हम या तो सिर्फ मित्र हो सकते हैं ......या फिर सच्चे दुश्मन !!
भारत पाकिस्तान के
बंटवारे का सच !!
‘है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं आज यह तुमको
सुनाता हूँ, भारत का रहने वाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ”। ये गीत जब हर
हिंदुस्तानी की जुबा पर होता है, मानो दुनिया को जीत लेने
का एक अलग ही जज्बा दिखता हो। यह गीत हमें आजादी के पूर्व ले जाता है, जब ब्रिटिश सरकार का इस देश में राज चलता था और बेबस
हिंदुस्तानी इन गोरों के अत्याचार से परेशान और लाचार थे। अगर हम सन 1947 के पूर्व की बात करें तो संपूर्ण देश एक क्रांति के लय में
था और उन सभी हिंदुस्तानियों का मकसद सिर्फ और सिर्फ देश को गोरे यानी ब्रिटिश
सरकार से आजादी दिला स्वतंत्र भारत का निर्माण करना था।
भारत को जहां ‘सोने की
चिड़िया’ और ‘भाई-चारे का देश’ कहा जाता था,
उसे ब्रिटिश
साम्राज्य नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। किंतु हर हिंदुस्तानी संयम और
धैर्य के साथ ही अच्छे समय का इंतजार में था,
आखिर 15 अगस्त 1947 को देश तो स्वतंत्र हो गया पर अंग्रेज जाते-जाते अपनी
छाप छोड़ते गए, अर्थात जहां देश की आजादी
में सभी संप्रदायों ने एडी-चोटी एक कर दी थी,
वैसे ही उन्हें
संप्रदाय के नाम पर बाँट दिया गया और तभी से शुरू हो गया साम्प्रदायिकता के जंग। गाय
काट कर जहाँ हिन्दुओं को ठेस पहुंचाया गया तो वहीँ सूअरों को काट कर मुसलमानों को।
एकता वाले देश में अखंडता पैदा शुरू हो गई और इस संघर्ष में हिंदुस्तान के दो
टुकड़े कर दिए गए तथा एक नए राष्ट्र पाकिस्तान का निर्माण हुआ।
इस दर्दनाक घटना का
जिम्मेवार जितनी अंग्रेजी हुकूमत थी, उतनी ही देश की कमान संभाले सियासती लोग भी
रहे। कुर्सी के लालच और निजी स्वार्थ ने हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर डाले एक
हिंदुस्तान तो दूसरा पाकिस्तान। हिंदुस्तान की कमान जहां पंडित नेहरू के हाथों में
थी वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान की ताज मोहम्मद अली जिन्ना ने संभालने का फैसला किया।
बंटवारे के 71 साल बीतने
के बाद यह यकीन करना मुश्किल है कि गांधी जी बंटवारे के बाद पाकिस्तान को ‘अलग हुए
भाई’ की तरह मानना चाहते थे, वहीं जिन्ना पाकिस्तान के
गवर्नर जनरल पद से रिटायर होने के बाद ‘भारत में अपनी बाकी ज़िंदगी' गुज़ारना चाहते थे। उपमहाद्वीप की ज़्यादातर जनसंख्या जैसे 94 फीसदी भारतीय और
95.5 फीसदी पाकिस्तानी ऐसे
हैं जिनका जन्म 1947 की आज़ादी के बाद हुआ। बावजूद इसके गुस्से और बंटवारे को लेकर दिए गए दोनों तरफ के
भाषणों ने बंटवारे की यादों को ज़ख्म बना दिया है। जबकि गांधी या जिन्ना के बयान
किसी को याद नहीं।
देश तो अंग्रेजी हुकूमत
से जीत हासिल कर ली किंतु इन बंटवारे का युद्ध विराम कहीं नहीं दिखता। 1948 का भारत-पाकिस्तान का प्रथम
जंग, 1965 का द्वितीय जंग,
1971 का तृतीय जंग और 1999 का चौथा युद्ध(कारगिल)
