न कर्तिकसमो मासः
न कर्तिकसमो मासः न देवः
केश्वात्परः।
न वेदसदृशं शाश्त्रं न
तीर्थ गंगाया समं।।
पद्दम पुराण (120 / 23-24)
अर्थात – कार्तिक के समान
कोई मास नहीं है, श्रीविष्णु से बढ़ कर कोई देव नहीं, वेद के तुल्य कोई शास्त्र
नहीं है न ही गंगा के सामान कोई अन्य तीर्थ है।
शरद पूर्णिमा से
प्रारंभ होकर कार्तिक पूर्णिमा तक के मध्य जितने भी अनुष्ठान की जो भी परंपरा है हैं उनका प्रत्यक्ष संबंध हमारे जीवन एवं
देनान्दिनी से है, जिसकी केंद्र बिंदु होता है मनुष्य, समाज और प्रकृति। चाहे वह
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को मनाई जाने वाली गोवर्धन की पूजा कर अन्नकूट–महोत्सव
होता हो, या फिर कार्तिक मास के शुक्लपक्ष के द्वितीय को आयोजित होने वाली यमद्वितीय(भैया-दूज)
हो या कार्तिक मास के शुक्ल षष्ठी जो मुख्यतः सूर्योपासना से जुडी हुई है।
लोक-आस्था के इस महापर्व छठ में षष्ठी के दिन फल-पुष्प, पकवान आदि नैवेद्द लेकर
नदी तट पर सूर्य का पूजन कर सूर्य को सायंकालीन अर्ध्य प्रदान किया जाता है। गंगा को
दीपदान होता है। दुसरे दिन सूर्योदय के समय सूर्यदेव को अर्ध्य दिया जाता है।
सृष्टि में विधाता की वैज्ञानिक दृष्टि सर्वत्र
द्रष्टव्य है। यहाँ अनगिनत विविधताएँ हैं, किंतु कुछ भी निरर्थक नहीं है। हर वस्तु
की कुछ ना कुछ सार्थकता है, उपयोगिता है। ऐसी विविधताओं से भरी सृष्टि में ‘मानव’
उसका चरम निदर्शन है। मानव के साथ शेष प्रकृति का सहचरी भाव भी है और अनुचरी भाव
भी। यह दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, यथा- मनुष्य वृक्ष-वनस्पतियों
का पौधारोपण करके, उन्हें खाद-पानी देकर उनका पालन-पोषण करता है, तो वृक्ष-वनस्पति अपने बीज, फल आदि भोज्य पदार्थ प्रदान
कर मानव के पालन-पोषण का आधार बनते हैं। इसी प्रकार मनुष्य प्रकृति के प्रति
श्रद्धावनत होता आया है। दिव्य और उपयोगी शक्तियों के परस्ती पूज्य भाव से
ओत-प्रोत रहना स्वभाविक भी है। इसी के परिणामस्वरूप वृक्ष-पूजा, नदी-पूजा सदा से की जाती रही है। वैदिक साहित्य में इसके निदर्शन भरे पड़े हैं।
अपनी श्रद्धा और आदरांजलि
समर्पित करते हुए मानव
को वृक्ष-पूजा, नदियों के पूजा के समय उन्हें
दिव्य शक्तियों का
अनुभव होता रहा है,
जिसके कारण उसकी अन्तश्चेतना
प्रभावित होती है। किसी
भी तत्व में दिव्यत्व
का अनुभव हमारी आत्मा
को शांति प्रदान करता
है। प्राचीन मान्यता है कि पेड़-पौधे
और नदियों
में देवी देवताओं का
निवास रहता है।
जहाँ तक वृक्ष-नदियों के सांस्कृतिक महत्व की बात है, हमारे पूर्वजों ने इसे
शुभ-कार्य तथा उत्सवों से जोड़कर रखा है ताकि इसे पूजनीय बनाये रखा जा सके। कार्तिक
पूर्णिमा के अवसर पर गंगा-स्नान एवं अन्य नदियों में स्नान की महत्ता इसका
प्रत्यक्ष प्रमाण है।
प्राचीन काल से लेकर आजतक ऋषियों-मुनियों, विद्वानों, महाकवियों
ने जितना गंगा पर लिखा उतना अन्य विषयों पर नहीं। आर्य संस्कृति में गायत्री, गीता
एवं गाय की जो प्रतिष्ठा है, वह समन्वित देवनदी गंगा में विद्यमान है।
महाभारत में इसे त्रिपथगामिनी और रघुवंश, कुमारसंभव एवं ‘शाकुंतल' नाटक
में त्रिस्त्रोता कहा गया है। आदिकवि वाल्मीकि ने इसे ‘त्रिपथगा’ कहा
है। यह स्वर्ग-लोक,
मृत्यु-लोक पाताल-लोक को पवित्र और करती हुई प्रवाहित होती
है।
गढ़ा त्रिपथगा नाम दिव्या
भागीरथीति च।
त्रीन् पथो भावयन्तीति
तस्मात् त्रिपथगा स्मृता। (वा. रा. 1 /44 /6)
गोस्वामी तुलसीदास ने विनय-पत्रिका गंगा
को सभी का पालनहार बताया-
निज तटबासी बिहंग जल-थर चर
पसु-पतंग,
कीट, जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत
रघुबंस-बीर
विचरत मति देहि
मोह-महिष-कालिका ॥
ऋषियों
ने अपने प्रतिभा ज्ञान से यह बताया कि वृक्ष-वनस्पतियों एवं प्राणियों में
वृद्धि हेतु ऊर्जा अथवा अग्नि की आवश्यकता होती है और ऊर्जा से ही जीवाणुओं की
स्थापना तथा प्रजनन-क्रिया संभव होती है। वृक्षों पर पुनरुत्पत्ति होते रहना- उनमें
जीवन को प्रमाणित करता
है। मतस्य पुराण तो वृक्ष की तुलना पुत्र से करते हुए यह वर्णित
है
दश कूप समावापी, दशवापी समोह्रिदः।
दशहृदः समः पुत्रो, दशपुत्र समोद्रुमः।।
अर्थात, दस कुओं के बराबर एक
बावड़ी है, दस बावड़ी के
बराबर एक तालाब है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है। कहने का मूल आशय यह है कि एक वृक्ष से प्राप्त लाभ दस
पुत्रों से प्राप्त लाभ के सामान होता है।
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