आपणो राजस्थान !!
राजस्थान
का भारतीय इतिहास के क्षेत्र में अहम् योगदान रहा है। जिस प्रकार की भूमिका
गंगा-यमुना दोआब की प्राचीन भारत के इतिहास निर्माण में रही थी उतनी ही महत्वपूर्ण
भूमिका राजस्थान की मध्यकाल के इतिहास निर्माण में रही। अगर हम यू कहें कि
मध्यकालीन इतिहास राजस्थान के इतिहास के बिना अधूरा है तो भी अतिश्योक्ति नहीं
होगी। राजस्थान का इतिहास रोमांच से भरा पड़ा है यहीं कारण था कि रोमांटिक युग के
इतिहासकार इसकी ओर आकर्षित हुए और उन्होंने अपने कलम की स्याही को दिल खोलकर
इतिहास के पृष्ठों पर खर्च किया एवं इस छोटे से राज्य के इतिहास को जग प्रसिद्वि
दिला दी।
इस रंगीलो
राजस्थान में सच में न जाने कब क्या दिख जाये, जहाँ
प्रकृति ने अपने विविध रंगो से इसका श्रृंगार किया है वहीं नदी, नाले,
मैदान, पहाड़ एवं मरूभूमि इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा हुए
है। इसके मैदानों एवं पहाड़ों पर खड़े दूर्ग, स्मारक
एवं इमारते जहाँ शौर्य, कला एवं प्रेम का अनूठा मिश्रण प्रस्तुत करते है वहीं
ये उस गौरवशाली एवं सुनहरें अतीत के साक्षी भी हैं जब राजस्थान की तूती दिल्ली में
बोलती थी, उस अतीत के साक्षी है जिसमें शूरवीरों के शौर्यपूर्ण कृत्य को
इतिहास के पृष्ठों पर रक्त से लिखा गया।
राजस्थान
की धरा वीर प्रसूता रही है जिसके पग-पग पर एक रणभूमि है जहाँ पर रणबाँकुरों के
रणकौशल की गाथाएँ इसका कण-कण गाता है। इतिहास के कानन में विचरण करने वाले मनीषियों
को राजस्थान की धरा पर जंमे शूरवीर, पराक्रमी योद्धओं के साहसिक कर्मों
ने सदैव आकृष्ठ किया है। इन्हीं मनीषियों में एक कर्नल टॉड भी है जिन्होंने स्वंय
कहॉ है कि ’’राजस्थान में कोई भी छोटा-सा राज्य भी ऐसा नहीं है,
जिसमें थर्मोपल्ली जैसी रणभूमि न हो और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले, जहॉ
लियोनिडस जैसा वीर पुरूष उत्पन्न न हुआ हो।’’ यह धोरों
की धरती वीरता व पराक्रम के साथ ही उपने राष्ट्र प्रेम, संस्कृति,
स्वामीभक्ती एवं गौरक्षा के लिए प्राणों को उत्सर्ग करने हेतु तत्पर रहने
वाले शूरवीरों की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। इस धरती के केवल पुरूष ही
नहीं बल्कि बच्चे व औरते तथा उससे भी बढ़कर पशु भी अपने वीरोचित एवं लोमहर्षक
कर्मों से दाँतो तले अंगुलियॉ दबाने को मजबूर कर देते है। बच्चों में बालक चंदन
तथा कालीबाई, महिलाओं में हाड़ी की रानी सॅलह कॅवर एवं रानियों के
जलती ज्वालाओं में जौहर करने के उदाहरण अतुल्नीय है। पशुओं में सर्वविदित एवं
परिचित स्वामीभक्त राणा प्रताप का घोड़ा चेतक है, जिस वीरता
का प्रदर्शन चेतक ने समर भूमि में किया था उसका बेहद सुन्दर वर्णन श्यामनारायण
पाण्डे ने अपनी कविता में किया है-
रण बीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला थ
राणा प्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था।।
यहाँ की
संस्कृति ही अद्वितीय और अनुपम है। यह वह धरती है जहॉ माँ अपने बच्चे को पालने में
ही यह सिखाती है भले ही अपने प्राणों की बाजी लगा देना पर अपनी धरती को शत्रु के
हाथ में मत जाने देना –
इला न देणी आपणी, हालरियाँ
हुलराय
पुत सिखावे पालणै, मरण
बढ़ाइ माएँ।।
वीरता,
त्याग एवं राष्ट्रप्रेम के गुण तो इसकी मिट्टी एवं हवा में जिस वजह से इस
माटी के वीरपुरूष रण में अपने लहू से मिट्टी को लाल करना तो स्वीकार है किंतु समर
भूमि में शत्रु को पीठ दिखाना कदापि स्वीकार नहीं है। वे विजय एवं वीरगति में से एक विकल्प ही
चुनते है अतः सच ही इस क्षेत्र की अद्भुत संस्कृति के बारे में कहा गया है-
पांणी रौ कांई पिवै, रगत
पीवणी रज्ज।
संकै मन में आ समझ, घण
नह बरसै गज्ज।।
निश्चय ही
इस प्रदेश की भूमि वीर भोग्या रही है किंतु यहाँ जिगीषु एवं धीरोदात्त नयाकों के
अतिरिक्त धीरललित, धर्मनिष्ठ, दैवज्ञ, दूरदर्शी,
कलाप्रिय, विद्वान एवं जितेंद्रिय राजा तथा नायक भी हुए है।
दैवज्ञ नरेश सवाई जयसिंह, वाणी-विलास-वैभव के प्रतीक कुंभा,
विद्वान एवं विद्वानों के आश्रयदाता विग्रहराज एवं जितेंद्रिय नागरीदास
आदि ऐसे भूपति हुए है जिनमें कला, कलम एवं कटार का दुर्लभ सामंजस्य
दिखाई देता है। वास्तव में यहाँ का इतिहास अद्वितीय, अद्भुत
एवं अतुल्नीय है। यहाँ राज्यों का उत्थान-पतन भी है तो दरबारी गुटबंदी, गठबंधन,
समर्थन एवं दुरभिसंधी भी है। यहाँ ढोला-मारू का प्रेमाख्यान है तो
मूमल-महेन्द्र की विरह व्यथा भी है, यहाँ राजपाट त्याग कर जन-जन में
भक्ति की अलख जगाने वाले संत पीपा भी है तो कृष्ण भक्ति के रस से समस्त उत्तर भारत
को प्लावित करने वाली मीरा भी है। यहाँ पृथ्वी के गुरूत्वार्षण सिद्धांत का
प्रतिपादन करने वाले संसार के पहले विद्वान ब्रह्मगुप्त भी है तथा महाविद्वान
महाकवि माघ भी है।
सच में यह
भूमि निराली है। इस प्रदेश के गौरवशाली अतीत की खुशबू से इतिहास के पृष्ठ आज भी
महक रहे है। महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी इतिहास के गौरव को क्या खूब अपनी
कविता की पंक्तियों में व्यक्त किया है-
उस अतीत की गौरव गाथा
छिपी उन्हीं उपकूलों में
कीर्ति-सुरभि वह गमक रही
अब भी तेरे वन-फूलों में।
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