हमारी आजादी का यथार्थ दर्शाता है। ये मसला बदस्तूर जारी है और कब तक रहेगा, शायद हमारी अगली पीढ़ी भी नहीं जान सकती।
भारत के नज़रिए से पाकिस्तान
को सिर्फ एक पड़ोसी मुल्क की तरह स्वीकार करना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि भारत
की नज़र में हमेशा से पाकिस्तान उनसे अलग हुआ एक देश है। भारतीय हमेशा सोचते हैं
कि दोनों देशों के बीच की समानता को उकेरना दोनों देशों के लिए लाभदायक है। भारत
की यह सोच ही पाकिस्तान को और ज़्यादा डराती है। भारत का एक धर्मनिरपेक्ष देश के
रूप में विकास और पाकिस्तान के बराबर जनसंख्या में मुसलमानों का होना भी संदेह को
हवा देता है जिसकी वजह से दोनों देशों के बीच की खाई और गहरी हो जाती है और अलग
नज़र आने पर ज़ोर दिया जाने लगता है।
पाकिस्तानी विचारधारा के
दो मज़बूत स्तंभ इस्लाम और भारत विरोधी भावनाएं हैं जो वर्तमान पाकिस्तानी राज्य
और रणनीतिकारों को खुद को दिल्ली सल्तनत या फिर मुग़ल साम्राज्य के वंशज के तौर पर
दावा पेश करने को प्रेरित करती हैं। 1965 में संयुक्त राष्ट्र
सुरक्षा परिषद में विदेश मंत्री के तौर पर जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारतीय नेताओं
पर पाकिस्तान को ‘दुश्मन नंबर एक’ बताकर इसे भारत की सांप्रदायिक नीति का केंद्र बिंदु बताया
था। उस समय सभी देशों के प्रतिनिधि भौंचक्के रह गए थे जब उन्होंने कहा था, ‘सात सौ साल से हमने दो प्रमुख समुदायों के बीच संतुलन बनाने
की कोशिश की है,’ गौरतलब है कि तब
पाकिस्तान को वजूद में आए सिर्फ 18 साल हुए थे।
इतिहास की इस ग़लत पेशकश
को सही करने बजाए कुछ भारतीयों ने इस आग में घी डाल दिया। इस प्रक्रिया में भारत
में पाकिस्तान द्वारा भारतीय संप्रभुता के टुकड़े–टुकड़े करने का
संदेह जन्म लेने लगा। नेहरू के रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने एक बार ब्रिटिश
पत्रकार को बताया था, “पाकिस्तान के दृष्टिकोण
से बंटवारा तो सिर्फ आगाज़ था, उसका मकसद तो पूरे भारत
पर कब्ज़ा कर लेना था।’ कृष्णा मेनन ने दावा किया
कि वह पाकिस्तानी दिमाग को अच्छी तरह पढ़ सकते हैं और कहा, ‘ब्रिटिश ने मुग़लों से भारत की कमान ली थी और पाकिस्तानी यह
मानते हैं कि अब जब ब्रिटिश जा चुके हैं तो फिर से मुग़लों का राज वापस आना चाहिए।’ भारत एक एकीकृत राज्य
नहीं बन सकता, इस तरह के पाकिस्तानी
सैन्य अधिकारियों के बयानों ने इस दहशत और संदेह को और बढ़ा दिया।
पाकिस्तान को लेकर भारत
के इस कटु दृष्टिकोण को भारत के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश सचिव
जे.एन. दीक्षित के इस बयान से समझा जा सकता है: ‘ब्रिटेन ने भारत
का बंटवारा इसलिए किया क्योंकि वह चाहता था कि हिंदू क्षेत्रों को राजनैतिक वजूदों
में बांटकर बिखरा दिया जाए जिससे पाकिस्तान इस महाद्वीप की सबसे बड़ी और सबसे
महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत के रूप में उभर सके। पाकिस्तान का सबसे महत्वपूर्ण
लक्ष्य भारत के टुकड़े–टुकड़े करना है। कश्मीर
में 1948 में हुआ पाकिस्तानी
आक्रमण और तब से लगातार कई युद्ध इस प्रक्रिया के उदाहरण हैं।'
