वैशाली
अतीत
के गौरवशाली
वैशाली लुप्त प्राय हो गई थी। सर्वप्रथम
1834 में श्री स्टिवेन्शन
ने
वैशाली की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कराना चाहा। डॉ कनिंघम ने 1881 ई में बसाढ क्षेत्र की खुदाई शुरू कराई और उन्होंने सिद्ध किया कि बसाढ क्षेत्र ही प्राचीन गौरवशाली वैशाली रही
है। सन 1903-04 में डॉ ब्लाश और सन
1913-14 में डॉ स्नूपर ने इस क्षेत्र की खुदाई करवाई। आजादी के बाद यहां की खुदाई
पुरातत्व विभाग द्वारा की गई।
खुदाई
से प्राप्त के मिट्टी के बर्तन,
मूर्तियां, ईट, मुहरों के आधार पर इतिहासकारों
ने बताया कि यह क्षेत्र 500 ई पूर्व में भी परिसंपन्न था। यहां की खुदाई से प्राप्त अनमोल
रत्नों से गुप्तकाल और काल की भी पहचान की गई है।
पवित्र
गंगा
नदी के उत्तर में स्थित है वर्तमान वैशाली जिला। यह क्षेत्र कभी गणतान्त्रिक शासन व्यवस्था के लिए विख्यात रहा है। तथागत ने इस शासन व्यवस्था
के आधार पर ही बौद्ध संघ की स्थापना की थी। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर का जन्म वैशाली के ही कुंड ग्राम में हुआ था। बौद्ध साहित्य के त्रिपिटक
में उल्लेख किया गया है कि भगवान बुद्ध जब
वैशाली की अंतिम यात्रा करते हुए कुशिनारा की तरफ प्रस्थान कर रहे थे तब उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा था- “आंनद, वैशाली रमणीय
है उसका गौतमय चैत्य रमणीय है, चापाल चैत्य रमणीय है, बहुपुत्रक चैत्य रमणीय है, सारनदद
चैत्य
रमणीय है।“
वैशाली के
नामकरण के संबंध में अनेक बातें कही जाती है। एक मत है कि प्राचीन काल में
यह स्थान बसाढ़ का गढ़ कहलाता था। इक्ष्वाकु वंश के 9 राजाओं
का यहां शासन रहा है। उन्हीं 9 राजाओं
में एक था राजा विशाल। इसी के नाम पर यह स्थान “विशालापुरी” अथवा विशाल का गढ़ कहलाने लगा। दूसरे विद्वानों का मत है कि इस स्थान को तीन बार विशाल बनाने का प्रयास किया गया जिसके कारण यह वैशाली कहा जाने लगा।
वाल्मीकि रामायण में उल्लेख आया है कि सीता स्वयंवर में जनकपुर जाते हुए राम,लक्ष्मण एवं विश्वामित्र
एक रात यहाँ ठहरे थे। वहीं विश्वामित्र ने राम को वैशाली की गौरव-गाथा सुनाते
हुए कहा था-'हे राम यह वही भूमि
है जहाँ देवता और दैत्यों ने मिलकर, समुद्र-मंथन की योजना बनाई थी। यह वही स्थल है जहाँ इन्द्र ने निवास किया था। यहीं परम धार्मिक इक्ष्वाकु के वंशज विशाल ने
अपनी राजधानी बनायी थी।"
तथागत को वैशाली बहुत
प्रिय थी। बोध गया अर्थात् उरुवेला प्रस्थान करते हुए वे वैशाली से होकर गुजरे थे। यहाँ के कुटागारशाला में उनकी पवित्र वाणी गूंजी थी। विनय संबंधी अनेक नियमों का निर्धारण उन्होंने यहीं किया
था। भिक्षुणी संघ की स्थापना की।
प्राचीन काल में वैशाली एक शक्तिशाली और समृद्ध साम्राज्य था। सुरक्षा की दृष्टि से यह क्षेत्र तीन मोटी
दीवारों से घिरा था जिनके बीच में अनगिनत अट्टालिकाएँ
