लोक आस्था का महापर्व - छठ ~ एक वैज्ञानिक चिंतन !!

अस्ताचल की ओर जाते और उदयाचल से उदित होते सूरज को देखें तो काफ़ी समानताएँ दिखाई देती हैं । वही अरुणिम आभामंडल, वही अलसाया-सा नभ, वही धीरे-धीरे गोलाकार गहरे कुंकुमी आकार का पर्वत के पीछे की ओर से सरकते सरकते झॉंकना, वही हल्की बयार, वही पखेरुओं का कलरव, वही नदी के बहाव की हल्की कलकल, वही किसी गीत के रचे जाने की चाह और वही किसी छंद के आने का इंतज़ार! अस्ताचल और उदयाचल के सूरज की ये समानताएँ सिर्फ़ ऊपर से दिखाई देने वाली और पहले पहल अनुभव होने वाली समानताएँ हैं । वास्तविकता यह है कि इन दोनों में भिन्नता ही भिन्नता है।

अस्ताचल के सूरज का आभा मंडल, भोर की किरणों से अभिनंदित नहीं होता, अलसाया नभ जागता नहीं, वह सो जाता है, पर्वत के पीछे से झॉंकने की भंगिमा नए उत्साह के साथ फिर थिरकते रश्मिजाल की ओढ़नी पहनकर इतराते हुए प्रकट नहीं होती। हल्की बयार का वेग थम जाता है, पखेरू शांत होकर अपने नीड़ में लौट जाते हैं, नदी के बहाव की कलकल रात के नीरव एकांत की संगिनी बन जाती है, गीत के रचे जाने की चाह को निविड अंधकार निगल लेता है और किसी छंद की अगवानी करने के लिए कोई इंतज़ार नहीं करता।
अस्ताचल के सूरज की नियति अंधकार है जबकि उदयाचल के सूरज का भाग्य आलोक की असंख्य तूलिकाएँ रचने को तत्पर खड़ी रहती है।

सूरज का उगना और डूबना भले आँखों से प्रायः एक-सा दिखाई दे लेकिन उगने का अर्थ उगना और डूबने का अर्थ डूबना ही होता है। डूबने के बीच उगने के अर्थ निकालना सिर्फ़ आँखों का छलावा और मन का भुलावा भर है। ये भरम जितनी जल्दी टूटें उतना ही बेहतर हो। मुश्किल यही है कि ये भरम नहीं टूटते और उदित होने के भ्रम में अस्त होते चला जाना होता है। उदित होने वाले सूरज अनगिनत भ्रम बॉंटते हैं।

ये कौन हैं उगने वाले सूरज ? ये वे हैं जिन्होंने अपने छल से या भरपूर कौशल से किरणों को अपने वश में कर लिया है, ये वे हैं जिन्होंने अपनी सामर्थ्य से प्रकाश की उन तूलिकाओं को अपना दास बना लिया है, जिनके पास उजाले की स्याही है, और बयार हो, कलकल हो, गीत रचने की चाह हो या छंद के इंतज़ार की घड़ियॉं, इन सब के एकाधिकार इन्होंने एकमुश्त खरीद लिए हैं।

इसलिए जो आज उगते सूरज हैं, उन्हें सदैव उगे ही रहना है। उनकी जमात में कोई अन्य सूरज तभी शामिल होगा जिसके पास शक्ति हो, किरणों को वश में करने की; आलोक की तूलिकाओं को अपना दास बनाने की और बयार तथा कलकल के एकाधिकार एकमुश्त खरीद लेने की।

जहाँ तक अस्ताचल के सूर्यों का सवाल है, ये वे हैं जिनके पास दूसरे क़िस्म की सामर्थ्य है। वह सामर्थ्य है न झुकने की, समझौते नहीं करने की, अडिग बने रहने की। उनके पास अर्थ नहीं है लेकिन वे कदापि अर्थहीन नहीं है। उनसे बड़ा अर्थवान कौन होगा जो अपने संघर्ष करने के बूते पर, अपनी जिजीविषा के बल पर अँधेरे को अंगीकार करते हुए, छद्म उजालों की बस्ती में किसी तरह अपना उजला अस्तित्व बचाए हुए है। इन सूर्यों को अपने अस्तित्व की रक्षा खुद करनी पड़ रही है।