कारगिल युद्ध और जम्मू–कश्मीर में चल रहा पाकिस्तान समर्थित छद्म युद्ध इसी दबाव
और प्रक्रिया की सबसे नई बानगी है। पाकिस्तान के इस विनाशकारी दृष्टिकोण को लेकर
भारत कभी भी निर्णायक और कठोर कदम नहीं उठा सका है। भारत ने हमेशा से हर बड़े
युद्ध में जीत के बावजूद स्वेच्छा से पाकिस्तान को रियायतों पर रियायतें दीं।
पाकिस्तान का दूरगामी रणनैतिक लक्ष्य दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत को सबसे
प्रभावशाली शक्ति के रूप में ना उभरने देना है। जम्मू–कश्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर की
अलगाववादी हिंसा और विद्रोही ताकतों को पाकिस्तान का दिया गया समर्थन इस बात की पुष्टि
करता है।’
पाकिस्तान अपना वजूद भारत
विरोध में देखता है। यही कारण है कि पाकिस्तान में बड़ी सेना का बोझ अर्थव्यवस्था
से कहीं ज़्यादा है। पाकिस्तानियों ने सदियों पुराने ऐतिहासिक हिंदू-मुस्लिम
वैमनस्य की दास्तान को कुछ इस तरह ईज़ाद किया है जिससे दोनों समुदाय एक दूसरे को
कभी ना मिल सकने वाले दुश्मनों की तरह नज़र आते हैं। कश्मीर विवाद आतंकवाद और
परमाणु शस्त्रों ने उपमहाद्वीप की इस वैमनस्यता को और गहरा कर दिया है।
पाकिस्तानी सत्ता
केंद्रों में भारत की हिंदू बहुसंख्यक नागरिक सोसायटी के खिलाफ़ ज़बरदस्त वैमनस्य
भाव है। पाकिस्तान ने बहुत से मुस्लिम देशों और पश्चिमी ताकतों (चीन और अमेरिका)
का सहारा सिर्फ इसलिए लिया क्योंकि भारत को बैकफुट पर रख सके। भारतीय
धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और संवैधानिक
संस्थाओं पर जो सवाल लगातार पाकिस्तान उठाता है वह उसकी एक सोची समझी रणनीति है
जिससे भारतीय समाज में अंदरूनी दरारें पड़ सकें।
इस्लामाबाद विश्वविद्यालय़
में बांग्लादेश की हार के बाद 1973 में ‘इतिहास और संस्कृति’ पर कांफ्रेंस आयोजित
हुई, इस कांफ्रेंस की रिपोर्ट “द क्वेस्ट फार आइडेंटिटी” के नाम से प्रकाशित की गई। पाकिस्तान के प्रमुख शिक्षाविद
वहीद–उज़–ज़मां ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा था, ‘अल्लाह ना करे अगर अरब,
तुर्क, ईरानी इस्लाम छोड़ दें तो अरब अरबी रहेगा, तुर्क तुर्की, ईरान का बाशिंदा ईरानी
लेकिन अगर हमने इस्लाम छोड़ दिया तो हम क्या होंगे?’ पाकिस्तान के
संशय को दर्शाने के लिए एक तथाकथित उदार पाकिस्तानी अधिकारी का 1980 में अमेरिकी रिपोर्टर को दिया गया यह बयान काफी है जिसमें
उसने कहा था, ‘अगर हम मुसलमान नहीं हैं, तो क्या हैं, सिर्फ एक दोयम दर्जे के
भारतीय?’ भारतीय ना होने की चाहत
का इतिहास बहुत पुराना है।
ब्रिटिश भारत से निकले इन
दोनों स्वतंत्र उपनिवेशों के बीच दोस्ताना रिश्तों के अपने वादे की हिफाज़त जिन्ना
ने लगातार मरते दम तक की। उन्हें बंटवारे के दौरान होने वाली हिंसा का अंदाज़ा
नहीं था, जिसको ऑल इंडिया मुस्लिम
लीग, हिंदू महासभा और अकाली दल
की बयानबाज़ियों ने भड़काया था। अपने करियर की शुरुआती दौर में 1917 के दौरान ही
उन्हें सरोजिनी नायडू ने ‘हिंदू-मुस्लिम