और सरोवर थे। सरोवर कमल पुष्पों से भरा रहता था। मंगल अभिषेक पुष्करणी एक ऐसा पवित्र सरोवर था जिसके जल से राजाओं का अभिषेक किया जाता था। पशु-पक्षियों एवं अन्य दूसरे नागरिकों द्वारा
इस पवित्र सरोवर का जल दूषित न हो, इसके लिए सरोवर के ऊपर लोहे की जाली लगी होती थी।
पवित्र
गंगा का आधा भाग मगध के हिस्से का था और दूसरा आधा भाग वैशाली को हिस्से था। नदी तट से जाने
वाले विदेशी व्यापारियों
का लाभ जितना वैशाली के नागरिकों को मिलता था, उतना मगध के व्यापारी नहीं ले पाते थे। इसका
प्रमुख कारण था प्राचीन
मगध की राजधानी राजद में होना और प्राचीन जनपद कज्जी की राजधानी वैशाली का गंगा के निकट अवस्थित होगा। मगध नरेश बिम्बिसार ने
आक्रमण कर वैशाली को जीतने का प्रयास किया था, लेकिन उसकी पराजय हुई। मगध और वैशाली के संबंध भविष्य में
मधुर बना रहे इसी उद्देश्य से बिम्बिसार ने वैशाली के लिच्छवि नायक चेटक की कन्या
चेल्लना से शादी की।
इसी चेल्लना का पुत्र था मगध नरेश पितृहन्ता अजातशत्रु।
अजातशत्रु
ने भी वैशाली विजय के लिए कई बार आक्रमण किया।
लेकिन उसे भी निराशा हाथ लगी। उसने अपने मंत्री वर्षकार
और सुनीथ को भगवान बुद्ध की शरण में भेजा। उस समय तथागत राजगृह के गृकट पर्वत पर शिष्यों को उपदेश
दे रहे थे। वर्णकार के उपस्थित होने का
कारण जानकर तथागत को दुख हुआ।
फिर भी उन्होंने आनन्द को संबोधित करते हुए अपनी प्रिय वैशाली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया- “आनन्द,
जब तक वजीगण अपनी सभा करते रहेंगे, उनके
जुटाव भरपूर होते रहेंगे, जब तक वे
एक राय होकर उठते-बैठते रहेंगेएक राय होकर सब काम करते रहेंगे,
लोगों की राय जाने बिना कोई कानून लागू नहीं करेंगे, अपने गुरुजनों का आदर करते रहेंगे, जब तक कुल कुमारियों का सम्मान करते रहेंगे, जब तक वे अपने चैत्यों-देवालयों को मानतेपूजते रहेंगे और उनकी सुरक्षा
करते रहेंगे तब तक उनकी प्रगति होती रहेगी,
अवनति नहीं।" तथागत का संकेत
पाकर, वर्णकार ने वैशाली के नागरिकों के बीच फूट का बीज बोया। वहाँ के लोगों के बीच दरार पड़ने लगी। बौद्ध
साहित्य के अनुसार
तथागत के निर्वाण के तीन वर्षों बाद से वैशाली का पतन प्रारम्भ होने लगा।
बौद्ध मतावलम्बियों
के लिए आठ स्थानों को “महास्थान"
की संज्ञा दी गयी है। यह वे स्थान रहे हैं जो तथागत के जीवन से संबधित रहे हैं अथवा वहाँ तथागत द्वारा कोई चमत्कारी कार्य हुए हैं। वैशाली उनमें एक है। तथागत
जब वैशाली के आम्रकुंज
में भिक्षुओं को उपदेश दे रहे थे तब उनके उपदेश को, उस कुंज में रहने वाले कुछ बंदरों ने भी सुना था।
उनकी अमृतवाणी से प्रभावित होकर उन बंदरों
ने भगवान बुद्ध को भेंट स्वरूप एक
मधु से भरा पात्र दिया था।
उरुवेला (बोध गया) में पीपल की शीतल छाया में दिव्यज्ञान प्राप्ति के बाद तथागत राजगृह के वेवन में
भिक्षुओं को धर्मोपदेश
