मैं लंगोटी क्यों पहना ~ महात्मा गाँधी !!


महात्मा गांधी 23 सितंबर 1921 को तिन्नेवेली (मदुरा) की एक सभा में पहली बार लंगोटी पहन कर उपस्थित हुए। गांधी जी के शरीर पर से कपड़ों की घट जाने से लोग बहुत आश्चर्यचकित थे। गांधी जी को थोड़ी सकुचाहट थी परंतु उन्होंने अपने को संभाल रखा था। बुनकरों की इस सभा में गांधी जी प्रभावोत्पादक भाषण दिया। उनके भाषण को स्थानीय भाषा में अनुवाद कर सुनाने का काम श्री टी.आर. महादेव अय्यर तथा डॉक्टर राजन ने किया था
          अपने लंबे भाषण में गांधी जी ने कहा- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें, और वही पहन कर संतोष करें जो हम अपने घरों में तैयार कर सकें। मुझे बहुत दुख हुआ है, जब सत्याग्रह के दिनों में एक मित्र और सहयोगी विदेशी कपड़े पहने हुए मुझसे एक मोटा सा पुष्टाहार भेंट करने आए। मैंने उनसे पूछा कि आपने खद्दर क्यों नहीं पहन रखा है, क्यों पने पने पूरे शरीर पर विदेशी वस्त्र धारण कर रखा है? उन्होंने जो जवाब दिया, वह भी दुख था। उन्होंने कहा कि पर्याप्त खद्दर उपलब्ध नहीं हैऔर आप देख रहे हैं कि ऐसी ही आपत्ति करने वालों को उत्तर देने के लिए मैं आप सिर्फ एक लंगोटी पहना हूँ और मौलाना आजाद सोवामी भी उतना ही कपड़ा पहनते हैं जितना उनके धर्म की दृष्टि से जरूरी हैतो अब क्या आप मुझसे यह कहेंगे कि आपके जिले में इतना खद्दर भी नहीं मिलता जिससे आप लोग एक-एक लंगोटे भी धारण कर सकें?
          महात्मा गांधी ने 'लंगोटी' के संबंध में 23 सितंबर को मदुरा की सभा में बोलते हुए कहा था- एक उदाहरण सामने रखने के लिए मैं खुद ही कम से कम 31 अक्टूबर तक के लिए टोपी और सदरी हटाकर सिर्फ एक लंगोटी और शरीर रक्षा के लिए जरूरी होने पर चादर से ही काम चलाने जा रहा हूँगांधी जी को विश्वास है कि जो काम मैं स्वयं ना कर सकूँ उसके संबंध में दूसरों को शिक्षा देना उचित नहीं है
          लंगोटी धारण करने के पहले गांधी जी के मन में अनेक सवाल उठेउन्होंने निर्णय उतावलापन में नहीं लिया, ना ही दिखावटीपन का आभास होने दियाएक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत लंगोटी धारण किया

          गांधी जी का अपने पहनावा में बदलाव लाने के पीछे जो उनकी मानसिकता थी अथवा मजबूरी थी, उसका खुलासा नवजीवन (गुजराती) के 2 अक्टूबर 1921 के अंक में एक लेख लिखकर किया था। वह लेख मेरी लंगोटी शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

मेरी लंगोटी !!

