'मानस' के राम !!
'श्रीरामचरितमानस' भारतीय लोकचित्त का संस्कर्ता भी है और संस्कार भी, आह्लादक भी है
और आह्लाद भी, लक्षण भी है और लक्ष्य भी। गत चार सौ वर्षों से सामान्य रूप से समग्र भारतीय और विशेष रूप से उत्तर भारतीय सामाजिक ढाँचे को गढ़ने में जितनी व्यापक भूमिका 'रामचरितमानस' ने निभायी है उतनी किसी अन्य ग्रन्थ, व्यक्ति, घटना, विश्वास अथवा परम्परा ने नहीं। सहृदय पाठक के लिये रामचरितमानस न केवल साहित्यिक महत्त्व का ग्रन्थ है अपितु उसके सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और लौकिक जीवन के लिये मार्गदर्शक भी है। भारतीय लोक-मानस पर इस ग्रन्थ का इतना प्रभाव है कि उसके भीतर रामचरितमानस, तुलसी और राम- ये तीनों संज्ञाएँ एकरूप होकर एक ही महाभाव को उद्बोधित करती हैं।
'श्रीरामचरितमानस' की साहित्यिक श्रेष्ठता के पीछे तुलसी की प्रबन्ध-पटुता और उनके अभिव्यक्ति-कौशल पर शब्द मनीषी भले ही नाना विधियों से विचारकर इस ग्रन्थ का प्रशंसात्मक विश्लेषण करें, किंतु यदि तुलसी की दृष्टि से इस ग्रन्थ को देखें तो यह कहना पड़ेगा कि श्रीराम ही तुलसी की प्रबन्ध-पटुता हैं, राम ही तुलसी के अभिव्यक्ति-कौशल हैं। राम ही कथ्य हैं, राम ही शिल्प हैं। राम ही तुलसी की प्रश्नाकुल जिज्ञासा हैं और राम ही तुलसी की जिज्ञासा की मधुर तृप्ति हैं। रामचरितमानस के प्रबन्ध विस्तार के मूल में यही जिज्ञासा है कि-
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही।
इस जिज्ञासा मूलक प्रश्न का समाधान भी स्वयं राम ही हैं-
जेहि महँ आदि मध्य अवसाना।
प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।
तुलसीदास का 'रामचरितमानस' वस्तुतः "एकपात्रीय प्रबन्ध-काव्य" है और वह एक पात्र हैं- राम। शेष पात्र तो रामकथा-विस्तार के आन्तरिक और बाह्य प्रसंगमात्र हैं और राम के चरित्र के उत्कर्ष प्रतिपादन में सहायक हैं। तुलसी ने 'रामचरितमानस' में राम के ब्रह्मरूप, महाविष्णु-रूप और मर्यादापुरुषोत्तम रूप में समंजस्व साधते हुए राम के नर रूप अर्थात् मर्यादापुरुषोत्तम रूप की ही कथा कही है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था के आदर्श तुलसी के यही मर्यादापुरुषोत्तम राम हैं, जिन्होंने अपने आचरण से मानवीय व्यवहार की उच्च मर्यादाएँ स्थापित की हैं।
भारतीय मानस में राम एक आदर्श नायक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे आदर्श पुत्र हैं, आदर्श भाई हैं, आदर्श सखा हैं, आदर्श पति हैं, आदर्श स्वामी और आदर्श राजा हैं। तुलसी के राम का सम्पूर्ण जीवन लोक-संग्रह के कर्म- सौन्दर्य से ओत-प्रोत है। लोक-संग्रह के नायक राजा राम प्रजारञ्जन के एक ऐसे प्रतिष्ठित प्रतीक बन चुके हैं कि आज के लोकतान्त्रिक भारतीय मन का लक्ष्य भी रामराज्य है। आखिर हो भी क्यों न? क्योंकि रामराज्य में सब प्रकार के कष्टों से मुक्त होकर सभी नर-नारी स्वधर्म का पालन करते हुए परस्पर प्रीतिपूर्वक रहते हैं-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्मनिरत श्रुति नीती॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥
वनप्रस्थान के समय राम को अपने कष्टों की चिन्ता नहीं है, किंतु प्रजाजन के सुख-सौख्य की चिन्ता उन्हें अवश्य है। इसलिये वे लक्ष्मण से अयोध्या में ही रहकर राज-काज देखने का आग्रह करते हैं और प्रजारञ्जन का कर्तव्य समझाते हुए कहते हैं-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नए अवसि नरक अधिकारी।
(रा०च०मा० २ । ७१ । ६)
राज्य अथवा शासन की ऐसी व्यवस्था ही आदर्श मानी जायगी जिसके अन्तर्गत नागरिक स्वयं राजा अथवा शासक द्वारा लिये गये अनुचित निर्णय या किये गये अनुचित व्यवहार एवं कार्यका बिना किसी भय के विरोध कर सकें। चौदह वर्ष के सुदीर्घ वनवास के उपरान्त जब राम का राज्याभिषेक होता है तो नागरिकों की सभा में राम-जैसा आदर्श शासक ही यह कह सकता है कि-
जी अनीति कछ भाषौं भाई। ती मोहि बरजह भय बिसराई।
राम की इस घोषणा के पीछे सच्चे हृदयकी वह निष्ठा है, जो अच्छी-से-अच्छी प्रजातान्त्रिक शासन-पद्धति के लिये भी आदर्श हो सकती है।
