बिहार में आज भी ‘बिदेशिया’ जीवंत हो उठती है ~


भिखारी ठाकुर (18 दिसम्बर 1887 - 10 जुलाई 1971)

भिखारी ठाकुर द्वारा रचित प्रसिद्द नाटक ‘बिदेशिया’ सिर्फ एक नाटक ही नहीं थी अपितु उस कालखंड की एक जीवंत दस्तावेज है, जो दुर्भाग्य से बिहार के परिपेक्ष्य में आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में भी बिहार के लोग अपने क्षेत्र में रोजगार के अभाव में पूरब(कोलकत्ता) की तरफ रोजी-रोटी की प्रत्याशा में जाते थे, कुछ लौट आते थे अपना सर्वस्व गवां कर कुछ वहीँ मर-खप जाया करते थे, जिसकी पुख्ता सुचना भी घर वालों तक नहीं पहुँच पाती थी समय पर.....महीनों / वर्षों तक। संचार व्यवस्था उतनी उन्नत नहीं थी, जितनी आज है।
          आज भी रोजी रोटी की तलाश में बिहार के लोग दिल्ली, मुंबई, पंजाब की तरफ रुख करते हैं या दुसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आज समूचे हिंदुस्तान में अगर रिक्शा चलाने वाला, दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाला, रेलवे स्टेशन पर हर तीसरा कुली, नुक्कड़ों-चौराहे पर खोमचे की फेरी लगाने वाला, मजाक और हेय दृष्टि से देखा जाने वाला यदि कोई है तो वह निश्चित ही बिहार का वाशिंदा है जो सिर्फ और सिर्फ होली और दिवाली ही अपने परिवार के साथ बिताने को अभिसप्त हो चूका है। विडंबना है कि समूचे हिन्दुस्तान के आधे से अधिक जिलों का जिलाधिकारी/ पुलिस अधीक्षक/ आयुक्त, बड़े-बड़े निजी और सार्वजनिक उपक्रमों के कार्यालयों का नीति-नियंता भी बिहार का ही मूल-निवासी है; फिर भी बिहार की बुनियादी स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आई....आज तक।  हालाँकि बहुत हद तक परिस्थितियां बदली है, आधुनिक विज्ञान के नए तकनीकों  ने दूरियों को पाटने में काफी हद तक सफलता पायी है, आवागमन में काफी सहुलियते हुई हैं। हालाँकि आज भी निचले तबके के लोग सार्वजनिक वाहनों में भेंड-बकरिओं से भी बदतर स्थिति में यात्रायें करने के लिए विवश हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व दशहरा- पर्व के अंतिम दिन रावण दहन के दौरान पंजाब में हुए वीभत्स रेल-दुर्घटना के दौरान मारे गए गरीब बिहारी मजदूरों की स्थिति यही थी कि कम से कम मैंने तीन मारे गए बिहारी मजदूरों की पैसे के अभाव में उनका अंतिम संस्कार उनके घर वालों ने अत्याधुनिक संचार तकनीक व्हात्ट्सएप्प के माध्यम से होने की लोमहर्षक ख़बरों को समाचार-पत्रों में पढ़ा था।
          बिदेशिया की नायिका अपने पति से मनुहार करती है कि नौकरी करने पूरब मत जाओ...... जब उसका पति यह कहता है कि मै पूरब जाकर पैसा कमा कर तुम्हारे लिए साडी और सिकड़ी (जेवर) लेकर आउंगा तो वह कहती है कि मुझे नहीं चाहिए साडी-सिकड़ी, पूरब की औरतें काला जादू जानती है और वह अपने काले जादू से तुम्हे अपने वश में कर अपने पास रख लेगी.......यहाँ तक कि अपने पति से कहती है कि तुम पूरब में जाकर ‘कल’ (कल- शब्द का प्रयोग उस समय सिर्फ बंगाल में ही हुआ करता था) से पानी पियोगे जिससे तुम काले हो जाओगे।

आज भी ‘बिदेशिया’ बिहार में उस समय जीवंत हो उठती है जब अपने घर से दूर मजदूरी करने गए हुए पति से पत्नी घर के खर्च के लिए पैसे मांगने के साथ ही साथ उसे कुछ दिनों के लिए घर लौटने को कहती है.......तब पति बड़े रुवांसे स्वर में कहता है ‘मेरे आने और जाने में ही 500 रूपये सवारी के भाडा में खर्च हो जाएगी तो मुझे घर- खर्च के रकम से 500 रूपये की कटौती करनी पड़ेगी’; तब प्रतिउत्तर में पत्नी अपने पति से कहती है कि “तुम पैसा ही भेज दो सिर्फ अभी, फिर कभी पैसा होगा तो आ................... जाना”।
विरह की इस महाकाव्य ’बिदेशिया’ के रचनाकार भिखारी ठाकुर को मेरा कोटिश-कोटिश नमन.......         

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