केरल त्रासदी ~ ‘आखिर हम चाहते क्या हैं' ?
‘जो इतिहास को याद नहीं रखते, उनको इतिहास को दुहराने का दंड मिलता है’.......(जार्ज
सन्तायन)। प्रकृति और मनुष्य के बीच बहुत गहरा
संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य के लिए धरती उसके घर का आंगन, आसमान छत, सूर्य-चांद-तारे दीपक, सागर-नदी पानी के मटके और
पेड़-पौधे आहार के साधन हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य के लिए प्रकृति से अच्छा गुरु
नहीं है। आज तक मनुष्य ने जो कुछ हासिल किया वह सब प्रकृति से सीखकर ही किया है। जहाँ
गुरुत्वाकर्षण जैसे सिद्धांत हमें प्रकृति ने सिखाए हैं तो वहीं कवियों ने प्रकृति
के सानिध्य में रहकर एक से बढ़कर एक कविताएं लिख जनमानस में सकारात्मक बदलाव लाये।
प्रकृति
हमें कई महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाती है। जैसे-पतझड़ का मतलब पेड़ का अंत नहीं है। फलों से लदे, मगर नीचे की ओर झुके पेड़
हमें सफलता और प्रसिद्धि मिलने या संपन्न होने के बावजूद विनम्र और शालीन बने रहना
सिखाते हैं। प्रेमचंद के विचार से साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है, जो जीवन में प्रकृति का
है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि प्रकृति में हर किसी का अपना महत्व है। एक छोटा-सा कीड़ा
भी प्रकृति के लिए उपयोगी है, जबकि मत्स्यपुराण में एक वृक्ष को सौ पुत्रों के समान
बताया गया है। इसी कारण हमारे यहां वृक्ष पूजने की सनातन परंपरा रही है। पुराणों में
कहा गया है कि जो मनुष्य नए वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षो तक फलता-फूलता
है, जितने वर्षो तक उसके लगाए वृक्ष फलते-फूलते हैं।
श्रेष्ठतम बुद्धि और ज्ञान रखने वाले हम मनुष्य जाति विकाश के नाम पर जिस तरह से अपने क्षुद्र स्वार्थ और लोभ वश प्रकृति
के श्रृंगार जंगलो को काटते
जा रहे हैं, नदियों
के नैसर्गिक प्रवाह को बंधों के माध्यम से अवरोध पैदा कर रहे हैं उसका ही परिणाम
है कि वे अब मानव बस्तियों की ओर
रुख कर रहे हैं जो मानव के अस्तित्व के लिए गम्भीर संकट पैदा कर रही, जंगल में रहने वाले जीव जन्तु से बचाव के लिए हम अब इनका वध करना शुरू कर दिए हैं जिससे इन बेजुबान प्राणियों के अस्तित्व पर खतरा खड़ा हो गया है एवं परिस्थितिक्य समंजस्व एवं
संतुलन बिगड़ रहा है।
.......आखिर हम चाहते क्या हैं? क्या विकाश के नाम पर हम यह चाहते हैं कि हमारे अलावा इस धरती पर और कोई भी जिव-जंतु न रहे? क्या हम सिर्फ इसलिए ही प्राकृतिक प्रदत्त संसाधनों को विकाश के नाम पर उजाड़ने के पीछे पड़ गये हैं?
देवस्थली मानी जाने वाली 'केरल' में असामान्य
बारिश ने जो तबाही मचाई है यह सब
प्रकृति के द्वारा अंजाम दी जा रही घटना है। जिस पर मानव का कोई बस चलता नजर नही आ रहा है। मानव
द्वारा अभी तक की गई वैज्ञानिक तरक्की भी प्रकृति के क्रोध के सामने बौनी और असहाय नजर आ
रही है। इन सब पीछे तो एक ही कारण नजर आता है और
वह है प्रकृति के साथ मानव द्वारा किया गया खिलवाड़, उसका अविवेकपूर्ण अन्धाधुन्द
दोहन और बेवजह की दखल अंदाजी। परिणाम स्वरूप अब मानव को प्रकृति के कोप भाजन का
शिकार तो होना पड़ेगा, और ऐसा क्रोध जिससे पार पाने में हम लाचार और नाकाम साबित हो रहे हैं।
प्रकृति के प्रकोप से बचने का एक ही रास्ता नजर आता है कि हमें प्रकृति के पांच तत्त्व 'जल', 'अग्नि', 'पृथ्वी', 'वायु' और 'आकाश' के बीच सामंजस्य
बनाना बहुत ही जरूरी है। यदि हम इनमे से किसी के साथ भी खिलवाड़ और गैर जरुरी दखलंदाजी करते हैं तो कही सूखा और अकाल तो कही भारी वर्षा और
बाढ़, कहीं तूफान तो कही भूकंप, कहीं बे मौसम बारिश तो कहीं भारी गर्मी जैसे भयंकर परिणाम हमें भुगतने के लिए तैयार रहना ही पड़ेगा।
प्रकृति अपने हर रूप में हमें जीवन दान देती
है। इसे संजो कर रखना हमारा कर्तव्य बनता है। जहाँ एक ओर
