पर्व, उत्सव, व्रत में रचा-बसा ‘नारी का संसार’ !!


संस्कार, आस्था एवं परम्पराओं से नारी का अटूट रिश्ता है। नारी चाहे कितनी ही क्यों ना पढ़-लिख जाय, ऊँचे पदों पर कार्यरत रहे, आधुनिक बन जाय, लेकिन उसका मन संस्कारों से हमेशा जुड़ा रहता है। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होते हुए भी वह अपने पुरातन रीति-रिवाजों, लोक-परम्पराओं और आदर्शो को नहीं भूलती है। अन्तर्मन में ममता, स्नेह, त्याग, करुणा एवं सहयोग के भावों को समेटे नारी को जीवन में पग-पग पर संघर्ष का सामना करना पड़ता है, फिर भी वह मुसकुरा कर हर कठिनाइयों में जूझती हुई अपने परिवार की सुख-समृद्धि, खुशहाली की हरदम कामना करती है। नारी के दिन की शुरुआत ही पूजा-पाठ, सूर्य देव को अर्घ्य देने एवं तुलसी के चौरे में जल चढ़ाने से होती है।
          पर्व, व्रत, उपवास, आराधना, पूजन नारी के जीवन से जुड़े पहलू हैं; जो उसे परिवार एवं समाज के साथ जोड़ते हुए आपसी रिश्तों को ताजगी एवं गरमाहट देते हैं—मजबूत बनाते हैं। नारियों को तीज, त्यौहार, उत्सव, पर्व के दिन का बेसब्री से इन्तजार रहता है और ये मांगलिक अवसर किसी विशेष लक्ष्य, उद्देश्य को लेकर ही बनाये गये हैं, जिनमें नारी के हर रूपों, सम्बन्ध को समाहित होते देखा जाता है। आज भी महिलाएँ व्रत-उपवास कर अपनी आस्था-श्रद्धा की परम्पराओं का निर्वाह करती हैं। व्रत, पर्व से उनका कोरी भावुकता का नाता नहीं है, बल्कि उसमें मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, पारिवारिक एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी कारण भी हैं। साथ ही प्रकृति से जुड़ी भावनाएँ भी हैं। समूची सृष्टि प्रकृति-नदी, तालाब, कुएँ वृक्ष, फूल, पौधे, धरती माता, माटी, दिशाएँ, सूर्य, चाँद, तारे, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के प्रति आस्था, श्रद्धा, पूजन की भावनाओं को अपने अन्तर्मन, आँचल में समेटे नारी का व्रत-संसार अनूठा है।
          श्रावण मास आते ही प्रति सोमवार को कुमारी लड़कियाँ जहाँ भोले बाबा को प्रसन्न करने के लिये व्रत, पूजन करती है, ताकि उन्हें मनचाहा वर मिल सके, वहीं विवाहित महिलाएँ अपने सौभाग्य को अखण्ड रखने के लिये सावन नाग पंचमी का पर्व नाग देवता को समर्पित करती हैं। श्रावण शुक्ल द्वितीया को तीज का सृंगार होता है। सावन तीज की तैयारियाँ जोरों से होती हैं। महिलाएँ हाथा में मेंहदी रचाती हैं। झूला झूलते हुए प्रकृति का स्वागत करते हुए गीत गाती हैं, नृत्य करती हैं। मनभावन सावन की ऋतु नारी की श्रृंगार-भावनाओं की अभिव्यक्ति को लेकर आती हैं। सावन पूर्णिमा को भाई-बहन के पुनीत प्यार का पर्व रक्षा बन्धन आपसी रिश्तों में प्रगाढता लाकर स्नेह को बढ़ाता है।
          भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी—गणेश चतुर्थी को महिलाएँ गजानन भगवान से परिवार की, बच्चों की, सुख-समृद्धि को कामना करती हैं। भाद्रपद की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष होता है। महिलाएँ अपने दिवंगत पितरों की तृप्ति के लिये भोजन तैयार कर श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों, परिवारजनों को खिलाकर सन्तुष्ट करती हैं। वहीं कुमारी कन्याएँ अपने पूर्वजों के स्वागत में देहलीज, आँगन में रंगोली सजाती हैं।
          आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को नवरात्र-स्थापना की जाती है। माता दुर्गा की आराधना का पर्व नारी मन को श्रद्धा एवं आस्था से भर देता है। नौ दिनों तक पूजा, जप, उपवासक साथ लड़कियाँ, महिलाएँ सोलह श्रृंगार कर नये रूप में देवी को प्रसन्न करने के लिये गरबा-नृत्य करती हैं। यह नवरात्र का त्यौहार आपसी एकता तथा सांस्कृतिक परम्परा को सहेजकर नारी के मन में ऊर्जा एवं नवचेतना का संचार करता है। समूचे वातावरण को भक्तिमय बना देता है।
करवा-चौथ सुहागिनों का प्रिय त्यौहार है। सुहागिनें अपने पति को दीर्घायु के लिये व्रत करती हैं। समर्पण, आस्था  एवं श्रद्धा के साथ सज-धज कर चन्द्र देव को अर्घ्य देते हुए पति का पूजन करके जल से पारण करती हैं, कार्तिक कृष्ण अष्टमी को अहोई अष्टमी का त्योहार होता हैं। इसमें पुत्रों की दीर्घायु के लिये चन्द्रमा और तारों का दर्शन कर व्रत किया जाता है।
          दीपावली का पर्व तो गृह-लक्ष्मी से ही जुड़ा है। लक्ष्मी को पूजन, दोप-पर्व का मंगल यौहर महिलाओं के लिये खास रहता है। घर को सफई से लेकर नये कपड़े, नये सामान, सजावट, लक्ष्मी-पूजन के साथ भैया दूज एवं अनकूट-पर्व महिलाएँ उत्साह से मनाती हैं। आँवला नवमी को महिलाएँ ऑवला पेड का पूजन कर उसके नीचे भोजन करती हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशी-देवोत्थान एकादशी से तो सब मंगल कार्य शुरू हो जाते हैं, बेटी-बेटे को शादी हो या गृह-प्रवेश महिलाएँ आँगन लीप कर गोलो सजाते हुए तुलसी-विवाह धुमधाम से करती हैं और कहती हैं देव-देव उठो, कुँवारिन का ब्याह हो।'

          बिहार की महिलाओं को कार्तिक माह की बहुत ही बेसब्री से प्रतीक्षा रहती है दीपावली के छह दिनों के बाद कार्तिक षष्ठी को आस्था का महापर्व छठ पूजा का आयोजन किया जाता है जो सीधे-सीधे प्रकृति के संरक्षण का पर्व है और इस महापर्व में प्रयोग की जाने वाली चीजें सीधे प्रकृति-प्रदात होती है इस महापर्व का आयोजन बिना महिलाओं के सक्रीय सहभागिता के बिना कल्पना से भी परे है कार्तिक पूर्णिमा के दिन भी आज भी लाखों की संख्या में शहरी-ग्रामीण दोनों ही वर्ग की महिलायें गंगा में स्नान करना अपना सौभाग्य समझती हैं पति के दीर्घायु होने की कामना के लिए जहाँ बिहार की महिलाएं तीज करती हैं वहीँ अपने जीवित पुत्र के स्वस्थ रहने एवं दीर्घायु होने के लिए खर जितिया जैसे पर्व में बड़े जी जोश-खरोश से शामिल होती हैं

          पौष मास मकर-संक्रान्ति का त्यौहार सुहागिनों के लिये दान-पुण्य करने एवं सुहाग-सामग्री प्रदान करने का मौका लाता है स्नान के बाद सुहागिनें तिल, कपड़े, चूड़ियाँ, बिन्दी दान करती हैं। बसन्त पंचमी का पर्व प्रकृति के स्वागत का पर्व है, पीले वस्त्र पहन कर माँ सरस्वती को आराधना भला किसे नहीं पुलकित नहीं कर जाती। वहीं मराठी महिला द्वारा हल्दी-कुमकुम कार्यक्रम उत्साह से मनाय जाता है।
