वहां केवल बध के लिए गए थे।" इतिहास लेखक ह्वाईट ने लिखा है कि "अंग्रेजों ने पूरी तरह और बहुत बुरी तरह हार खाई।"
          23 अप्रैल को 1858 ई० में विजयी बाबू कुँवर सिंह पुन: अपनी रियासत के मालिक बन बैठे। हालांकि 24 अप्रैल को या संभवतः 26 अप्रैल को उनकी मृत्यु भी हुई। मृत्यु के समय स्वाधीनता का हरा झंडा उनको राजधानी के ऊपर लहरा रहा था।
          बाबू कुँवर सिंह का व्यक्तिगत चरित्र अत्यंत पवित्र था। उनकी रियासत में कोई व्यक्ति खुलेआम तम्बाक नहीं पीता था कि कुँवर सिंह कहीं देख न ले। जनता उन्हें प्रेम करती थी और उन्हें सम्मान देती थी। युद्ध कौशल में वह अद्वितीय थे। आज भी शाहाबाद की जनता की स्मृतिओं में अपनी धरती के उस वीर सपूत को लेकर इतने लोकगीत एवं लोककथाएं प्रचलित हैं कि हैरत होती है। जीते जी उनके बारे में तमाम किवदंतियां एवं दंतकथाएं प्रचलित हो चुकी थीं। यह इतिहास में लोक का हस्तक्षेप है, और इसे जगह मिलनी ही चाहिए

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