नंदन कानन का सफ़ेद शेर:~ नेताजी सुभाषचंद्र बोस !!

जिस समय महात्मा गांधी अहिंसा के ध्वजवाहक बन  सारे विश्व में चर्चा के केंद्र बिंदु बने हुए थे, ठीक उसी वक्त गुलामी की जंग छुड़ाने के लिए साम्राज्यवादियों को झुलसा देने वाली आंच की आवश्यकता का अनुभव करनेवाली उग्र विचारधारा का समर्थन करनेवाले सुभाषचंद्र का राष्ट्रिय आन्दोलन के क्षितिज पर होना ही एक अभूतपूर्व घटना है। 
                नेताजी का साहस निस्सीम था। आजादी के लिए उन्होंने आधे विश्व की ख़ाक छानी। उन्होंने लगभग पुरे यूरोप का भ्रमण किया था परन्तु नेताजी विश्व की परिक्रमा पर निकलने वाले कोई परिकथा के राजकुमार नहीं थे, बल्कि अपने समय के सबसे विकट स्पर्धा – आई. सी. एस. की मेधा सूची में चतुर्थ स्थान प्राप्त करने के बाद भी उस शानदार एवं प्रतिष्ठित नौकरी का त्याग कर उन्होंने देश सेवा का दुरूह मार्ग को चुनना पसंद किया। वह चाहते तो ऐसो- आराम की ठाठ वाली जिंदगी जी सकते थे। 
                सुभाषचंद्र बोस के समूचे व्यक्तित्व पर 'स्वामी विवेकानंद जी' के साहित्य का प्रभाव था, जिसके कारण उनके भीतर देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। नेताजी के समूचे जीवन से हमें दो बातें अवश्य सिखनी चाहिए, एक तो यह कि सुभाषचंद्र बोस का बहुत ही अमीर परिवार की पृष्ठभूमि से आते थे, फिर भी वह कभी भी उस ऐश्वर्य का आनंद नहीं लेना चाहा। उन्होंने स्पष्ट रूप से देखा कि उनके चारों ओर क्या हो रहा था और उन्होंने इसके खिलाफ लड़ने का फैसला किया। दूसरे, जब उन्होंने आईसीएस परीक्षा उत्तीर्ण कर उच्च पद की सरकारी नौकरी को ठुकरा कर देश सेवा की मार्ग को चुनने का फैसला लिया तो यह सिद्ध होता है कि उन्होंने  अपने लक्ष्य को क्रिस्टल की तरह स्पष्ट कर रखा था। एक बात जो मैंने नेताजी के विचारों से सिखा कि एक बार उद्‌देश्य तय हो जाए तो फिर कभी कोई समझौता मत करो। कुछ भी हो जाए वह लक्ष्य हासिल करना ही है। किसी के सामने अपने निजी स्वार्थ के लिए अनावश्यक झुको मत।

              सुभाषचंद्र बोस के पिता ने एक बार उनसे कहा था कि 'सुभाष, मुझे उम्मीद है कि तुम भारत के गैरीबाल्डी (जनरल, राजनेता और राष्ट्रवादी जिन्होंने इटली के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई) बनोगे।' लेकिन आज के वर्तमान समय में हम अधिकांश भारतीय ऐसा दृष्टिकोण नहीं रखते है, हममें उस दृष्टिकोण की कमी है, हम देश के लिए सपना नहीं देखते हैं, बल्कि हम अपने लिए सपना देखते हैं, आज हम एक स्थिर जीवन की कल्पना करते हैं और समाज और देश की समस्याओं से अपने को एवं अपने घर के सदस्यों को अलग रखने की चेष्टा करते हैं तथा अपनी क्षमता से अधिक समाज में अपने को संपन्न एवं सक्षम दिखलाने में व्यर्थ परेशान रहते हैं। पश्चिमी सभ्यता के फैशनों को अपनाने के लिए अधिक से अधिक आतुर रहना और अपनी सभी सनातन संस्कृतियों को ठुकरा कर अपने को आधुनिक दिखाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। लेकिन सुभाष चंद्र बोस सर्व-सुविधा संपन्न होने के वावजूद सब कुछ ठुकरा कर ब्रिटिशों के खिलाफ न केवल उनको बाहर निकालने के लिए जंग लड़ा था बल्कि तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश में भी भारतीय संस्कृति को भी छान लिया, परन्तु भारत की वर्तमान पीढ़ी आज ‘फटी हुई जींस पेंट’ पहनने की प्रवृत्ति में ही व्यस्त है।
             आज देश के सामने इतिहास का सबसे बड़ा संकट है। आज़ादी के बाद से ही विभिन्न दलों ने सांप्रदायिक, क्षेत्रीय और जातिवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है, जो आज भारत के अस्तित्व के लिए ही खतरा बन गई हैं। कुछ ही लोगों के हाथों में आर्थिक सत्ता व संपदा सिमट गई है। बढ़ती विषमता के कारण देश में असंतोष खदबदा रहा है। आज ही यह खबर दिखाई गयी है कि देश के 1% व्यक्ति के पास देश की 73% संपत्ति संगृहीत है।
             बेशक दुनिया की तरह भारत में भी हम सच्चे नेतृत्व के अभाव पर खेद जताते हैं। आज साझे हित की कीमत पर स्वहित सर्वोपरि हो गया है। उस समय भी ऐसे ही उपद्रवी समय में, सुभाषचंद्र बोस अपने योग्य नेतृत्व से स्री-पुरुषों को क्षुद्र मतभेदों से ऊपर उठकर आज़ादी के लिए लड़ने हेतु प्रेरित कर पाए थे।
                     “........ऐसा करते हुए हमें नेताजी के शब्द याद आएंगे : व्यक्ति के जीवन का भारतीय इतिहास की मुख्यधारा से मेल होना चाहिए। राष्ट्रीय जीवन और व्यक्तिगत जीवन पूरी तरह मिल जाना चाहिए। किसी की भी तकलीफ अपनी तकलीफ और किसी का भी गौरव खुद का गौरव लगना चाहिए। वे सारे लोग जिन्होंने भारत को मातृभूमि स्वीकार किया है या वे सारे जिन्होंने इसे अपना स्थायी घर बना लिया है वे मेरे भाई हैं....” (1926, मांडले जेल में लिखा वक्तव्य)।

                धार्मिक प्रतीकों को राजनीतिक उद्‌देश्य से इस्तेमाल करने से उनका इनकार कर देने की उनकी प्रवृत्ति ही उनके करिश्माई व्यक्तित्व की पहचान थी और यही कारण है कि सारे समुदायों में उनके प्रति जबर्दस्त आकर्षण था और आज भी है। हमें फिर से वही समाज बनाने के लिए खुद को समर्पित करना चाहिए जो नेताजी बनाना चाहते थे- ऐसा समाज जो हर तरह के बंधनों से मुक्त हो। 

         यही उनके लिए हमारी सच्ची श्रधांजलि होगी।
 

Comments

  1. जय हिन्द महोदय.
    बहुत प्रेरक....आपके लेख को अपनी वाल तक पहुचानेका प्रयास करता हूँ.

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  2. बहुत ही प्रेरक और उत्तम लेख

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