महाराणा प्रताप के बहाने राजा मानसिंह आमेर !!
न होते मानसिंह तो कैसे बनता काशी विश्वनाथ मंदिर !!
हिन्दू समाज में खासकर क्षत्रिय वर्ण में राजा मानसिंह को वह सम्मान
कभी नहीं मिला जिसका वह हकदार था। क्षत्रिय समाज सदैव उसे हेय दृष्टि से ही देखता
है एवं एक गद्दार भाई के रूप में मूल्यांकित करता है जिसने अपने निजी हित एवं
स्वार्थ के लिए मुग़ल बादशाह अकबर से जा मिला था और राजनैतिक संधि कर लिया था जिसके
उपहारस्वरूप अकबर का वह प्रधान सेनापतियों में से एक ही नहीं था अपितु वह अकबर के
नवरत्नों में भी अपनी जगह बनाने में सफल रहा था।
मानसिंह आमेर वैसा नहीं था जैसा आज जन सामान्य में प्रचलित है। यह तो
उस समय की राजनीतिक मजबूरी थी जो उसे मुगल साम्राज्य की सेवा में रहना पड़ा था।
अकबर के निर्देश पर मानसिंह और महाराणा प्रताप के बीच संघर्ष हुआ था लेकिन पार्श्व
में ऐसे कई किवदंतियां हैं जिनकी गहराई में यदि तटस्थ होकर अध्ययन करें तो स्पष्ट
हो जाता है कि मानसिंह ने प्रताप को हर तरह से मदद की थी, चूंकि वह चाहता
था कि कम से कम एक हिन्दू शासक ऐसा हो जो मुगल साम्राज्य से स्वतन्त्र हो। यही
कारण था कि मुगल सेना के खमनोर पहुँचने के उपरांत भी तुरंत युद्ध प्रारम्भ नहीं
किया। प्रताप को तैयारी का समय दिया और बाद में भी युद्ध के मैदान से उन्हें
सुरक्षित निकल जाने दिया। मानसिंह की इस मानसिकता का आभास अकबर को भी हो गया। उसने
मानसिंह पर नाराजगी व्यक्त करते हुए अपने प्रिय नौरत्न की डचोढी बंद कर दी थी।
प्रसिद्द पुस्तक ‘राजस्थान के सुरमा’ में
“प्रातः स्मरणीयः महाराणा प्रताप’’( लेखक- तेजसिंह तरुण) ने लिखा है कि महाराणा
प्रताप एवं मानसिंह के बीच सद्भावपूर्ण सम्बन्ध थे जिसके कारण ही प्रताप एवं मेवाड़
को हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व व बाद में कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ।
वर्ष 1567 में उत्तर भारत की यात्रा कर वापस लौटे मुग़ल सम्राट अकबर
के वफादार सेनापति और उनके नवरत्नों में से एक मानसिंह बादशाह के दरबार में हाजिर
हुए और लगभग चीखते हुए कहा "हुजुर, पूरा बनारस तबाह हो चुका है, हजारो
मंदिर उजाड़ दिए गए हैं, शहर को आपके निगाहें इनायत की जरुरत है"। अकबर जो खुद भी नहीं
जानता था वो बनारस से नाराज क्यूँ है, मानसिंह की आँखों में छायी उदासी को
पढ़ सकता था। उसने बिना देर किये कहा "मानसिंह ,बनारस को आप
देखें "। फिर क्या था, बार-बार बनता
और ध्वस्त होता बनारस एक बाद फिर चमक उठा।
मानसिंह के वक्त की सबसे प्रसिद्द घटना विश्वनाथ मंदिर की पुनः रचना
की है, अकबर ने पुनर्निर्माण का काम मानसिंह को सौंपा था। लेकिन जब मानसिंह
ने विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाना शुरू किया तो तो हिन्दुओं ने उनका विरोध करना
शुरू कर दिया। गौरतलब है कि हुसैन शाह शर्की (1447-1458) और सिकंदर लोधी
(1489-1517) के शासन काल के दौरान एक बार फिर इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया था।
हिन्दू रूढ़िवादियों का कहना था कि मानसिंह ने अपनी बहन जोधाबाई का विवाह मुग़लों के
परिवार में किया है वो इस मंदिर का निर्माण नहीं करवा सकते, जब मानसिंह ने
यह सुना तो निर्माण कार्य रुकवा दिया। लेकिन बाद में मानसिंह के साथी राजा टोडर मल
ने अकबर द्वारा की गयी वित्त सहायता से एक बार फिर इस मंदिर का निर्माण करवाया।
इतिहासकार मानते हैं कि मानसिंह ने बनारस में एक हजार से ज्यादा
मंदिर और घाट बनवाये, मानसिंह के बनवाये घाटों में सबसे प्रसिद्द मानमंदिर घाट है इसे
राजा मानसिंह ने बनवाया था बाद में जयसिंह ने इसमें वेधशाला बनवाई। बनारस में
अनुश्रुति है कि राजा मानसिंह ने एक दिन में 1 हजार मंदिर बनवाने का निश्चय किया, फिर
क्या था उनके सहयोगियों ने ढेर सारे पत्थर लाये और उन पर मंदिरों के नक़्शे खोद दिए
इस तरह राजा मानसिंह का प्रण पूरा हुआ।
अकबर ने जब 1582 में फतेहपुर सिकरी में खुद के द्वारा स्थापित किये
गए नए धर्म "दीन-ए-इलाही" पर चर्चा करने विद्वानों को बुलाया तो उस वक्त उसका
विरोध केवल राजा भगवंत दास ने किया था, लेकिन बाद में मानसिंह ने भी इसका
विरोध किया।
इस प्रसंग को विशेषकर इसलिए सामने लाया हूँ क्यूंकि मानसिंह के
सम्बन्ध में जन सामान्य में अभी भी कई भ्रांतियां विद्यमान है, जबकि
वास्तविकता यह है कि अगर मानसिंह अकबर के दरबार में और उसका प्रिय न होता तो शायद
देश में मुस्लिम कट्टरता का तांडव नृत्य देखने को मिलता, जैसा कि स्वयं
अकबर ने अपनी उपस्थिति में 1567 ई. में चित्तौड़ पर किये आक्रमण के समय किया था।
बाद में उसे सही दिशा देने एवं निरंकुश नहीं होने देने में मानसिंह का विशेष
योगदान रहा है जिसे हमें नहीं भूलना चाहिए।
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