'मेरी सबसे बड़ी पूंजी है, मेरी चलती हुई सांस'~ केदारनाथ सिंह !!
.....और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं
उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल
और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं
उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे
वादा है
कि
मिलूंगा।
मै अपने को उन सौभाग्यशाली लोगों में
मानता हूँ जिन्हें केदारनाथ सिंह के साथ भोजपुरी भाषा के विकास के लिए उनको सहयोग
करने का अवसर प्राप्त हुआ है। वे अद्भुत शिक्षक थे और निराला की ‘राम की
शक्तिपूजा’ और मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ जैसी जटिल संवेदना वाली कविताओं को इतने
सरल और सहज रूप से व्याख्यायित करते हुए अपने छात्रों के लिए बोधगम्य बना देना और
उनके मन मष्तिष्क में कविता के प्रति रूचि पैदा कर देना उनकी अद्भुत खूबी रही है।
वे नयी कविता आन्दोलन के अग्रणी कवियों
में से एक थे। लेकिन वे कभी भी नयी कविता आन्दोलन की रूढ़ियों और साथ ही साथ यों
कहा जाय कि समकालीनता की रूढ़ियों के गुलाम नहीं रहे। निःसंदेह केदारनाथ सिंह
समकालीन हिंदी में जनपदीय चेतना और गीतात्मकता के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं। यह लोक जीवन से उनके गहरे रिश्ते का
प्रमाण है। वे खेत, खलिहान,
कृषि और ग्रामीण
संस्कृति से जुड़े ठेठ देशी मुहावरों, जुमलों और शब्दों का इस्तेमाल करते हुए गहन,
गंभीर संदेश देने
वाली कविताओं की रचना की, जिसमें इंसानियत, संस्कृति, प्रकृति, पर्यावरण,नव उदारवाद, भूमंडलीकरण सहित देश और दुनिया के एक
व्यापक परिवेश को समेट लेते हैं। भाषा और कथ्य की सहजता उनकी कविताओं का प्राणतत्व
है और यही उनकी खूबी है। केदारनाथ सिंह अपने विचारों और संवेदनाओं को अधिकाधिक लोगों तक
संप्रेषित करने के लिए बेहद सीधे-सादे ज़ुबान में अभिव्यक्त करते थे और इस
प्रक्रिया में वे कुछ ऐसा कह जाया करते थे जिसका दायरा धर्म, जाति, भाषा, प्रदेश और देश से ऊपर उठते हुए विश्व
समुदाय तक फैल जाता था। वे अक्सर साधारण सी दिखने वाली घटनाओं के माध्यम से
असाधारण बात कह जाते थे।
उनकी कविताओं में गाँव की स्मृतियाँ ही
सहज रूप में ही नहीं कौंधती हैं बल्कि गाँव के खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, गली चौपाल और पशु पक्षी भी पूरी
जीवन्तता के साथ उपस्थित होते हैं और पूरे ग्रामीण सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश
में मानव सबंधों के बनते बिगड़ते स्वरुप को उजागर कर जाते है जो पाठक के
मन-मष्तिष्क पर लम्बे समय तक छा जाती है। उनमें ठेठ गंवई किसान का जीवन मुखर हुआ
है और वे कुदाल जैसे ठेठ ग्रामीण किसानी उपकरण के माध्यम से शहर की विसंगतियों पर
अंगुली उठाते है। ‘जाड़ों
के शुरू में आलू’ कविता में केदारनाथ सिंह जी आलू के माध्यम से लूट खसोट वाली
व्यापारिक संस्कृति को उजागर करते है- वह जमीन से निकलता है और सीधे/बाजार में चला
जाता है।’ किसान की पैदावार बाजारों में बिक जाती है जहाँ
दलाली, सट्टेबाजी
और लूट खसोट का माहौल इस कदर है कि किसान इन सबके कुचक्र में पीस जाता है।
भोजपुरी से नाभिनाल बद्ध केदारनाथ सिंह
जी भाषा में भोजपुरी के शब्द अनायास ही आ जाते थे जो भावो और विचारों को सहज और
रोचक बना जाते थे। भोजपुरी भाषा क्षेत्र से आने के कारण इस प्रदेश
की सांस्कृतिक परंपरा और विरासत से गहरे जुड़े हुए थे और यही उनकी लेखकीय ऊर्जा का स्रोत
भी थी। वह कहा करते थे कि यहां के जीवन के सुख-दुख और राग-रंग के बीच मैं पला बढ़ा
हूँ। वे स्वीकार करते है कि ‘पुरबिया दुनिया’ उनकी आत्मा में बसी है लेकिन उनकी
कविता में सम्पूर्ण मानवता समायी हुई है। उनकी भोजपुरी की क्रियाएं खेतों से आई है
और संज्ञाएं पगडंडियों से चलकर। इसी क्रम में भोजपुरी को लोकतंत्र से
पहले का ‘ध्वनि- लोकतंत्र’ घोषित करते है जिसकी सबसे बड़ी लाइब्रेरी जबान है। लेकिन
उनकी भोजपुरी हिंदी से अलग नहीं थी। वे लिखते है, ‘हिंदी मेरा देश है / भोजपुरी मेरा घर /
....मैं दोनों को प्यार करता हूं / और देखिए न मेरी मुश्किल / पिछले साठ बरसों से
/दोनों को दोनों में / खोज रहा हूं।‘ परंपरा का यही धरातल है सहजता, संवेदना और आख्यान के इस महान जादूगर
को सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा जाना महज उनके काव्य की उत्कृष्टता
का सम्मान नहीं था अपितु उन्हें यह पुरस्कार दिये जाने से स्वयं में ज्ञानपीठ
पुरस्कार ही अधिक गौरवान्वित हुयी थी, निःसंदेह इसके हक़दार थे भी।
अभी बिलकुल अभी, बाघ, अकाल में सारस, जमीन पक रही है, कब्रिस्तान में पंचायत, उत्तर कबीर और अन्य कवितायेँ, टॉलस्टॉय और साइकिल, सृष्टि पर पहरा केदारनाथ सिंह की
कालजयी रचनाएं हैं जिसमें युग-बोध और भाव बोध जीवन की सहज लय में रच-बस कर
अभिव्यक्त हुआ है।
उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के चकिया
गाँव के किसान परिवार में 1934 में जन्मे केदारनाथ सिंह की सबसे अमूल्य धरोहर थी;
आज उनकी चलती हुई साँसें जो आज सदा-सदा के लिए थम गयी।
पिछली बार जब मै दिल्ली में उनसे साकेत
में उनके निवास पर मिलने गया तो उन्होंने मुझे आदेश दिया था कि तुम ‘श्रीमद भागवत गीता’
के अठारहो अध्याय का भोजपुरी में अनुवाद करो, यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं उन्हें गीता
का पूरा अनुवाद नहीं समर्पित कर सका।
उनका इस तरह से चले जाना हिन्दी साहित्य के लिए एक महत्वपूर्ण युग एवं सशक्त कड़ी का अवसान है।
अश्रुपूरित नमन, सर।
अश्रुपूरित नमन, सर।
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