‘डेमोक्रेसिया’ असगर वजाहत


बदलते लोकतंत्र को परिभाषित करती कहानियां
डेमोक्रेसिया  असगर वजाहत


पुस्तक समीक्षा....................... 
प्रसिद्ध साहित्यकार असगर वजाहत का कहानी-संग्रह 'डेमोक्रेसिया' लोकतंत्र की तमाम समस्याओं का विश्लेषण करते हुए बुद्धिजीवियों और पाठकों का ध्यान खींचने वाला संग्रह है। उनके आसपास घटने वाली घटनाएं लेखक के मन को बेचैन कर देती हैं। यदि लोक इन पक्तियों से वाकिफ नहीं होता है, तो साहित्य में समस्या केवल कल्पना बनकर रह जाती है। लेखक की सार्थकता इसमें है कि लेखक को काल्पनिक और मनोरंजक बनाने के बजाय, समाज की उस समस्या को उठाया जाए जिनसे राष्ट्र जूझ रहा है। असगर वजाहत वर्तमान और भविष्य में होने वाली घटनाओं और चुनौतियों से वाकिफ़ रहने वाले कथाकार हैं। साहित्य में समस्याओं को उठाना कोई आसान काम नहीं है। इन समस्याओं पर लिखना लेखक के लिए कठिन होता जा रहा है। असग़र वजाहत इस संग्रह की भूमिका में लिखते हैं, मेरे लिए कहानी लिखना लगातार कठिन होता जा रहा है। आज आस-पास बिखरे जीवन पर कुछ लिखता हूं तो लगता है अख़बारी लेखन हो रहा है। दूसरी जीवन को में विशुद्ध तरफ उस कहानी भी नहीं बनाना चाहता। इस तरह अख़बारी लेखन और कहानी के बीच का लेखन मेरे लिए चुनौती है।” (पृ.. 10)
          इस संकलन में कुल 18 कहानियां हैं। इनमें ‘ड्रेन में रहने वाली लड़कियां, 'तमाशे में डूबा देश, ‘खेल का बूढ़ा मैदान, 'दो पहिए वाले रिक्शे’, ‘मैं और पदम श्री', 'पढ़ोगे लिखोगे तो होगे नवाब, ‘आत्मघाती कहानियां’, 'सदन में चोर, यहां से देश को देखो’, 'कत्लेआम का मेला, मुख्यमंत्री और डेमोक्रेसिया, ‘ताजमहल की बुनियाद, और ‘सूफ़ी का जूता आदि महत्वपूर्ण कहानियां हैं। इस संग्रह की पहली कहानी ‘ड्रेन में रहने वाली लड़कियां, पुरुष प्रधान मानसिकता को उजागर करते हुए स्त्री समस्या को उठाती है। इस कहानी की केंद्रीय चिंता है, ‘संसार से लड़कियां गायब हो गई हैं। पूरी दुनिया में अब कोई लड़की नहीं है। यह विचित्र स्थिति पैदा कैसे हुई?” (पृ.17) इस कहानी की पात्रा सरला अपनी बेटी को पैदा होते ही मार देती है और खुद भी मर जाती है। सरला यह नहीं चाहती कि जो उसने इस क्रूर समाज में सहा है, उसकी बेटी भी उन्हीं समस्याओं से गुजरे। लेखक ने यह बताना चाहा है कि यह समाज लड़कियों के लिए ड्रेन है। आप कब संसार में रहने वाले आदमियों, तुम्हारे पास और कुछ हो या न हो, पुरुषत्व नहीं है जबकि ‘ड्रेन’’ में रहने वाली लड़कियां लड़कियां हैं, पर उनके पास पुरुषत्व है।’ (पृ. 21)
          'तमाशे में डूबा देश' कहानी शासन और मीडिया की विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती है। मीडिया हमारे देश का चौथा स्तंभ है। लेकिन उसका आम-जन की समस्याओं से कुछ लेना-देना नहीं है। इस कहानी में अपने पति की तलाश में भटकती औरत की कोई नहीं सुनता है और दूसरी तरफ खोये हुए कुत्तों को ढूंढने में प्रशासन और मीडिया अपनी पूरी ताकत लगा देता है। मीडिया के लिए ख़बर से ज्यादा महत्वपूर्ण विज्ञापन होते हैं। ‘सत्यकाम बोलो, 'ओ माई गॉड.....तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा? अरे हमारे चैनल पर 'ऐड' आते हैं। विज्ञापन समझी।” (पृ. 30) रतन और बेबी जो पालतू कुत्ते हैं। इनके अपहरण की खबर मीडिया के लिए महत्वपूर्ण है। औरत के पति की तरफ ने कोई ध्यान नहीं देता औरत ने सिर कटी लाश पहचान ली थी। यह उसका पति ही था, औरत  रो रही थी, पर मौज, मस्ती, आनंद, उल्लास, जश्न, गीत-संगीत के माहौल में उसकी आवाज कोई नहीं सुन रहा था।” (पृ. 30)
          इस संकलन की तीसरी कहानी ‘खेल का बूढ़ा मैदान गुस्से में है' इस कहानी को लेखक ने डायरी शैली में लिखा है। देश में कुछ भी व्यवस्थित नहीं चल रहा है, "खेल का बूढ़ा मैदान दिल ही दिल में हंस रहा था। विकेट लगाए बिना खेल कैसे हो सकता है? लेकिन खेल शुरू हो गया है। संसार में पहली बार बिना विकेट लगाए क्रिकेट खेला जा रहा है। (पृ.. 31) यहां बिना विकेट के खेलने वाले कौन हैं? देश आतंकवाद, सांप्रदायिकता आदि समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं का कोई निराकरण दिखाई नहीं देता है। "लोगों ने देखा कि कंकाल उठकर खड़े हो गए। बिना सिर वाले बॉलिंग करने लगे, बिना हाथ वाले बैटिंग करने लगे।( पृ.. 33)
