नई सहर आने से पहले.....विदा 2018


ब्लॉग / सोशल मीडिया की मूल अवधारणा यही है कि जो बात इंसान किसी से ना कह पाए, वो अपने ब्लॉग पर लिखकर मन को हल्का कर ले। वैसे तो रहीम बाबा बहुत पहले कह गए हैं कि रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय, सुनि इठिलइहैं लोग, सब बांटि ना लैहै कोय। लेकिन पीर जब शूल बनकर भीतर चुभने लगती है तो लोग लेखनी का सहारा लेते हैं।
          लिख/बोल कर, हम अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते हैं, यह अभिव्यक्ति का सबसे पहला और सबसे सशक्त माध्यम है। भाषा कोई भी हो, और कहीं भी बोली जाती हो, वो हमें एक दूसरे से जोड़ती है, एक दूसरे के विचार जानकर, एक दूसरे के प्रति प्रेम और आत्मीयता बढ़ती है, बोलचाल को कभी भी लापरवाही या हल्केपन से नहीं लेना चाहिए, हमेशा सोच समझ कर ही बातचीत करनी चाहिए। कभी-कभार हलके-फुल्के वातावरण में कुछ गंभीर बातें की जा सकती हैं, लेकिन ऐसे अवसरों पर कोई ऐसी बात न की जाए, कि अच्छा-ख़ासा वातावरण विषाक्त हो जाए।
          मेरे पिता जी सदैव मुझे सिखाते हैं कि- "जुबां-ए-शिरी ...... मुल्क-ए-गीरी" अर्थात मीठी जुबान से मुल्क की बादशाहत जीती जा सकती है ! परंतु बाल्यकाल से यह पढ़ते-पढ़ते उम्र के इस दौर तक पहुँचा हूँ कि....कमान से निकला हुआ तीर और जुबां से निकली हुई बात कभी वापिस नहीं लौटती
          शब्दों के तीर तलवार से कहीं अधिक घातक होते हैं, जो सीधे दिल पर असर करते हैं। ऐसे जख्म देते हैं जो दिखाई तो नहीं पड़ते मगर लंबे समय तक टीसते रहते हैं। लोग अक्सर कड़वे शब्द कहने के बाद कुछ इस तरह बहाने बनाते हैं यार तुम तो बड़े भावुक निकले, मेरी बात को गंभीरता से ले ली। या फिर इतनी बड़ी क्या बात हो गयी? टेक ईट इजी.....यार।
     यानी आप शब्दों के तमाचे जड़ दें और दुसरे से सामान्य बने रहने की अपेक्षा करें। क्या यह संभव है ? इस सन्दर्भ  में डेल कार्नेगी के विचार बड़े महत्वपूर्ण हैं आप और मैं कल किसी के मन में अपने लिए विद्वेष पैदा करना चाहते हों, जो दशकों तक पलता रहे और मौत के बाद भी बना रहे, तो हमें और कुछ नहीं करना है, सिर्फ चुनिन्दा शब्दों में चुभती हुई आलोचना करनी है........
          भाषा अमृत भी है और विष भी, अब ये हम पर निर्भर है, कि हम इसे किस तरीके से उपयोग में लाना चाहते हैं।  रहीम कवि ने बहुत ही अच्छी बात कही है :-
रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल।
आपु तो कही भीतर रही जूती सहत कपाल।।
      यही जिह्वा हमें प्रतिष्ठा भी दिलवाती और जूते भी खिलवाती है....बहुत ज्यादा बोलना भी जोख़िम से भरा होता है..क्योंकि बोलने वाला व्यक्ति अपनी बातों पर नियंत्रण नहीं रख पाता..लाख नहीं चाहते हुए भी, कभी न कभी कोई ऐसी बात, निकल ही जाती है जो उसके अपयश का कारण बन सकती है।
          मीठा बोलना अच्छी बात है, लेकिन बहुत ज्यादा मीठा बोलना भी अच्छा नहीं माना जाता है, अर्थात बहुत ज्यादा मीठा भी विष का काम कर जाता है, जैसे बहुत मीठी चाय को हम छोड़/थूक देते हैं। दरअसल, हमें बोल चाल में सौहार्द, प्रेम और मैत्री जैसे भाव प्रकट करने चाहिए, न कि जलन, ईर्ष्या, द्वेष, शत्रुता के भाव। बोल-चाल में नम्रता और शालीनता की बहुत आवश्यकता होती है, वर्ना आपके मुंह से उच्चारित अच्छे शब्द भी सामने वाले को अच्छे नहीं लगेंगे।
ऊंची आवाज़ में बोलना, तेज़ बोलना या बात-बात में क्रोधित होना, कोई अच्छी बात नहीं है,..इससे हमारी अपनी ही शक्ति का अपव्यय होता है साथ ही आपके स्वास्थ्य पर भी इसका विपरीत असर पड़ता है।
          क्रोध हर व्यक्ति को आता है, परन्तु इसका इस्तेमाल यदा-कदा, ज़रुरत पड़ने पर ही करना चाहिए। उपयुक्त अवसर पर इसका उपयोग कारगर होता है, परन्तु क्रोध के समय, बोलने में संयम अवश्य बरतना चाहिए। यह बहुत ही ज़रूरी बात है। सच पूछिए तो किसी भी व्यक्ति के लिए, यह अवसर परीक्षा की घड़ी होती है, ऊंची आवाज़ को रोक पाना तो क्रोध के समय संभव नहीं होता, लेकिन शब्दों और भाषा पर नियंत्रण रखना बहुत हद तक संभव होता है। कुछ लोगों को जब क्रोध आता है, तो वो बौखला जाते हैं और अपशब्द बोलने लगते हैं, परन्तु कुछ ऐसे भी हैं जो लाख क्रोधित होने बावज़ूद भी, मुंह से गलत शब्द का उच्चारण नहीं करते। जहाँ तक हो सके, जब क्रोध आये तो कम से कम बोलना चाहिए...और जो भी बोला जाए वो नपे तुले शब्दों में हो ...हम जो भी बोलते हैं, तब हमारी भाषा के जो शब्द मुंह से निकलते हैं उनका बड़ा प्रभाव होता है। उन शब्दों में बहुत शक्ति होती है, यह शक्ति बिगड़ी बात बना सकती है या फिर वो विस्फोट कर सकती है। कई बार हमने देखा है कि बिना बात के बतंगड़ होते हुए..और छोटी सी बात को विकराल रूप धरते हुए...और तब बात इतनी बढ़ जाती है कि फिर सम्हल ही नहीं पाती। विवेकी मनुष्य हमेशा सोच-समझ कर बात करता है, वह हर बात तौल कर कहता है।
          जब भी आप बात करें समय और परिस्थिति का भी अवश्य ध्यान रखें। अगर इन बातों का ध्यान हम नहीं रखते तो किसी का मन विदीर्ण हो हर इंसान में बुराइयाँ होती है और अच्छाईयां भी। हमेशा दूसरों में बुराई देखने की बजाय उनमें निहित गुण भी हमें देखना चाहिए, उसे सराहें। क्रोधित होने और क्रोधी होने में फर्क है। कभी भी क्रोध में अपनी भाषा को न बिगाड़े। यदि एक बार हमारे आपसी संबंध दरक गए तो वे फिर कभी नहीं जुड़ते हैं, क्यूँ न हम लाख प्रयत्न कर लें......उसमें एक गाँठ पड़ ही जाती है। कई बार हम बिना सोचे-विचारे तीखे और व्यंगात्मक  शब्दों का प्रयोग कर बैठते हैं। हो सकता है सामने वाला व्यक्ति उस समय कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त न करे पर उसके दिल का जख्म लम्बे समय तक उसे सब कुछ याद दिलाता रहेगा और कभी न कभी वह पलट कर वार जरुर करेगा। यह वार प्रत्यक्ष भी हो सकता है और शारीरिक, मानसिक अथवा आर्थिक भी। 
याद रखिये...
ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे आपहूँ शीतल होय।।