एकता का दूत’ कहा था।
पाकिस्तान की स्थापना का
उनका फैसला सांप्रदायिक आधार पर नहीं हुआ था, कम से कम उनका यही कहना था। एक राजनेता और एक वकील के तौर
पर जिन्ना मुद्दों पर विचार करने के दौरान शांत, संयत और तटस्थ भाव रखने के लिए जाने जाते थे। एक बार जब
उन्होंने द्विराष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार कर लिया (वो विचार जिसके मुताबिक भारत
के मुसलमान अपने धर्म, संस्कृति और
ऐतिहासिक प्रभावों के चलते हिंदुओं से अलग एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं) तो फिर जिन्ना
ने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से पाकिस्तान को अस्तित्व में लाने का करिश्मा कर दिया।
जैसा कि उनके जीवनीकार स्टेनली वोलपर्ट ने लिखा हैः ‘बहुत कम ऐसे इंसान होते
हैं जो इतिहास का रुख बड़े अहम अंदाज़ में बदल देते हैं। बेहद चुनिंदा लोग ही
दुनिया के नक्शे में तब्दीली ला पाते हैं। कभी कभार ही किसी को एक देश बनाने का
श्रेय दिया जा सकता है। मुहम्मद अली जिन्ना ने ये तीनों काम कर दिखाए।’
सांप्रदायिक रस्साकशी के
बीच जब जिन्ना पाकिस्तान की स्थापना करने में कामयाब हो गए तो उन्हें एहसास हुआ कि
यह हमेशा के लिए धार्मिक तनाव से जूझता हुआ देश बनकर नहीं रह सकता। उन्होंने
पाकिस्तान को धार्मिक राष्ट्र बनाने की बजाय धर्मनिपरेक्षता को इसके लिए उपयुक्त
माना।
पाकिस्तान बनने के महज
सात महीने के भीतर पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना और इस नए मुल्क के
अमेरिकी राजदूत पॉल एलिंग कराची से कुछ मील की दूरी पर अरब सागर के किनारे अपने
जज़्बात बयान करते हुए कहा कि, ‘उनके लिए इससे
बढ़कर कोई खुशी की बात नहीं हो सकती थी कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच करीबी
रिश्ते हों। जिन्ना ने कहा कि उनकी यही इच्छा थी कि भारत और पाकिस्तान के बीच वैसा
ही सहयोग रहे जैसा अमेरिका और कनाडा के बीच रहता है।’ जिसमें दोनों पड़ोसियों
के बीच मोटे तौर पर बिना पहरे वाली सीमा होती, साझा सैन्यबल होता, मुक्त व्यापार होता और तमाम रास्तों के ज़रिए एक दूसरे के
इलाके में दाखिल होने की आज़ादी होती।
जिन्ना इस बात के लिए भी
इच्छुक थे कि भारत और पाकिस्तान लगातार एक दूसरे के खिलाफ लड़ते न रहें। इसीलिए
उन्होंने रिश्तों के कनाडा और अमेरिका जैसे होने की ख्वाहिश का एलान किया था।
जिन्ना ऐसा ख्याल नहीं रखते थे कि पाकिस्तान और भारत के बीच हमेशा दुश्मनी रहे ये
इस बात से भी बयां होता है कि उन्होंने पाकिस्तान के गवर्नर जनरल के पद से रिटायर
होने के बाद मुंबई के अपने पैतृक घर पर लौटने की इच्छा भी जताई थी।
गांधी जी भी दोनों देशों
के बीच अच्छे संबंधों के लिए कोई कम उत्साहित नहीं थे, वो मानते थे कि नया देश ‘दो भाइयों के बीच हुए
सहमति से हुए बंटवारे’ से पैदा हुआ था।
जिन्ना के ठीक उलट गांधी बंटवारे के सख्त विरोधी थे और उनका कहना था कि 'अलग-अलग
मज़हब से अलग राष्ट्र नहीं बनते'। लेकिन एक बार जब बंटवारा हो गया तो गांधी जी ने भारत