          दो पहिया वाले रिक्शे में आम आदमी की पीड़ा को उजागर किया गया है। देश के गरीब और लाचार कहे जाने वाले वर्ग की समस्या पर कोई विचार-विमर्श नहीं किया जाता है। “मैं दिन भर रिक्शे पर चढ़ा इधर-उधर आता-जाता रहता हूं लेकिन बाद में मेरे ऊपर रिक्शे वाला चढ़ जाता है और उसे उठाए-उठाए संसद, सर्वोच्च न्यायालय, प्रधानमंत्री सचिवालय के चक्कर लगाता रहता हूं। (पू. 40) किसान, गरीब मजदूर की समस्या की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है। इस कहानी में लेखक की यही चिंता है। लेखक ने समस्या से लगातार जूझते हुए रिक्शे के दर्द और पीड़ा को उजागर करते हुए कहानीकार लिखता है, ‘‘हां ! हम तुम्हें जानते हैं....दिन में आदमी नज़र आते हो और रात में रिक्शा बन जाते हो......रिक्शे सवाल नहीं पूछते सिर्फ चलते हैं।” (पृ. 46)
          वर्तमान समय में आतंकवाद विश्व की एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है। इसके चलते लोगों के जीवन पर संकट है। आत्मघाती कहानियों में मानव जीवन की पीड़ा और दर्द को उजागर किया गया है। इस कहानी की शुरुआत असग़र वजाहत इन शब्दों में करते हैं, ‘एक आदमी ने दूसरे के पेट में चाकू मार दिया और फिर बोला ‘ये चाकू, तू भी किसी के मार देना।’ दूसरे आदमी ने चाकू लिया और तीसरे आदमी के पेट में भोंक दिया। (पृ. 65) देश जिन हालातों से जूझ रहा है उसका यथार्थ वर्णन करते हुए कहानीकार लिखता है-
          "अब पूरे देश के पेट में चाकू का घाव है और हर आदमी के हाथ में एक-एक चाकू है। जो एक-दूसरे के पेट में घोंप रहे हैं। उनको कोई रोकने की कोशिश करता है तो कहते हैं "ये हमारी आस्था का सवाल है। हमें मत रोको। हमारी भावनाएं आहत होती है।" (पृ. 65) धार्मिक कट्टरता इतनी बढ़ गई है कि मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं रह गया। इसके चलते आम नागरिक का जीवन दूभर है । आत्मघाती नियों में देश का सबसे बड़ा सच उभर कर आया है। ‘बताया जाता है कि शांति देवी की मूर्ति स्थापित होने के बाद इतनी जोर से फटी कि पूरा शहर हिल गया। कई मोहल्ले उड़ गए। शांति देवी की मूर्ति आत्मघाती आतंकवादीथा।" (पृ. 67)
          राजनीतिकरण के चलते हुए आज देश को कई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। ‘मुख्यमंत्री और डेमोक्रेसिया' कहानी में राजतंत्र की कमियों की तरफ इशारा किया गया है। राजनीति और राजनेताओं की स्वार्थपरता के चलते देश की जनता गर्त में जा रही है। यहां केवल वोट और वोट के लिए राजनीति होती है। फिर मुख्यमंत्री बोले, "जाइए उनका खाइए जिन्हें वोट देते हैं....अरे ये तो डेमोक्रेसिया है भइया।' (पृ. 106) 'नो रेड लाइन इन इंडिया' कहानी में कारपोरेट जगत की क्रूर व्यवस्था का चेहरा है तो ‘सूफी का जूता' कहानी में, मीडिया और कारपोरेट के व्यवसायीकरण को खुलकर उजागर किया गया है। देश के सबसे महंगे ड्रेस डिजाइनर ने सूफी कास्ट्यूम डिजाइन किया। चार कारपोरेशनों ने गुडविल फडिंग की। एक एयरलाइन ने कहा कि अब उनकी एयरलाइन की एयर होस्टेस अगले महीने से सूफी ड्रेस में होंगी (पृ. 137)।
विज्ञापन कारपोरेशन के चलते प्रत्येक वस्तु का व्यवसायीकरण हो गया। विज्ञापन कंपनियों ने स्त्री से लेकर हर वस्तु पर अपना कब्ज़ा किया है। बहुत खोजने के बाद एक सूफी मिला जो विज्ञापन एजेंसी वालों से बचने के लिए डाकू बन गया था।" (पृ. 135) इस कहानी-संग्रह में लेखक ने अपनी शैली का निर्माण किया है। कुल मिलाकर इस कहानी-संग्रह में बदलते लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कई समस्याओं को उजागर किया है, जो सोचने के लिए बाध्य करता है।
..............................‘डेमोक्रेसिया’ --- असग़र वजाहत

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  1. आवश्यक सूचना :
    अक्षय गौरव त्रैमासिक ई-पत्रिका के प्रथम आगामी अंक ( जनवरी-मार्च 2019 ) हेतु हम सभी रचनाकारों से हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। 15 फरवरी 2019 तक रचनाएँ हमें प्रेषित की जा सकती हैं। रचनाएँ नीचे दिए गये ई-मेल पर प्रेषित करें- editor.akshayagaurav@gmail.com
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