दे रहे थे। उस समय वैशाली में महामारी फैली थी। पानी के अभाव में खेत सूख गयेत्राहिमाम का दृश्य फैल गया
था। पूरा राज्य परेशान
था। वज्जी संघ को तथागत के प्रति ऐसा विश्वास बन गया था कि वे जहाँ भी ठहरते
हैं, दैनिक संकट दूर हो जाते हैं। कब्जी संघ
के "महाली" को तथागत के सौंपी गयी।
चूंकि उस समय तथागत, मगध नरेश बिम्बिसार को अतिथि थे
इसलिए महाली ने मगध नरेश से तथागत को वैशाली ले जाने की अनुमति माँगी। मगध नरेश, वैशाली की दुर्दशा
का हाल सुन चिन्तित हुए और उन्होंने तथागत को वैशाली जाने की अनुमति दे दी।
सम्यक सम
बुद्ध होने के बाद तथागत की यह पहली वैशाली यात्रा
थी। वैशाली के नागरिकों ने तथागत के स्वागत की पूरी तैयारी की थी। पूरे मार्ग में पुष्प बिछाये गये
थे। स्थान-स्थान पर बड़े-बड़े तोरण द्वार लगाये गये। मार्ग के दोनों किनारे मंगल कलश रखे गये। भिक्षुओं के ठहरने की जगह-जगह व्यवस्था
की गयी थी। आठ रंग-बिरंगे परिधान में
घोड़े पर सवार राज्य को अधिकारी,
गंगा तट पर उनकी आगवानी के लिए मौजूद थे। काफी लोग
मेरीमृदंगशंख आदि बजाते हुए वातावरण को शुभ बनाने में
व्यस्त थे। बौद्ध साहित्य में उल्लेख किया गया है कि ज्योंहि तथागत की सवारी गंगा के तट पर लगी त्योंहि आकाश
में बादल छा गये और घनघोर वर्षा से वैशाली की धरती तर हो गयी। वैशाली की मंगल कामना के उद्देश्य से तथागत ने रात भर
पूरे वैशाली क्षेत्र का भ्रमण करते हुए मंत्रोच्चार किया। फिर अपने भिक्षु-संघ के साथ कटागारशाला में आकर विश्राम किया। लिच्छवियों ने वह कूटागारशाला भिक्षुसंघ को भेंट की।
वैशाली में उत्पन्न महामारी
जैसा दुर्भिक्ष समाप्त हो गया।
अपनी अन्तिम
वैशाली यात्रा के दरम्यान तथागत वैशाली के
आठवन में ठहरे थे। वैशाली की राजनर्तकी अम्बपाली ने भिक्षु संघ के साथ तथागत को अपने प्रासाद में भोजन
के लिए आमंत्रित किया। तथागत ने अम्बपाली
का आतिथ्य स्वीकार कर लिया। उनकी
अमृतवाणी से प्रभावित होकर अम्बपाली ने बौद्ध धर्म में प्रब्रजित होने की इच्छा प्रकट की। इससे पूर्व
तथागत अपनी मौसी महाप्रजापति
गौतमी को पाँच नारियों के साथ वैशाली में ही दीक्षित कर चुके थे। अम्बपाली के अनुरोध को तथागत अस्वीकार नहीं कर सका। वैशाली की कुछ अन्य नारियों के साथ अम्बपाली, विमला, रोहिणी, जयन्ती, वाशिष्टी को भी तथागत ने दीक्षा
दी।
वैशाली की
इसी पुण्य भूमि पर तथागत ने अपने भिक्षुओं
के समक्ष घोषणा की थी कि आज से तीन महीने बाद वे निर्वाण लाभ करेंगे। भिक्षु-गण उनकी ऐसी उद्घोषणा सुन कर चिन्तित हो गये। तथागत मुस्कुराये। भिक्षुओं के मन की बातें जान लीं। उन्होंने भिक्षुओं को समझाते हुए कहा-“अप्प दीपो
भव" अर्थात् अपने
दीपक की लौ तुम स्वयं बनो
वैशाली से
कुशीनारा की ओर प्रस्थान करते समय तथागत को
वहाँ के लिच्छिवियों ने काफी दूर तक साथ दिया। तथागत बार-बार उन्हें लौटाने का प्रयास करते रहे लेकिन नागरिकों का उनके प्रति प्रेमभाव बना रहा। तथागत ने
अपना भिक्षा-पत्र