और पाकिस्तान के एक दूसरे के ‘चिरस्थायी दुश्मन’ बन जाने के प्रति आगाह
किया था। गांधी जी ने चेतावनी दी थी कि दोनों आज़ाद मुल्क़ों को ‘दोस्त की तरह रहना होगा
नहीं तो वो खत्म हो जाएंगे’।
71 वर्ष और चार युद्धों
के बाद जिन्ना और गांधी के ख्वाब धुंधले पड़ गए हैं। जब दोनों देश एक दूसरे के
खिलाफ सीधे तौर पर कोई गड़बड़ी नहीं करते हैं तब दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश एक
दूसरे से शीत युद्ध में लगे रहते हैं। दोनों देशों के नेता मौके-बेमौके मुलाकात
करते रहते हैं,
आमतौर पर ये
मुलाकातें किसी अंतरराष्ट्रीय बैठक के मौके पर होती है और इसमें आधिकारिक स्तर पर
बातचीत को फिर से शुरू करने का ऐलान होता है। महज कुछ दिनों के भीतर भारत में एक
आतंकवादी हमला होता है जिसके तार पाकिस्तान में मौजूद जिहादी गुटों से जुड़े होते
हैं, यह आपसी बातचीत के इस
माहौल को खत्म कर देता है, या फिर
जम्मू-कश्मीर से लगी लाइन ऑफ कंट्रोल पर युद्धविराम के उल्लंघन के आरोप लगने लगते
हैं।
दशकों तक पाकिस्तान ने
भारत के ऊपर उसकी धरती पर नस्ली अलगाववाद को बढ़ावा देने के आरोप लगाए, जबकि भारत पाकिस्तान के
ऊपर उसके इलाके में और दूसरी जगहों पर भी आतंकवाद को शह देने के इल्ज़ाम लगाता आया
है। भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत अक्सर पटरी से उतर जाती है, और फिर बड़े जोर-शोर के
साथ फिर शुरू होती है, सिर्फ़ तब तक के
लिए जब तक आतंकवादी हमले, आरोप-प्रत्यारोप
और बातचीत के रोकने और शुरू होने का अगला दौर न आ जाए। भले ही इस लफ़्ज़ का
इस्तेमाल हम न करना चाहें लेकिन ज़्यादातर पाकिस्तानी और भारतीय एक दूसरे को
दुश्मन के तौर पर ही देखते हैं न कि हालात के चलते जुदा हुए दो भाइयों के तौर पर।
ब्रिटिश भारत के विभाजन
से पैदा हुए ये दोनों देश एक दूसरे के साथ परस्पर सौहार्द के साथ अभी भी रहने में
सक्षम हैं लेकिन इसके आसार बड़े कम नज़र आते हैं, कम से कम इस वक्त। सात दशकों के अलगाव ने कई मुद्दे पैदा और
ऐसा माहौल पैदा किया है कि बहुत से लोगों के लिए शायद बीती हुई सदियों की एकता को
याद करना भी मुश्किल हो गया है। लेकिन आखिर ये दुश्मनी क्यों? और इसके लिए किसे
कुसूरवार माना जाए लेकिन इसे और जटिल बना
दिया है भारत के प्रति पाकिस्तान की बेतुकी सनक ने।
पाकिस्तान को लेकर जिन्ना
के आशावादी रवैए को भारत में लोगों ने समझा हो ऐसा ज़रूरी नहीं था। कांग्रेस ने
विभाजन का ज़बरदस्त विरोध किया था। यहां तक कि ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के उस
प्रस्ताव में भी,
जिसमें माउंटबेटन
के 3 जून 1947 के विभाजन के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी गई थी, इसे सिर्फ़ एक अस्थायी
समाधान बताया गया था। इसमें ये उम्मीद जताई गई थी कि एक बार जब नफरत की आंधी थम
जाएगी तो भारत-पाकिस्तान की समस्याओं को सही नज़रिए से देखा जाएगा और फिर द्विराष्ट्र
का ये झूठा सिद्धांत हर किसी के द्वारा अस्वीकार कर दिया जाएगा।
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