मैंने अपने जीवन में जो भी परिवर्तन किये हैं, सभी किसी न किसी महान प्रसंग को लेकर ही किये हैं। और यह परिवर्तन मैंने इतना सोच-विचार कर किए हैं कि बाद में मुझे शायद ही पछताना पड़ा हो। फिर, ऐसे परिवर्तन मैंने तभी किए हैं जब उन्हें किये बिना मेरा ही नहीं सकता था। ऐसा ही एक परिवर्तन मदुरा में मैंने अपनी पोशाक के बारे में किया।
          ‘इसका विचार मेरे मन में पहली बारीसाल में आयाखुलना के अकाल-पीड़ितों की ओर से जब ताना मारते हुए मुझसे कहा गया कि उधर वहां के लोग अन्न-वस्त्रों के अभाव में मर रहे हैं और इधर आप कपड़ों की होली जला रहे हैं, तो मुझे लगा कि एक लंगोटी से ही मुझे संतोष करना चाहिए और कुर्ता तथा धोती (खुलना को लोगों के लिए) डॉ. इदरिस को भेज देनी चाहिए। किंतु मैंने उस भावावेश पर नियंत्रण कर लिया। कारण, उसमें अहंकार का भाव था। मैं जानता था कि उस ताने में कोई सच्चाई नहीं है। खुलना के लोगों को मदद दी जा रही थी और एक ही जमींदार में उनके दुख के निवारण की पूरी सामर्थ्य थी। इसलिए मेरा कुछ करना जरूरी नहीं था।
          ‘दूसरा प्रसंग तब आया जब मेरे साथ है मोहम्मद अली मेरे ही सामने गिरफ्तार कर लिए गए। उनकी गिरफ्तारी के तुरंत बाद मैं सभा में गया। उसी समय कुर्ता और टोपी उतार देने का इरादा किया। लेकिन फिर ऐसा सोचकर कि इसमें दिखावटीपन का दोष आ जाएगा, मैंने इस बार भी अपने भावावेश पर नियंत्रण कर लिया
          ‘तीसरा प्रसंग मद्रास-यात्रा के दौरान आया। लोग मुझसे कहने लगे कि 'हमारे पास पर्याप्त खादी ही नहीं है। और खादी मिलती है तो खरीदने को पैसे नहीं है।' मजदूर लोग अगर अपने विदेशी कपड़ों की होली जला दें तो फिर भी खादी लाए कहां से? यह बात मेरे हृदय में घर गई। इस दलील में मुझे सत्य का आभास मिलागरीब लोग क्या करें?”- इस विचार से मैं व्याकुल हो उठा। अपना दुख मैंने मौलाना आजाद सोबानी, श्री राजगोपालाचारी, डॉ. राज आदि को सुनाया और बताया कि अब मुझे सिर्फ एक लंगोटी पहन कर ही रहना चाहिए। मौलाना साहब ने मेरा दुख समझा। उन्हें मेरा विचार बहुत पसंद आया। दूसरे साथी चिंतित हो उठेउन्हें लगा कि इतने बड़े परिवर्तन से तो  लोगों में घबराहट छा जाएगी। कुछ लोग इसे समझ नहीं पाएंगे, कुछ लोग मुझे पागल मानने लगेंगे, और मेरा अनुकरण करना सभी को संभव नहीं तो कठिन अब से लगेगा। मैं 4 दिनों तक इ विचारों का मंथन करता रहा और दलीलों का गौर करता रहा। अपने भाषणों में लोगों से कहने लगा कि अगर आपको खादी ना मिले तो आप सिर्फ लंगोटी पहन कर ही रहिये, किंतु विदेशी कपड़े को तो उतार ही फेंकिये। लेकिन ऐसा कहते हुए मुझे बड़ा संकोच होता था। जब तक मैं धोती-कुर्ता वगैरह पहन रहा था, तब तक मेरी इस बात में कोई जोर नहीं आ सकता था। फिर मद्रास में मैंने स्वदेशी का जो देखा उससे भी मुझे अकुलाहट हुई। लोगों में प्रेम बहुत देखा, लेकिन वह प्रेम मुझे छूंछा लगा।
          ‘मैं फिर परेशान हो उठा, फिर साथियों से चर्चा की। उनके पास कोई नयी दलील तो थी नहीं। इस बीच सितंबर का अंत निकट दिखने लगा। इसी महीने के अंत तक बहिष्कार का कार्यक्रम को पूरा होना ही चाहिए- यह कैसे हो या मैं इसके लिए क्या करूं? ऐसा सोचते हुए हम 22 तारीख को मदुरा पहुंचे। मैंने निश्चय कर लिया और इस कठिनाई का यह हल निकला कि कम से कम अक्टूबर के अंत तक तो मैं लंगोटी पहन कर ही रहूंगा। दूसरे दिन, प्रातः काल मदुरा में बुनकरों की सभा थी। मैं उसमें मात्र एक लंगोटी ही पहन कर उपस्थित हुआ। आज यह तीसरी रात है।
          ‘मौलाना साहब को तो यह बात इतनी पसंद आई कि उन्होंने भी अपनी पोशाक में, शरीयत के मुताबिक जितना संभव था, उतना परिवर्तन कर लियापजामे की जगह छोटी लुंगी धारण की और कुहनी तक के आस्तीन का कुर्ता पहना हैनमाज पढ़ते समय सिर पर कुछ होना जरूरी है, इसलिए वे सिर्फ उस समय टोपी पहनते हैं'
          ‘दूसरे सभी साथी शांत हैंमद्रास के आम लोग इस परिवर्तन को आश्चर्य से देख रहे हैंलेकिन अगर सारा भारत मुझे पागल कहे तो उससे क्या? अथवा हमारे साथी मेरा अनुकरण न करें तो भी इस बात से क्या फर्क पड़ता है? मैं यह काम साथियों के अनुकरण करने के लिए तो किया नहीं हैइसका उद्देश्य सिर्फ जनसाधारण को धीरज का रास्ता दिखाना है, और अपना रास्ता साफ करना हैअगर मैं खुद लंगोटी पहन कर ना रहूं तो दूसरे से ऐसा करने को कैसे कर सकता हूँ? भारत में लाखों लोग नंगे घूमते हैं फिर यहां मुझे क्या करना चाहिए? जो भी हो, सवा महीने लंगोटी मात्र पहनकर रहने का अनुभव क्यों न प्राप्त करूँ? मैंने अपने वश-भर कुछ उठा नहीं रखा, इतना संतोष तो प्राप्त करूँ
          ‘ऐसा सोचकर मैंने यह कदम उठाया हैमेरे ऊपर से तो बोझा उतर गया हैयहां की आबोहवा में वर्ष के 8 महीने कुर्ता पहनने जरूरत ही नहीं लगतीउसमें भी मद्रास के बारे में तो हम कह सकते हैं कि यहाँ बारह महीनों में कभी सर्दी का मौसम आता ही नहींमद्रास में प्रतिष्ठित लोग भी धोतीके अलावा और कपड़ा बहुत कम पहनते हैं
          भारत के कपड़ों किसानों की पोशाक तो लंगोटी ही है वे इससे कुछ अधिक नहीं पहनते, ऐसा मैंने सब जगह देखा है