उजाले कहे जाने वालों के शहर में आज उजाला ही अजनबी है। रातें दिन की मानिंद हैं और दिन रातों में बदल गए हैं। आँखों ने देखने के अभ्यास बदल लिए। वे रात को दिन और दिन को रात समझने में पारंगत हो गई हैं।
उगते सूरज, मशालें हाथ में लिए जुलूस निकाल रहे हैं- "रौशनी का, रौशनी के लिए, रौशनी के द्वारा"।
वह उन उजालों को अपने गले लगा रहा है जो प्रकाश के प्रतिनिधि हैं। अँधेरा तो एक ही है पर सूर्यों की दो जातियाँ हो गईं। वे सब दो हो गए, दोनों एक-दूसरे के विपरीत जिन्हें सिर्फ़ एक ही रहना था। आज दो उजाले हैं, दो मूल्य, दो मानक, दो राजनीति, दो समाज, दो संस्कृति और दो मनुष्य। यह दो हो जाना इस तथ्य का प्रमाण है कि इसमें अनुचित को उचित सिद्ध करने की सुविधा हो जाती है। दोहरे मापदंडों को अपना लो तो प्रतिभा पर उम्र विजय पा लेती है।
 आज यह प्रतिभा कुंठित है, जिसे निरंतर असफलता का मुँह देखना पड़ा रहा है। उसकी टीस निरंतर गहरी होती जाती है और डा शिवमंगल सुमन को यह कहना पड़ता है -
         "जिस पनिहारिन की गगरी पर मैं ललचाया, वह ढुलक गई,
            जिस जिस प्याली पर धरे अधर, वह छूते ही छलक गई।"
इस देश में चारों ओर ऐसी ढुलकी हुई आशाओं की गगरिया और छलकी हुईं निराश प्यालियाँ सहज देखने को मिल जाती हैं।

जाने कब से ब्रेन ड्रेन के नाम पर उन युवाओं को कोसा जा रहा है, जो यहाँ से पढ़कर विदेशों में बस जाते हैं लेकिन विस्थापन के पीछे हम कितने दोषी हैं यह आकलक नहीं किया जाता। हमारा सबसे बड़ा दोष है इस तरुण प्रतिभा के विकल्प के रूप में अपने आपको या अपने वाले को प्रस्तुत कर देना और फिर उसे स्थापित कर देना। बरगद का घना वृक्ष या कोई बीमार पेड़ धरती पर अपनी निष्क्रिय जड़ें फैलाकर या बिना फल दिए जगह घेरकर स्थापित तो रह जाता है लेकिन उन तरुण वृक्षों की बराबरी ये बरगद और बीमार पेड़ नहीं कर सकते जिनके धरती पर बने रहने से जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ता है और हरियाली की धड़कनों के न थमने की आशा बंधी रहती है।

"आज संकट वे वृक्ष झेल रहे हैं जिनके पास फल देने की असीम संभावनाएँ हैं और आश्वस्त भाव से निर्भीक खड़े हैं फलहीन बरगद और काँटों से भरपूर बबूल। "

गुण और प्रतिभा के गौण होते जाने की घटना हर पल घटती है लेकिन कोई प्रतिरोध नहीं होता, उल्टे ऐसे नियम ढूँढ़ लिए जाते हैं, गढ़ लिए जाते हैं जो इस गौण होते जाने को उचित ठहरा देते हैं। उचित होना और उचित ठहरा देना दोनों में बड़ा अंतर है। उचित तो गुण और प्रतिभा है लेकिन उसे गौण करार देने की कवायद, उचित का ठहरा दिया जाना है। जब अनुचित कहना संभव नहीं हो पाता और अनुचित करना ज़रूरी हो जाता है तब उचित ठहरा दिया जाना कहा जाता है।

अब समय आ गया है जब प्रतिरोध करना जरूरी हो गया है। मुझे हरिवंश राय बच्चन जी की श्रंगारिक कविता ‘श्रंगार’ की नहीं लगती। आज के संदर्भों में बच्चन जैसे विराट व्यंजना वाले कवि की कविता 'आह्वान' की कविता लगती है। बच्चन जी को याद भी करें और इन पंक्तियों के माध्यम से आह्वान भी करें कि बात पूरी हो, कहानी पूरी हो और अपनी नियति के बारे में ज्ञात हो, अज्ञात रहने के भ्रम देने वाले सूरज अपना अस्तित्व ख़त्म करें -
"साथी, सो न, कर कुछ बात !
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
पूर्ण कर दे यह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
    छठ पूजा की हार्दिक शुभकामना !

Comments

  1. सारगर्भित अत्युत्तम आलेख,शुभकामनाएँ

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