'जनकवि' बाबा नागार्जुन :~ शोषित-उत्पीड़ित जनता की आवाज !!
कवि
नागार्जुन की सामाजिक चेतना !!
(30 जून 1911— 05 नवम्बर 1998)
सामाजिक चेतना नागार्जुन की कविताओं की रीढ़ है जो
उन्हें ‘जनकवि’ के रूप में हमारे बीच खड़ा करती है। बिहार के
किसान आन्दोलन एवं देश के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े रहने के कारण नागार्जुन
किसानों तथा आम अवाम की समस्याओं से रु-ब-रु हुए और विपुल अनुभव -सम्पदा की यह धरा
उनकी कविताओं में प्रवाहित होती है। ये कविताएँ इस अनुभूति से ही उर्जा पाती है। ‘यात्री’ नाम
से कविता लिखने की शुरुआत करने वाला ‘यात्री’ अपनी साहित्य-यात्रा के क्रम में ‘ नागार्जुन
‘ नाम
से जनमानस में रचा-बसा और तत्कालीन समाज के यथार्थ शोषण, उत्पीडन, गरीबी, संघर्ष, व्याप्त
कुरीतिओं एवं दर्द अदि को उन्होंने अपनी कविताओं में उकेरा है। दर-असल, नागार्जुन
खुद भी गरीबी की कोख से जन्में और आजीवन गरीबी ही भोगते रहे। एक कविता में कहा भी
है :-
पैदा
हुआ था मैं,
दीन
-हीन अपठित किसी कृषक-कुल मेंआ रहा हूँ
पिता अभाव का आसव ठेठ बचपन से।
अभाव का यह ‘आसव’ उनकी कविताओं,
रचनाओं का भी सर्वदा सिंचित, अभिसिक्त
करता रहा है:-
कुली मजदूर हैं,/ बोझ
धोते हैं, खींचते हैं ठेला/ धूप-धुंआ-भाप से पड़ता है
साबकाथके-मानदे जहाँ तहां हो जाते हैं ढेर/ सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन’।
नागार्जुन आजीवन ‘धरती की धड़कन’
के साथ ही जुड़े रहे और अपनी इस ‘प्रतिबद्धता’ को
उजागर करने में भी नहीं हिचकिचाए:- “प्रतिबद्ध हूँ, जी
हाँ, प्रतिबद्ध हूँ/ बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के
निमित्त/ प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, सतधा प्रतिबद्ध हूँ।“
नागार्जुन उन अस्सी-नब्बे फीसदी भारतवासियों के
कवि हैं जो आतंक, अभाव, गरीबी एवं शोषण के साए में यथासाध्य म्हणत करके
तंग जिंदगी जीने को मजबूर हैं, पर वे कवि नागार्जुन की आँखों से ओझल नहीं हैं:- “मैंने
जब से देखा/ आदमी कमर से टूटा भर ही नहीं,/ फटा हुआ भी
है/ फिर भी कवायद कर रहा है।।“ (युगधारा)
इस “टूटे-फूटे”
आदमी को नागार्जुन ने अपनी कविताओं के
केंद्र में रखा है और इन वंचित, बदहाल एवं तुच्छ व्यक्तिओं के बारे में लेखनी
उठाई है:-
लेखनी ही हमारा फार/ धरा है पट, सिन्धु
है मसि-पत्र/ तुच्छ से तुच्छ जन पर हम लिखा करते/ क्यूंकि हमको स्वयं भी तुच्छता
का भेद है मालूम।
भोगे हुए यथार्थ को उजागर करने वाला कवी एक सशक्त कवि है। गरीबों की और से
इतनी शक्ति, सहस और प्रचंड वेग के साथ आधुनिक काल में जिन
कवियों ने लिखा उनमें नागार्जुन संभवतः अन्यतम हैं। गरीबी का चित्रण मार्मिक एवं
अंतरतम को छुने वाला क्यूँ न हो क्यूंकि यह भोगी हुई दरिद्रता है: “मैं
दरिद्र हूँ पुष्ट दर पुश्त की यह दरिद्रता,
कटहल के छिलके जैसी खुरदरी जीभ से मेरा
लहू चाटती आई।“ तभी तो ‘जया’ नाम की अपनी शुरूआती कविता में एक गूंगी लड़की की
पीड़ा को इन शब्दों में उकेरित किया :-
‘कैसा असहाय,
कितना जर्जर
यह मध्यमवर्ग
का निचला स्तर’
नागार्जुन जानते थे कि उनके
जैसे तो लाखो-लाख हैं, कोटि-कोटि हैं। उन्ही लाखों करोड़ों लोगों की
जिंदगी के बारे में उन्होंने अपनी कविताओं में मुख्यतः लिखा है। यहाँ एक कविता की
ये पंक्तियाँ मर्म को छू लेती हैं:-
‘फटे
वस्त्र हैं/ घर से कैसे निकलेगी लजवंती/ शर्म न न आती मना रहे वे महंगाई की
रजत-जयंती’
