'वृद्धदेवो भव' !!
भारतीय
संस्कृति में वृद्धों की सेवा को अधिक महत्व दिया गया है। भारतीय
विधि-व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने वृद्ध
माता-पिता के आदर पूर्वक भरण-पोषण का
दायित्व स्वीकार करना चाहिए। यह प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य
भी है। मानव-धर्म के अधिष्ठाता मनु महाराज ने युवा पीढ़ी को
परिजनों के प्रति सदा अभिवादनशील होने को कहा है। उन्होंने
अपनी मनुस्मृति में लिखा है-
अभिवादनशीलस्य नित्यं
वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते
आयुर्विद्दा यशो बलम।।
अर्थात जो व्यक्ति स्वभावतः सहज अभिवादनशील नित्य वृद्धों
की सेवा करता है, उसके आयु, विद्या,
यश और बल की वृद्धि होती है।
मनु
ने वृद्ध को को आचार्य का पर्यायवाची कहा
है। इसलिए वह लिखते हैं कि घर में आए वृद्धों को आचार्य-जैसा मान कर
उनका पूरा सम्मान करना चाहिए और उन्हें बैठने के लिए अपना आसन देना चाहिए। उनके
समक्ष हाथ जोड़ कर विनम्र भाव से उनके आदेश-निर्देश को
सुनना चाहिए और जब वे जाने लगे तब कुछ दूर तक उनका अनुसरण करना चाहिए।
अभिवादयेद वृद्दांश्च
दद्धाच्चैवासनं स्वकम।
कृतांजलिरूपासीत गच्छतः
पृष्ठतोअन्वियात।।
(मनु. 4/154)
वृद्धजनों को प्रणाम करने में तीन प्रक्रियाएँ होती है-
अपने स्थान से उठ कर खड़ा होना (प्रत्युथान), फिर पैर
पकड़ना या छूना (पादोपसंग्रह),
उसके बाद ‘मैं
अमुक आपको प्रणाम करता हूँ’- ऐसा मुंह से कहना (अभिवादन)।
मनु
ने बूढ़े माता-पिता की सेवा को उनके सौ बुरे काम करने
के बाद भी करणीय है बताया है। अर्थात माता-पिता का भरण-पोषण हर
हालत में होना चाहिए।
वृद्धो च मातापितरौ साध्वी
भार्या शिशुः सुत।
अप्यकार्यशतं कृत्वा
भर्ताव्या मनुरब्र वीत।।
(मनु 11/10 क्षेपक)
प्राचीन
भारतीय आचार संहिता के आदि पुरुष मनु ने कहा है कि माता-पिता अपनी संतानों को जन्म
देने और उनका पालन पोषण करने में जो क्लेश सहते हैं,
उससे विमुक्ति कोई भी मनुष्य उनकी
सौ वर्षों
तक सेवा करके भी नहीं पा सकता है-
यं मातापितरौ क्लेशं सहेते
सम्भवे नृणाम।
न तस्य निष्कृतिः शक्या
कर्तु वर्षशतेरपि।।
(मनु 2/ 227)
वृद्धों
की सेवा के महत्व के संदर्भ में मनु ने यहां तक कहा है कि वृद्धों की नित्य सेवा
करने वाले की हितेषण अन्य की बात की ही क्या, हिंसक राक्षस
भी करते हैं- 'वृद्धसेवी हि सततं रक्षोभिरपि पूज्यते।।‘(7/ 38)
विभिन्न शास्त्रों एवं पुराणों में कुलवृद्धों की बार-बार चर्चा आती
है।। संकटकाल में, निरूपायता की स्थिति में, कुल के बड़े-बूढ़ों
की बात ही कल्याणकारी होती है, इसलिए मुसीबत
की घड़ी में बड़ों की बात माननी चाहिए- 'वृद्धानां वचनं
ग्राहामापत्काले हुअपस्थिते’(हितोपदेश)
हितोपदेश में लिखा हुआ है- उस सभा या समाज का कोई
महत्व नहीं जिसमें वृद्धजन नहीं होते ‘न सा सभा यत्र न संति वृद्धाः।
बुजुर्ग व्यक्ति वटवृक्ष की तरह होता है,
जिसकी स्निग्ध
वे वर्तमान और भावी पीढ़ी के रहनुमा होते हैं।। उनके
आचरण का प्रभाव जनसाधारण पर पड़ता है।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं
यद्धदाचरित
श्रेष्ठसतत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते
लोक्स्तदनुवर्तते।।
(गीता 3/ 21)
अर्थात श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है,
सामान्य जन्म उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने कार्यों से जो आदर्श
प्रस्तुत करता है, लोग उसी को व्यवहार में लाते हैं।
वृद्ध व्यक्ति
स्वयं कितना भी दुखी क्यों ना हो, परंतु परिवार के लिए उसके
मुख से निरंतर उपकार और सुख की ही कामना की वाणी मुखरित होती है।
वृद्धजन संस्था पुरुष होते
हैं उनका जीवन मात्र अपने परिवार के लिए ही नहीं अपितु संपूर्ण समाज के लिए उपयोगी
होता है। समाज के लोगों को सही दिशा बताना ही उनकी बहुमूल्य
समाज सेवा है। ऐसे समाजसेवी वृद्ध ही लोकप्रिय और लोकसमादरणीय होते हैं और समाज के लिए सतत वांछित भी। वृद्ध
वरिष्ठ नागरिक
भारतीय संस्कृति के विग्रहवान पुरुष होते हैं। ज्ञान और अनुभव के महाकोष के रूप में भी उनकी प्रतिष्ठा सर्वस्वीकृत होती है।
संयुक्त राष्ट्र संघ
द्वारा अंतरराष्ट्रीय वृद्धावस्था वर्ष मनाने के निर्णय की घोषणा के बाद वृद्धों
की दयनीय स्थिति में सुधार लाने तथा उनकी सामाजिक सुरक्षा के सुदृढ़ीकरण के लिए
विचार-विमर्श प्रारंभ हुआ। सरकारी विभागों तथा समाजसेवी संस्थाओं द्वारा गोष्ठियां, कार्यशालाएं, सेमिनार आदि का आयोजन होने लगे
हैं।
सरकार द्वारा वृद्धावस्था-पेंशन-योजना भी इसी आयोजन से जुड़ी है।
जिस
तरह मंदिर में प्रदीप्त दीप की आभा देवी प्रतिमा को आलोकित करती है,
उसी तरह ज्ञान और अनुभव की आभा बिखेरने वाले वृद्धों एवं बुजुर्गों
को उपेक्षा और नैराश्य के गहन अंधकार
में खोने ना दे; क्यूंकि उनका अनुभवसिद्ध परामर्श या हितोपदेश भ्रांत
समाज को सही दिशा का निर्देश दे सकता है। आज हमें इस सोच के साथ
निरंतर जागरूक रहना पड़ेगा कि हमारे वृद्धजन ही भारतीय समाज
के आधार स्तंभ है, इसलिए उनका आदर- सम्मान करना
मानव का अनिवार्य दैनिक कर्तव्य और समयाचार है। इसके लिए
समाज के दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन अपेक्षित है साथ ही
समाज को संवेदनशील और सकर्मक बनाना भी आवश्यक होगा।
वृद्धजन आचार्यकल्प होते हैं, ‘आचार्यदेवो भव’
के समनान्तार ही ‘वृद्धदेवो भव’ का महत्व समझना होगा।
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