          महाशिवरात्री का व्रत महिलाएँ अपने पति के दीर्घायु हेतु आराधना करती है। होलि का पर्व नारी-मन की सतरंगी इन्द्रधनुषी कल्पनाओं को साकार करता है एक-दूजे पर गुलाल उडेल कर मन सब गिले-शिकवे भूल जाता है। चैत्र शुक्ल अष्टमी को शीतलाष्टमी का व्रत किया जाता है और ठंढा एवं बासी खाना खाया जाता है। माता पूजा परिवार को चेचक के प्रकोप से बचने के लिये किया जाता है। धर्म एवं परम्पराओं से हुई आस्थाएँ-महिलाओं को प्रेरित करती हुई अपार शक्ति, उर्जा देती हैं। चैत्र–मास में  नवरात्री की धूम पुन: शुरू हो जाता है। भगवती दुर्गा आराधना और पूजा कर नारी मन श्रधा-सुमन अर्पित करते हुए देवी माँ अपने परिवारको सुख-समृद्धि को कामना करती है।
          चैत्र शुक्ल द्वितीया को गणगौर का सृंगार होता है। कुवारी कन्याएँ गौरी का दूर्वा से पूजन करती हैं। हाथों ने मेंहदी रचाकर श्रृंगार करती हैं। वहीं सुहागिनें सज-धजकर गणगौर का पूजन व्रत करती हैं। अपने अखण्ड सुहाग की कामना करते हुए सुहागिनें उत्साह से गणगौर के गीत गाते हुए पूजन करती हैं।
          महाराष्ट्र की महिलाएँ चैत्र शुक्ल तृतीया से वैशाख शुक्ल तृतीया तक हल्दी-रोरी का कार्यक्रम आयोजित कर सुहागिनों को सुहाग चिह्न भेंट करती हैं। स्त्रियाँ कविता में अपने पति का नाम लेती हई तुकबन्दी भी करती हैं, जिसे उखाणा कहते हैं। सुहागिनों के ये पर्व सामाजिक समरसता, एकता एवं में सौहार्दके पर्व हैं, जो आपसी रिश्तों को मजबूत बनाते हैं।
          वैशाख शुक्ल तृतीया को आखातीज पर्व में महिलाएँ ने अपने सुहाग की रक्षा, लम्बी उम्र की कामना करते हुए शिव-गौरी की पूजा करते हुए पानी के मटके, शक्कर से बनी चीजें, वस्त्र, सुहाग-चिह्न का दान करती हैं। वहीं बुन्देलखण्ड में बरगद के नीचे इकट्ठी होकर लड़कियाँ गो-गुड़ियों का विवाह रचाती। हैं। यह पर्व लड़कियों को सामाजिक जीवन की सीख देता है।
          सन्तानसातें, हलषष्ठी व्रत बच्चों की लम्बी उम्र एवं मंगल के लिये करने की परम्परा है। गणगौर, करवाचौथ की तरह ही हरतालिका व्रत भी महिलाएँ पति के दीघार्यु होने की कामना के साथ करती हैं। ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को वटसावित्री व्रत अखण्ड सुहाग की कामना के लिये किया जाता है।
          इस प्रकार उत्सवों, पर्वो में शामिल होकर महिलाएँ अपनी आस्था, एवं श्रद्धा के साथ स्नेह, प्यार, दया, करुणा और तप की अभिव्यक्ति करती हैं। पर्व, उत्सव धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं के साथ नारी-मन की भावनाओं, कल्पनाओं को प्रतिबिम्बित करते हैं। सांस्कृतिक एकता के ताने-बाने को समेटते हुए ये पर्व परिवार एवं समाज को आपस में जोड़ते हैं, नारी के व्यक्तित्व को नूतन स्वरूप प्रदान करते हैं। उत्सव, पर्व एवं व्रतके बिना नारी का अस्तित्व ही अधूरा हैं। जीवन को संयमित मर्यादित एवं अनशासित करने वाले ये उत्सव पर्व नव प्रणय, नव चेतना जाग्रत करते हुए नव-सृजनका संसार रचते हैं। नारी-जीवन का संसार पर्व, उत्सव, व्रतमें ही सम्पूर्ण होता है। एक माँ, बहन, पत्नी, भाभी, बेटी, बहके रिश्तों को सहेजते हैं। पर्व, उत्सव नारी को उसके कर्तव्य-बोध, जीवन मूल्य एवं आदर्शों की पहचान कराने में एक सशक्त कड़ी का काम करते हैं। हमारी सांस्कृतिक, पारम्परिक विरासत के प्रतीक व्रत, पर्व, उत्सव एक सेतु की भूमिका का निर्वाह करते हैं, जो पीढ़ी दर पीढी हस्तान्तरित होते रहते हैं।



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