इस कविता का सारा मर्म, दर्द ‘लजवंती’ शब्द में निहित है और नव कुबेरों तथा सरकारी तंत्र की बेरुखी की
ओर भी इशारा करती है जो कमर-तोड़ महंगाई की रजत-जयंती मना रहे हैं। यह चित्रण आज के
माहौल में काफी सटीक और समीचीन है।
नागार्जुन की दृष्टि निखालिस जनमुखी है। कवितायेँ सामाजिक चेतना से
ओत-प्रोत है और इन कविताओं में कवि ने सामाजिक विषमताओं एवं महंगाई पर सपाट प्रहार
किया है। एक कविता में नागार्जुन कहते हैं:-
‘देश हमारा भूखा नंगा घायल है बेकारी से
मिले न रोजी
रोटी भटके दर-दर बने भिखारी से’(जनयुग, 4 जनवरी 1968)
नागार्जुन की सामाजिक चेतना
की पहली मुठभेड़ धर्म की जकडबंदी से हुई। उन्होंने देखा कि समाज में धर्म के नाम पर
भेदभाव, आतंक, अन्याय और उत्पीडन का सिलसिला चल रहा है। देश
जातियों, वर्गों और
सम्प्रदायों में बिभक्त है। अधिकांश लोग धर्म के नाम पर अपनी रोटी सकने में
लगे हैं और संप्रदायीक तनाव फैला कर अपना काम निकल रहे हैं। नागार्जुन ने इन
महंथों और मठाधीशों पर ही अपनी रचनाओं में चोट की है। उन्होंने यह भली-भांति अनुभव
किया कि समकालीन जीवन में धर्म की कोई प्रगतिशील सामाजिक भूमिका नहीं रह गयी है।
वह धनिक जन की सम्पदा और साधारण जन की विपदा से सम्बद्ध है। वह साधारण जन को
तरह-तरह के अमानुषिक और प्राकृतिक विधि-निषेधों से उलझता है। जीवन को निरर्थक
मानकर उसमे पलायन का उपदेश देता है और इस तरह जन संघर्ष को कुंठित करके वर्तमान
भेदभाव और अन्याय उत्पीडन की रक्षा करता है। यही कारण है कि नागार्जुन ने “हे
हमारी कल्पना के पुत्र, हे भगवान”
कह कर(हजार-हजार बाँहों वाली) मानव चेतना
से दैवी-शक्तियों का आतंक उतर फेंकते हैं। धर्म को लेकर चलने वाले अत्याचार में ‘कुवर
घराना’ सम्पदा प्राप्त करता है और ‘गरीब
घराना’ विपदा। यह एक शाश्वत सत्य है और इसी तथ्य को
नागार्जुन ने अपनी एक कविता में कहा है: “खादी के मलमल से सांठ-गांठ कर डाली है। टाटा
बिरला डाल दिया की तिसो दिन दिवाली है।“ हंस (रामराज कविता)1949
करतब दिखाकर साधारण लोगों से पैसे ऐंठने वाले ‘बाबाओं’ को
देखकर नागार्जुन दांतों तले उंगली नहीं दबाते बल्कि उन पर हँसते हैं:- “काँटों
पर नंगा सोया है।/ ठिठक गया मैं लगा देखने।/ उस औघड़ बाबा के करतब।/ पियो संत हुगली
का पानी,/ पैसा सच है, दुनिया फानी” (प्यासी
पथराई आँखें)
तरह-तरह के ठगने वाले ‘बाबा’ केवल
कलकत्ता शहर में नहीं हैं, बल्कि सर्वत्र हैं- तरह-तरह के ठगी के रूप में।
ऐसे लोग कवि की पैनी दृष्टि की पकड़ में आ जाते हैं:- मुड़ रहे दुनिया जहान को, तीनों
बन्दर बापू के/ चिढ़ा रहे आसमान को, तीनों
बन्दर बापू के / बदल-बदल कर रखे मलाई,
तीनों बन्दर बापू
के। (तुमने कहा था)
अपने देश में फ़ैल रहे
क्षेत्रीयतावाद तथा प्रांतवाद की संकीर्ण भावनाओं एवं विचारों की ओर इशारा जनकवि
ने अपनी कविता में किया है और इस पर करार व्यंग भी किया है:- ‘स्थापित
नहीं होगी क्या/ लाला लाजपत राय की प्रतिमा मद्रास में?/ दिखाई
नहीं पड़ेंगे लखनऊ में सत्यमूर्ति?/ सुभाष और जे. एम. दीं गुप्त सीमित रहेंगे?/ भवानीपुर
और शाम बाजार की दुकानों तक।/ तिलक नहीं निकालेंगे क्या पूना से बाहर?(युगधारा)
नागार्जुन की यह कविता देश
में मौजूद आज की अवस्था की ओर भी एक स्पष्ट इशारा है। आज भी देश में एक प्रान्त के
लोगों का दुसरे प्रांत में रहने में आपत्ति है और यह देश की एकता पर खतरा चिन्ह
है। भविष्य द्रष्टा नागार्जुन की उपर्युक्त पंक्तियाँ आज भी सटीक हैं।
नागार्जुन ने अपनी कविताओं में केवल गरीब, भूमिहीन किसान एवं
