निजी क्षेत्र मे आरक्षण ~ मानवाधिकार के खिलाफ एक गहरी साजिश....
सवाल यह है हम लोकतंत्र के लिए “नागरिक” चाहते हैं या “उपभोक्ता”? यदि “उपभोक्ता” के जरिए लोकतंत्र का निर्माण करना चाहते हैं तो लोकतंत्र की प्रकृति अलग होगी। यदि नागरिक के जरिए लोकतंत्र बनाना चाहते हैं तो लोकतंत्र की प्रकृति अलग होगी। “उपभोक्ता” और “नागरिक” में गहरा अन्तर्विरोध है। “उपभोक्ता” के “अन्य” के प्रति कोई सामाजिक सरोकार नहीं होते, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, निहित स्वार्थों को सामाजिकता कहता है। इसके विपरीत “नागरिक” के निजी नहीं सामाजिक स्वार्थ होते हैं,सामाजिक लक्ष्य होते हैं, उसे अपने से ज्यादा “अन्य” की चिन्ता होती है। लोकतंत्र के विकास के लिए हमें “उपभोक्ता” नहीं “नागरिक” चाहिए। लोकतंत्र कभी भी उपभोक्ता के जरिए समृद्ध नहीं होता, नागरिक और नागरिक चेतना के जरिए समृद्ध होता है।
जातिगत आरक्षण देश के सरकारी तंत्र मे लगा हुआ वह घुन है जो देश की पूरी व्यवस्था को अंदर-अंदर कमजोर कर रहा है। यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं देश के कमजोर तबकों हरिजनो, आदिवासियों, अन्य पिछड़ी जतियों और समूह के लोगो के सक्षमीकरण के खिलाफ नहीं हूँ। परंतु उस व्यवस्था के एकदम खिलाफ हूँ जो अक्षम और नाकाबिल लोगों को ऐसी जगह पर स्थापित कर देते हैं, वे जिसके योग्य नहीं है। इसका असर पूरी व्यवस्था पर पड़ता है।
गुजरात उच्च न्यायलय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे बी पर्दिवाला ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में अंकित किया है कि ‘इस देश के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के 65 साल बाद भी इस देश की दो महत्वपूर्ण समस्याएं है पहला आरक्षण और दूसरी भ्रष्टाचार.......... ।‘ उनके इस फैसले के बाद कुछ सांसदों ने उनपर महाभियोग लगाने के लिए अपने हस्ताक्षर के साथ माननीय राष्ट्रपति जी को आग्रह किया है।
प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल आयोग के लागु किये जाने के पश्चात न जाने कितनी पीढियां आरक्षण के ज्वाला में झुलस गयी और अब जब उसकी राख ठंढी हुई ही थी कि पुनः राजनीतिक स्वार्थ के लिए निजी क्षेत्रो के बहाने इस देत्य को फिर से जगाने का प्रयाश करना शुरू कर रहें हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री निजी क्षेत्रों में आरक्षण के जातीय औजार से स्वंय को राजनीति के फलक पर स्थापित करने की सोची-समझी चाल चल रहे हैं। एक सामाजिक समस्या के सामाधान को जब सियासी मकसद हासिल करने का हथियार बना लिया जाता है तो समस्या और उलझने लगती है। यह सही है कि आरक्षण की व्यवस्था हमारी सामाजिक जरूरत थी, लेकिन हमें इस परिप्रेक्ष्य में सोचना होगा कि आरक्षण बैसाखी है, पैर नहीं। याद रहे यदि विकलांगता ठीक होने लगती है तो चिकित्सक बैसाखी का उपयोग बंद करने की सलाह देते हैं। किंतु राजनैतिक महत्वाकांक्षा है कि आरक्षण की बैसाखी से मुक्ति नहीं चाहती ?
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