उन्हें भेंट किया। भिक्षा-पात्र ग्रहण कर नागरिक वहीं रूक गयेबौद्ध साहित्य में उल्लेख है कि तथागत जब वैशाली
से काफी दूर हुएतब एक बार रूक गयेफिर
हाथी की तरह अपना पूरा शरीर
घूमा कर उन्होंने वैशाली के दर्शन किए। आनन्द को संबोधित करते हुए तथागत ने कहा था-" आनंद, तथागत का यह अन्तिम वैशाली दर्शन है।" फिर बढ़ चले कुशीनारा
की ओर।
वैशाख पूर्णिमा।
यही वह पुण्य दिन था जब सिद्धार्थ का जन्म हुआ
था, बोधिवृक्ष की शीतल छाया में ज्ञान की प्राप्ति हुई। थी और इसी रोज दो शाल वृक्षों के बीच कुशीनारा (कुशी
नगर) में उन्होंने निर्वाण प्राप्त कियातथागत
के अस्थि अवशेष का एक भाग, वैशाली
के नागरिकों को भी मिला।
तथागत, ज्ञान
प्राप्ति के बाद मौखिक रूप से भिक्षुओं को धमोपदेश देते
रहे। भिभुगण उनके बताये मार्गों का अनुसरण करते रहे। लेकिन उनके निर्वाण प्राप्ति के कुछ क्षण बाद ही
भिक्षुओं ने उनके मौखिक
उपदेश का अर्थ भिन्न रूप से निकालना शुरू कर दिया। प्रमुख भिक्षुओं को चिन्ता हुई। सभी भिक्षुओं
ने निर्वाण के तीन महीने
बाद ही राजगृह में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया। तथागत के
उपदेशों की प्रामाणिकता बनी रहे, इसके लिए इस अवसर पर
पाँच सौ बौद्ध भिक्षु पधारे।
भिक्षुओं
के आपसी मतभेद बढ़ते गये। धार्मिक उपदेशों को तोड़ा-मरोड़ा जाता रहा। तथागत के निर्वाण के एक सौ वर्ष बाद कालाशोक के शासनकाल में भी स्थविर रैवत की अध्यक्षता में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन वैशाली में किया गया। इस आयोजन में भाग लेने के लिए सात सौ भि पधारे
थे। तथागत से प्राप्त उपदेशों का संगायन
आठ महीने तक चलता रहा। “विनय"
के विरूद्ध आचरण करने वाले भिक्षुओं को भिक्षु संघ से निष्कासित किया गया। यहीं बौद्ध धर्म की दो शाखाएँ-हीनयान और महायान की बुनियाद पड़ी। बाद में बौद्धमत की 18 शाखाएँ हुई।
भगवान बुद्ध
का प्रिय स्थल और भगवान महावीर की जन्मभूमि
वैशाली लम्बे समय तक देशवासियों की नजर से दूर बनी रही। पुस्तकों में यहाँ की गौरवगाथा बनी रही। बीसवीं शताब्दी इस वैशाली का पुनर्जागरण काल कहा जा सकता है।
डॉ ब्लाश और स्पूनर ने अलेक्जेन्डर कनिंघम
और विन्सेन्ट स्मीथ के संकेतों के
आधार पर वैशाली के गढ़ पर और अशोक स्तम्भ के निकट पुरातत्व विभाग की ओर से खुदाई की। खुदाई से प्राप्त अवशेषों का कोई भी प्रभाव वहाँ के स्थानीय नागरिकों
पर नहीं पड़ा।
1944 ई. में
वैशाली आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। हाजीपुर के
तत्कालीन सब डिविजनल अधिकारी जगदीश चन्द्र माथुर को
ध्यान में आया कि जब तक वहाँ की जनता को इतिहास की घटनाओं से जोड़ा नहीं जायगा, तब तक गौरवशाली वैशाली प्रकाशमान नहीं हो सकती। उन्होंने वैशाली का भ्रमण किया प्रतिष्ठित लोगों से भेंट की।
जन-जन से आत्मीय हुए। फिर
उन्होंने वैशाली के