मैं सिर्फ इसी इच्छा से लिख रहा हूं कि पाठक मेरे मन की सोच समझेंमैं ऐसा नहीं चाहता कि मेरे साथी अथवा पाठकगण सिर्फ लंगोटी ही पहन कर रहें लेकिन यह अवश्य चाहता हूँ कि वह सब विदेशी कपड़ों का बहिष्कार का पूरा अर्थ समझें और खादी के उत्पादन के लिए उन से जितना बन पड़े, करेंवे समझें कि स्वदेशी ही सर्वस्व है

हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से एक अजीब सी नयी परंपरा का चलन हो गया है कि हम आज किसी भी महान व्यक्ति की जयंती/पूण्यतिथि के दिन उस व्यक्ति की बुराई सोशल मीडिया पर अवश्य करते हैं। वर्तमान के परिपेक्ष्य में यदि वह व्यक्ति महात्मा गांधी हो........तो आज के हमारे युवावर्ग की विचारों को पढने के उपरांत मेरे मन में सिर्फ एक ही ख्याल आता है कि वर्तमान समय के युवा वर्ग या तो किसी भी व्यक्ति के बारे में बिना कुछ पढ़े तीसरे स्तर के झोलटंग नेताओं द्वारा फैलाई हुई भ्रामक तथ्यों को स्वीकार कर लेते हैं अथवा वे मानसिक रूप से पूर्णतया विकलांग हो चुके हैं। आज देश के वे सपूत जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ से परे राष्ट्र-निर्माण में अपना सर्वस्व होम कर दिया हो.....आज उस व्यक्ति का मूल्याङ्कन बामपंथ और दक्षिणपंथ के नाजिरिये से देखा और किया जाता है। चाहे वह सरदार भगत सिंह हो या फिर महात्मा। 
          व्यक्ति में बुराई हो सकती है.....मगर किसी संस्था में नहीं। सरदार/ गाँधी/ नेहरु/ सुभाष....इत्यादि  कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार था। आप व्यक्ति को तो मार सकते हैं........पर  विचार को नहीं महात्मा पर सदैव यह आरोप लगता आया है कि गांधी जी का आंदोलन भावनाओं पर आधारित था। उनके पास सोच की कमी थी“-  ऐसे विचार रखने वालों का एक समूह है। 
          ऐसे ही प्रभावों से प्रेरित था - 'गाँधी' फिल्म का निर्मता  रिचर्ड एटनबरो गांधी फिल्म में महात्मा गांधी को बिहार राज्य के आरा जिलान्तर्गत कोइलवर स्टेशन के पास सोन नदी के तट पर एक गरीब महिला को फटे कपड़े पहने देख द्रवित हो गए और तत्क्षण उन्होंने अपना साफा उतारकर नदी में बहा दिया....जो बहते हुये वह वस्त्र उस गरीब महिला तक पहुँच गयी और यहीं पर उन्होंने लंगोटी धारण कर लिया- ऐसा दर्शाया गया हैलेकिन यह दृश्य बिल्कुल काल्पनिक हैगांधी नें लंगोटी क्यूँ पहनी, इसका खुलासा उन्होंने स्वयं लंगोटी पहनने के दिन ही किया था गाँधी जी ह्रदय से महात्मा थे और मस्तिष्क से सभी के बापू 
गाँधी आज भी समझा जाना शेष है..................................!!

Comments