राम का रामत्व कथन के माध्यम से कम और आचरण के माध्यम से अधिक व्यक्त हुआ है। राम की पहचान ही यही है कि वे वाणी से जो संकल्प लेते हैं उसे कर्म में भी ढालते हैं। उनका कथन ही उनका संकल्प है। राम की कथनी और करनी, गुण और स्वभाव, दृढ़ता और कोमलता, क्रोध और क्षमाशीलता सभी अनुकरणीय हैं। उनके व्यक्तित्व में शील, शक्ति और सौन्दर्य का अनुपम सामंजस्य है। उनकी शक्ति और उनका सौन्दर्य दोनों उनके शील के अनुशासन में हैं। उनकी शक्ति शरणागत और दीनों की रक्षा के लिये तथा आततायी और अत्याचारियों के मान-मर्दन के लिये है। करोड़ों कामदेव को भी लजित करने वाला शील-समन्वित उनका मोहक सौन्दर्य सात्त्विकता की शीतल किरण से आलोकित है, जिसके दर्शन-मात्र से मन के विकार धुल जाते हैं। उनके शील का उत्कर्ष तब रमणीय हो उठता है जब चित्रकूट में आयी सभी माताओं में सबसे पहले सादर आगे बढ़कर वे माता कैकेयी के ही चरण-स्पर्श करते हैं-
प्रथम राम भेंटी कैकेई । सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरिखोरी॥
(रा० च० मा० २। २४४॥ ७-८)
'रामचरितमानस' में राम के प्रशस्त शील के अनन्त उदाहरण देखने को मिलेंगे। जिस राज्यपद के आकर्षण से बड़े- से-बड़े धैर्य धुरन्धर नहीं बच सके, उस राजसिंहासन को तिनके की भाँति छोड़कर चल दिये। न केवल उन्होंने स राज्य का ही त्याग किया, अपितु अपने पिता के वचन प्रतिष्ठा के लिये चौदह वर्षों के वनवास को भी सहर्ष स्वीकार किया। पितृ-वचन को पालना-हेतु राम का यह अनुपम त्याग मानवीय सदाचरण के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है।
राम की मर्यादा का विस्तार जीवन के सभी क्षेत्रों तक व्याप्त है। राम के आदर्श आचरण से वस्तुतः जगत के सभी रिश्ते-नातों को प्रतिष्ठा मिली है। बन्धु-प्रीति का कोई आदर्श सीखे तो राम से। वनगमन के समय राम की जो अटल दृढता गुरुजनों, माताओं, भरत-जैसे बन्धु और प्राणों से भी प्रिय प्रजाजन की आँसू भरी मनुहार से भी नहीं पिघली, वही दृढता लक्ष्मण को मृच्छित अवस्था में देखकर बन्धु-विछोह की आशंका मात्र से तप्त विहलता में पिघलकर बह निकली।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू । पिता बचन मनतेउँ नहिं ओह।
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥
अस बिचारि जियें जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।
(रा० च० मा० ६।६१ । ६–८)
लक्ष्मण के प्रति कहे गये राम के इन शब्दों से भ्रातृत्व भाव का नाता अनोखे माधुर्य से भर उठता है। राम के संसर्ग से मैत्री भाव भी महिमा-मण्डित हुआ है। सुग्रीव से कहे गये राम के इन वचनों में सच्चे मित्र की ऐसी कसौटी देखने को मिलती हैं जो हर काल, हर देश और हर स्थितिमें लागू होती हैं-
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज कर जाना । मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
जिन्ह के असि मति सहज न आई । ते सठ कत हठ करत मिताई ॥
(रा०च०मा० ४।७।१-३) ।
राम की शरणागति का फल भी अमोघ है। विभीषण द्वारा शरण ग्रहण किये जाने पर वे उसे लंकेश कहकर सम्बोधित करते हैं और लंका का राज्य देने का तत्क्षण संकल्प लेते हैं। राम की विनय-शीलता भी अनुपम हैं जिस स्वर्ण लंका को रावण ने दस वार अपना शीश चढाकर वरदान रूप में शिव स प्राप्त किया था, उसे मित्र विभीषण को देते समय तुच्छ भेट समझकर राम के मन में संकोच हो रहा है
जो संपति सिव
रावनहि दीन्हि दिएँ दस
माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि
सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥
(सुन्दरकाण्ड
४९
(ख))
संस्कृत
की एक
सूक्ति है- 'धर्मो रक्षति
रक्षितः’ धर्म क्या है? मर्यादित आचरण
ही धर्म है। मर्यादा का हननकर्ता कालान्तर में स्वयं तो
दुर्गति को प्राप्त होता ही है, स्वजनों के
विनाश का कारण भी बनता
है। राम-मर्यादा
रक्षक
हैं तो रावण मर्यादा-भंजक।
रावण अतिचारिता का साकार रूप है।
अतिचारिता चाहे स्वभाव
में हो
चाहे कर्म में, सर्वत्र निन्दनीय है।
सृष्टि की स्थिति का बीज मन्त्र है
मर्यादा और यही रामकथा का
केन्द्रीय भाव है। विश्व
के सभी
समुदाय अपने-अपने जातीय
संस्कार और आस्था-वैशिष्ट्य
के बावजूद
मर्यादा रक्षण के महाभाव की इस भारतीय
कर्म-कथा में अपने युग के
प्रश्नों का समाधान पा सकते
हैं। मर्यादा-पालन ही
दूसरे शब्दों में धर्माचरण है।
यही कारण है कि
व्यक्ति और समाज
के स्तर पर मर्यादा के इस लोकमङ्गलकारी विधान को
अपने कर्म-सौन्दर्य
से मूर्त
करने वाले श्रीराम मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं
और धर्म के मूर्तिमन्त विग्रह
हैं।
Comments
Post a Comment