नागरिकों की प्रतिभा पहचानी, वहाँ की लोक संस्कृति से परिचित हुए। अब जगदीश चन्द्र माथुर ने अपने तीन उद्देश्यों को लेकर सहयोगियों से विचार-विमर्श प्रारम्भ किया। उनका पहला उद्देश्य था- प्राचीन वैशाली और उसके अवशिष्ट चिह्नों को प्रकाश में लाना। दूसरा उद्देश्य था- लिच्छवियों
के प्राचीन गणतन्त्री
राज्य और वैभव मडित पावन स्मृतियों के आदशों से प्रेरित होकर सांस्कृतिक और सामाजिक जागरूकता के वातावरण को स्थानीय जनता में पैदा करना और तीसरा उद्देश्य था-
ग्रामीण जीवन के पुनर्निर्माण, स्थानीय लोक संस्कृति का विकास तथा उस क्षेत्र के जन जीवन के विकास के लिए आवश्यकतानुसार कार्यक्रमों और संस्थाओं को प्रेरित करना।
वैशाली के
पुनर्जागरण में 1944-45 में गठित वैशाली संघ का महत्वपूर्ण
योगदान रहा है। स्थानीय लोगों के साथ जैन मतावलम्बियों
की भूमिका को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। 1943 में मुजफ्फरपुर प्रमंडल के तत्कालीन आयुक्त नीलमणि सेनापति, वैशाली आन्दोलन के प्रवर्तक जगदीश
चन्द्र माथुर, चकरामदास ग्राम के बिजुली सिंह,
दीप नारायण सिंह, श्रीराम चरण,
जगन्नाथ प्रसाद साह आदि लोगों ने वैशाली संघ को समृद्ध करने में भरपूर सहयोग प्रदान किया। प्रतिवर्ष वैशाली महोत्सव का शुभारम्भ किया गया। वैशाली में आयोजित वैशाली महोत्सव, देहाती जनता के बीच एकमात्र ऐसा महोत्सव है
जो न धार्मिक मेला है, न राजनीतिक सभा है,
बल्कि यह शुद्ध सांस्कृतिक
महोत्सव है।
भगवान महावीर
की जयन्ती के अवसर पर आयोजित वैशाली महोत्सव
में सैकड़ों गाँवों के शिक्षित-अशिक्षित नागरिक काफी तादाद में यहाँ जुटते हैं। मूर्तियों द्वारा वैशाली
की झांकी प्रस्तुत
की जाती है। स्थानीय हरिजन मछुआरे अपने रंग-बिरंगे परिधान में अभिषेक पुष्करणी के पवित्र जल को घड़े में
एकत्र कर विशालकाय शोभा यात्रा में मंच तक
लाते हैं। समारोह के मुख्य अतिथि
मंच पर उस घड़े को स्थापित करते हैं। फिर प्रारम्भ होता है मछुआरों का
समूह गान और पारम्परिक वाद्य वादन। मंच की सजावट
में स्थानीय बांस के शिल्प का कलापूर्ण प्रयोग किया जाता है। जगदीश चन्द्र माथुर ने वैशाली की गरिमा पर
आधारित सरल-सहज संवाद और लोक-धुन पर आधारित
गीति नाट्य "वैशाली
लीला" की रचना की, जिसका प्रदर्शन उस मंच से लगातार कई वर्षों तक होता रहा।
वैशाली की
गरिमा जन-जन तक पहुंचे इसी उद्देश्य से कई अनमोल पुस्तकों का प्रकाशन किया गया।
1945 में प्रथम वैशाली महोत्सव के अवसर पर “वैशाली” पुस्तक का प्रकाशन किया गया। संपादक
थे डॉ विमल चंद्र सरकार और डॉक्टर योगेंद्र मिश्र। 1948 में “वैशाली अभिनंदन ग्रंथ” का प्रकाशन किया गया जिसकी भूमिका
लिखी थी डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने और संपादन किया था जगदीश चंद्र माथुर एवं डॉक्टर
योगेंद्र मिश्रा ने। वैशाली
महोत्सव में विद्वतजनों के भाषणों का