मजदूरों की दुर्दशा का ही चित्रण नहीं किया है;
बल्कि शिक्षा की बदहाल हालत की ओर भी
दृष्टिपात किया है और ‘आदमके साँचे’
गढ़ने वाले एक भारतीय स्कूल के मास्टर की
दयनीय स्थिति को दर्शाया है:- “घुन खाए शहतीरों पर की बाराखडी विधाता बाँचे,/ कटी
भीत है, छत छूती है, आले सर वास्तुइया
नांचे।/ बरसाकर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पांच तमाचें/ दुखहरन मास्टर
गढ़ते-रहते किसी तरह आदम के सांचे।“
यह चित्र आज भी भारत के अधिकांश ग्रामीण विद्यालयों में देखने को मिलता है।
विद्यालयों के भवनों की स्थिति अत्यंत ख़राब है,
जीर्ण-शीर्ण है और विद्यार्थियों पर
मारपीट करके ‘किसी भी तरह आदम के सांचे गढ़ने’ का
प्रयास आज के शिक्षक भी कर रहे हैं।
कवि नागार्जुन नारी की आर्थिक और समाजिक स्वतंत्रता के हिमायती हैं। वह इस
बात में विश्वास करते हैं कि यह स्वतंत्रता नारी अपने ही बलबूते पर प्राप्त करेगी।
‘रतिनाच
की चाची‘ में उन्होंने नारी की सामाजिक विवशता और उसकी
अन्तः शक्ति का निरूपण किया है। ‘कुम्भीपाक’
में यही लेखक नारी को सुविधा और विकास के
शोषण से मुक्त कर उसे स्वावलंबी बनाना चाहता है। अपनी कविताओं में भी उन्होंने
नारीमुक्ति और स्वतंत्रता की हिमायत की है। आजादी दिलाने से कुछ ही पहले ‘रामकथा’ के
एक मौलिक प्रसंग को आधार बनाकर नागार्जुन ने एक ‘ पाषाणी’ कविता
लिखी थी। ‘पाषाणी’ ‘अहल्या’ के मिथक पर आधारित है। राम ‘पाषाणी’ का
उद्धार करते हैं, उसे निष्कलुष,
निष्पाप ही नहीं करते, ‘माँ’ कहकर
घुटने टेक प्रणाम भी करते हैं। नारी के सम्मान का यह धोत्तक है।
समाज के व्याप्त घनघोर अकाल को
अवस्था भी कवि की पैनी निगाहों से नहीं बच पाती है और वे उसका मार्मिक चित्रण ‘अकाल
और उसके बाद’ नामक कविता में यूँ करते हैं:- “कई
दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास/ कई दिनों तक कानी कुतिया सोई
उसके पास,/ कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियो की गस्त/ कई
दिनों तक चूहों की हालत रही शिकस्त/ दाने आए घर के अन्दर कई दिनों के बाद, / धुंआ
उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद, /
कौवे ने खुजलाई
पाँखे बहुत दिनों के बाद।“
नागार्जुन ने जहाँ भी खोट देखी, चोट दे मारी,
चाहे वह सामाजिक विद्रूपता हो, चाहे
राजनीतिक विकृतियाँ। इनकी कवितायेँ आसानी से जुबान पर चढ़ जाती हैं, नारा
बन जाती है क्यूंकि यह सपाट बयानी ह्रदय से निकलती है। उन्होंने कहा भी है- ‘ह्रदयधर्मी
जनकवि मैं।‘
नागार्जुन ने दो तरह की राजनीतिक कवितायेँ लिखी
हैं- एक सरकार और शोषण तंत्र के खिलाफ, दूसरी मेहनतकश जनता के पक्ष में। नागार्जुन ने
शासकों के सभी छल-छद्मों का पर्दाफाश किया है,
नेहरु से लेकर इंदिरा गाँधी तक, मोरारजी
देसाई से जयप्रकाश नारायण होते हुए भगवाधारीयों तक। स्वातंत्र्योत्तर भारत के
अधिकांश नेता उनके काव्य-एलबम में अनेक मुद्राओं में मौजूद हैं। तभी तो आजादी के
बाद जब कवि ने देखा कि बलिदान और त्याग का आदर्श प्रस्तुत करने वाले गाँधी के
अनुयायी स्वार्थ परता और भ्रष्टाचार में लिप्त हैं तो वह कह उठाते हैं:-
लाज
शर्म रह गयी न बाकी गाँधी के चेलों में
फूल
नहीं लाठियां बरसतीं रामराज्य के जेलों में।
अतः समाज की तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में
नागार्जुन की जो विचारधारा नवजागरण के लिए प्रवाहित होती है, वह
उनकी सामाजिक चेतना है।
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