दुष्यंत कुमार : हिंदी साहित्य का मधुवन भी तो महाभारत भी !!
"मेरी जुबान से निकली तो सिर्फ नज्म बनी।
तुम्हारे हाथ में आई तो इक मशाल हुई।।"
गीत, मुक्तक, रुबाई, गजल और
मुक्तछंद शैली की नयी कविता लिखते हुए भी बहुमुखी प्रतिभा वाले दुष्यंत कुमार एक
ऐसे बहुदर्शी गद्ध-लेखक के रूप में हिंदी पाठकों के समक्ष उभर कर आये, जिन्होंने गद्ध की तमाम विधाओं
में लिखा और उल्लेखनीय रचनाएँ दी।
दुष्यंत कुमार छात्र काल में प्रथम दिन जब कालेज में
पहले लेक्चर के लिए पहुँचे तो सबसे लेट पहुँचे। नतीजतन प्रोफेसर ने पूछ दिया कि
आखिर उनमें ऐसी क्या खास बात है कि वे क्लास में प्रोफेसर के आने के बाद आये हैं।
दुषयंत ने जवाब दिया कि मैं उस जगह से हूँ जहाँ शकुंतला और दुषयंत की प्रणय लीला
हुई और संयोग से मेरा नाम भी दुष्यंत ही है। फिर क्लास की लड़कियों की तरफ नजर डाल
कर कहा---परदेशी उपनाम से कविताएँ लिखता हूँ --आगे प्रियतम बन जाने का इरादा है।
पूरी क्लास यह सुन कर ठहाको से गूँज उठी और प्रोफेसर चुप।
मध्य प्रदेश सरकार
में सेवारत रहते हुए भी दुष्यंत कुमार छद्म नाम से(डी.
के. टी. या परदेशी) सरकार के
नीतियों के विरुद्ध बैलोस धारदार टिप्पणियां करते हुए उन्होंने दिखलाया कि अभिव्यक्ति
के खतरों से खेलने की कितनी अदाएं हो सकती है
यह सोचकर हैरत
होती है कि दुष्यंत कुमार में कितनी जबरदस्त रचनात्मक उर्जा थी जो निरंतर तरह-तरह
से झरते रहते थे। घर-गृहस्ती, कार्यालय
का उत्तरदायित्व, बाजार, नाते-रिश्ते, लोक-व्यवहार की तरह-तरह की झंझटें और जरूरतों की आपाधापी के बीच वे किस
तरह अपने लेखन का एकांत पाते थे और वे एक आम आदमी की तरह-तरह की लड़ाइयाँ लड़ते हुए
एक गतिशील लेखक की तरह एक विधा से से दूसरी विधा, एक शैली से
दूसरी शैली, एक गंभीर किन्तु क्षोभकारी अनुभव से दुसरे
प्रसन्न, हलके-फुल्के, दिलचस्प जीवन के
अनुभव तक आया-जाया करते थे। वे एक ऐसे घुड़सवार थे जो हमेशा घोड़े की पीठ पर ही रहा
करते थे। वे हमें उन ठिकानों तक हाथ पकड़ कर पहुंचा आते हैं,
जिनसे आँख मिलाने में प्रत्यक्ष जीवन में हमें भय लगता है।
आ,
जी तो सही,
लेकिन एक कायर की जिंदगी न जी ।
दुष्यंत कुमार की
पंक्तियाँ आज भी कितनी प्रासंगिक हैं आज जब गरीबी
व भुखमरी में आम आदमी मारा जा रहा है,
किन्तु प्रशासन तंत्र नित्य नए बहाने धुंद लेता है :
कई फांके बिताकर मर गया जो, उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब,
ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।
आज भी जब आम
आदमी शोषण तंत्र से इतना व्यथित-पीड़ित है और वह अपनी आवाज शासन तंत्र तक पहुँचाना
चाहता है और शासन तंत्र का जवाब है-
भूख है,
तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में जेरे बहस में मुद्दा।
आज की तरह उस
समय भी संवेदनाये इतनी मर गयी थी कि दुष्यंत कुमार को कहना पड़ा था-
इस शहर में हो कोई बारात या वारदात,
अब किसी बात पर नहीं, खुलती है खिड़कियाँ।
दुष्यंत कुमार की प्रमुख
रचनाये-
इन्होंने 'एक कंठ विषपायी' (काव्य नाटक), 'और मसीहा मर गया' (नाटक), 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के
घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' (उपन्यास), 'आँगन में एक वृक्ष, (उपन्यास), 'दुहरी जिंदगी' (उपन्यास), मन के कोण (लघुकथाएँ), साये में धूप
(गजल) और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबों का सृजन किया।
कालजयी कविताएँ जो
दुष्यंत कुमार ने लिखी थी -
'कहाँ तो तय था', 'कैसे मंजर', 'खंडहर बचे हुए हैं', 'जो शहतीर है', 'ज़िंदगानी का कोई', 'मकसद', 'मुक्तक', 'आज सड़कों पर लिखे हैं', 'मत कहो, आकाश में', 'धूप के पाँव', 'गुच्छे भर', 'अमलतास', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे', 'जलते हुए वन
का वसन्त', 'आज सड़कों पर', 'आग जलती रहे', 'एक आशीर्वाद', 'आग जलनी चाहिए', 'मापदण्ड बदलो', 'कहीं पे धूप की चादर', 'बाढ़ की
संभावनाएँ', 'इस नदी की धार में', 'हो गई है पीर पर्वत-सी'।
धर्मवीर भारती ने
दुष्यंत कुमार के बारे में लिखा है कि "काई खुरचकर नए सूर्य के बैठाने की जगहें
बनाना दुष्यंत की कल्पना का प्रस्थान बिंदु था"।
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