संकलन प्रकाशित किया गया। राहुल सांकृत्यायन, विमल चंद्र सरकार, अनंत सदाशिव, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, हीरालाल जैन, राजेंद्र प्रसाद, वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ सत्कारी मुखर्जी, टी.एन. रामचंद्रन आदि विद्वानों के संकलित भाषणों को पढ़
कर कोई भी बुद्धिजीवी प्रभावित हो सकता है। पर्यटन विभाग ने अब इस वैशाली को पर्यटन केंद्र के रूप में
समृद्ध किया है। जापान सरकार के सहयोग
से यहाँ आवागमन के लिए अच्छी सड़कें बनवाई गयी है। लेकिन दुःख की बात है कि इतना महत्वपूर्ण स्थल वैशाली आज
भी रेल यातायात से मीलों दूर है। पर्यटक इस
स्थल के लिए या तो मुजफ्फरपुर
पहुंचकर वैशाली आ सकता है अथवा पटना या हाजीपुर पहुंचकर वैशाली के
दर्शन कर सकता है।
विश्व
इतिहास से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में सिर्फ चार तीसरे प्रजातांत्रिक अथवा
गणतंत्र शासन व्यवस्था थी। वे देश थे – भारत, यूनान, इटली और ट्यूनीश (उत्तरी अफ्रीका) । कनिंघम, राईज डेविड्स और काशी प्रसाद जायसवाल जैसे विद्वानों
ने जानकारी दी कि भारतवर्ष में प्रजातांत्रिक राज्य प्राचीन काल में रहे हैं और काल क्रम के अनुसार भारत का प्रजातंत्र अन्य देशों के प्रजातंत्र
से ज्यादा पुराना रहा है। यूनानी राजदूत मेगास्थनीज,
चीनी
यात्री ह्वेनसांग, मुस्लिम सौदागर
अलइदरीशी, तथा इटालियन व्यापारी मार्कोपोलो के विवरणों से
ज्ञात होता है कि उस समय हमारे समाज के सभी स्तर के लोग अधिकांशतः सत्यवादी,
न्यायप्रिय एवं चरित्रवान थे। गणराज्यों
कि सफलता का मुख्य अधर तत्कालीन जनता की ईमानदारी का उच्च स्तर था।
ईशा पूर्व
725 ई में प्रजातांत्रिक राज्यों में प्राचीनता, विशालता, शक्तिमत्ता, टिकाऊपन (कुल 650 वर्ष) सुशासन और प्रभावोत्पादकता की दृष्टि
से वैशाली का वज्जी संघ का नाम
सर्वोपरि है। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ योगेंद्र मिश्रा ने बताया कि पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, वैशाली एवं समस्तीपुर जिला तथा उसके
पूर्व गंगा के किनारे किनारे एकत्रित एवं आयताकार भाग और चंपारण-सीतामढ़ी से
सटी नेपाल की तराई वज्जी क्षेत्र में ही थे।
वैशाली
गणराज्य तीन भागों में विभक्त था। पहले भाग
में सात हजार भवन थे जिसके
गुंबद सोने के थे। दूसरे भाग में चौदह हजार
भवन थे जिनके गुंबद चांदी के थे और तीसरे भाग में इक्कीस हजार भवन थे जिनके गुंबद
तांबे के थे। उच्च, मध्य एवं निम्न वर्गों के लोग अपने
पदों के अनुसार निवास करते थे। भगवान बुद्ध के काल में वैशाली पूर्ण व्यवस्थित एवं
समृद्धशाली थी। इसी व्यवस्था
से प्रभावित होकर भगवान बुद्ध ने बौद्ध संघ की स्थापना की थी। महावग्ग में उल्लेख किया गया है कि यहाँ 7707
प्रासाद,
7707 कूटागार, 7707 आराम विहार तथा 7707
पुष्करनियाँ थी। उस काल में वैशाली को
पृथ्वी का स्वर्ग माना जाता था।
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