वृक्ष हममें परोपकार की भावना का सृजन करती
है तो दूसरी तरफ विभिन्न ऋतुएँ हमें
परिवर्तनशीलता सिखलाती है, जो हर परिस्थिति में चाहे बसंत हो या
पतझड़ ये हमें अटल रहना सिखाती हैं।
जहाँ सूर्य निरंतर बिना रुके, बिना थके क्रियाशील
रहने का सन्देश देते हुए हमें स्वयं जलकर प्रकाश
देता है, तो आसमान- हमारे सपनों को ऊंचाई देता है, स्थिरता की सिख देती है। जहाँ सागर हमें गम्भीरता का पाठ पढ़ाती है तो पर्वत दृढ़ता का। एक तरफ नदियाँ -
पर्वतों का सीना चीरते हुए, मुसीबतों से
लड़ना सिखाती है तो दूसरी तरफ वायु- अपनी शीतलता व् सुगंध से सबको मदमस्त कर
देती है ।
प्रकृति
की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अपनी चीजों का उपभोग स्वयं नहीं करती। जैसे-नदी अपना
जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल खुद नहीं खाते, फूल अपनी खुशबू पूरे वातावरण में फैला देते हैं। इसका
मतलब यह हुआ कि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती, लेकिन मनुष्य जब प्रकृति
से अनावश्यक खिलवाड़ करता है तब उसे क्रोध आता है। जिसे वह समय-समय पर सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान के रूप में व्यक्त
करते हुए मनुष्य को सचेत करती है।
प्रकृति से छेड़छाड़ मानव सभ्यता के विनाश का कारण है।
जब भी हमने प्रकृति के नियमों में दखलअंदाजी की है प्रकृति ने बाढ़, सूनामी, भूकंप
जैसी विनाशकारी आपदाओं के जरिए हमें दंड दिया है। इन दिनों सिर्फ भारत ही नहीं
बल्कि पूरी दुनिया प्रकृति की नाराजगी के रूप में हमें इशारा कर रही है कि हमने अब
भी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की तो मानवता का सर्वनाश अवश्यंभावी है। प्रकृति
के साथ जिस तरह का व्यवहार हम कर रहे हैं उसी तरह का व्यवहार वह भी हमारे साथ कर
रही है।
आज हम यह भूल चुके हैं कि सदियों से प्रकृति भारी बारिश
के माध्यम से धरती को उपजाऊ बनाने का पावन कार्य करती थी। बारिश का पानी पहाड़ों
से बहता हुआ अपने साथ पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी भी फसल वाली धरती तक फैलाता हुआ चला
जाता था, तभी तो हमारी धरती शस्य- श्यामला और सुजला- सुफला बनी हुई थी। भारत को
सोने की चिडिय़ा यूं ही नहीं कहा जाता था। लेकिन तब मनुष्य अपनी बुद्धिमता का
प्रयोग अपनी धरती मां की उन्नति और उसे बचाए रखने के लिए करता था न कि अपनी
स्वार्थ पूर्ति के लिए।
वर्तमान में अपने क्षणिक लाभ के लिए मानव ने प्राकृतिक
संसाधनों का जिस बेदर्दी से अंधाधुंध दोहन किया है, उसका लाभ तो उसे त्वरित नजर
आया लेकिन वह लाभ उस नुकसान की तुलना में नगण्य है जो समूचे पर्यावरण, प्रकृति एवं
उसमें रहने वाले प्राणियों को उठाना पड़ रहा है। इन दिनों जैसा दृश्य समूचे विश्व
में प्राकृतिक-असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण के रूप में दिखाई दे रहा है वह सब
मानवीय भूलों का ही परिणाम है, अत: दुनिया में मानवता को यदि बचा कर रखना है तो
सबकी भलाई इसी में है कि हम जिस डाल पर खड़े हैं, उसी को काट गिराने का आत्मघाती
कदम न उठाएं। इसे संजो कर रखना हमारा कर्तव्य है, अन्यथा यह हमारे दरवाजों पर
प्रतिशोध के विकराल रूप में
निश्चित ही दस्तक देगी ----।
कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि मानव सभ्यता
के कांटों के सौगात के बदले, प्रकृति
अब भी मानव को फूलों का गुलदस्ता बिना रुके, बिना थके भेंट करती जा रही हैं। क्या सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव, पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचाकर सृष्टि की सबसे विकृत
कृति बनता जा रहा है? मानव
तो नहीं, लेकिन
मानव द्वारा अंगीकृत आर्थिक विकास मॉडल जरूर विकृत होता जा रहा है।
बहुत बढ़िया आलेख. एकदम सही और सटीक आंकलन किया है आपने.
ReplyDeleteइन दिनों तो मानव भी विकृत होता जा रहा है.