दोहरी मानसिकता के साथ जीते हुए हम सुख की तलाश में जिंदगी भर भटकते रहते हैं, लेकिन वह सुख हमें कभी नहीं मिल पाता है। आज का जीवन इतना एकाकी हो चुका है कि सारे रिश्ते स्वार्थी हो गए हैं। रिश्ते और रिश्तेदारों के आपसी संबंधों में इतनी दुरी आ गयी है कि उसे पाटना अब संभव नहीं है। रिश्तों की खटास किसी खास रिश्तों तक सीमित नहीं है। पति-पत्नी के बीच बढती दुरी ने रिश्तों को स्वार्थ के चरम पर पहुँचा दिया है। यह भी एक बिडम्बना ही है कि जहाँ सारे विश्व के लोगों के बीच की दूरियों को आज के टेक्नोलोजी ने घटा दिया है, वहीँ पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों की दुरी बढती ही जा रही है और हम जानकार भी अनजान बने हुए हैं। हमें इसका एहसास तभी हो पाता है जब भुक्तभोगी होते हैं, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होती है और हमारे हाथ कुछ भी शेष नहीं रह जाता है। डेल कार्नेगी ने लिखा है कि हम पहले अपनी तारीफ़ सुन लेते हैं तो बाद में बुराई सुनना आसान होता है, जैसे हम ढाढ़ी बनाने से पहले उसपे सेविंग क्रीम लगा कर शख्त बालों को मुलायम कर लेते है।
           'वसुधैव कुटुम्बकम' अर्थात् पूरी दुनिया मेरा परिवार है का संदेश देने वाले समाज में परिवार का हर सदस्य एक अलग ग्रह हैं जो एक दूसरे से अपने ढंग से स्वतंत्र परिक्रमा में लगा है। नववर्ष की इस पूर्व-संध्या पर, संवादहीनता के इस दौर में एक दूसरे के निकट आकर पारिवारिक माहौल, शिक्षा के मायने, रिश्तों में जुड़ाव व संस्कार में आ रही कमी के बारे में एवं आपसी तल्ख़ एवं व्यंगात्मक संवाद पर नये सिरे से चिंतन करें।
संगच्छध्वम् सं वदध्वम्।। (ऋग्वेद 10.181.2)
अर्थात: साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करो जिस पर पूर्वज चले हैं।

आपको एवं आपके समस्त परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभकामना।

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