बारूदी हुई आबोहवा !!
किसी फिल्म का गाना था --निकलो ना
बेनकाब जमाना ख़राब है....
पर इस गाने को आज ऐसे लिखा जाता --निकलो
ना बेनकाब शहर में धुल एवं प्रदूषण का वास है ...... ।
आज देश के तमाम प्रमुख समाचारपत्रों
ने मन को सोचने के लिए विवश करने वाली सर्वे रिपोर्ट को बहुत ही प्रमुखता से प्रकाशित
किया है कि प्रदुषण से अकेले भारत में एक वर्ष में सिर्फ 25 लाख लोगों की मृत्यु
हुई है, और हमारी स्थिति यह तब है जब भारतीय कानून प्राकृतिक संसाधनों को संपत्ति
के अधिकार के दायरे में रखता है। आज दुनिया में 200 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय
कानून हैं। 600 से ज्यादा द्विपक्षीय समझौते हो चुके हैं। 150 से ज्यादा क्षेत्रीय
कानून हैं।ये ज्यादातर यूरोपीय देशों में हैं।भारत ने समस्त अंतर्राष्ट्रीय
कानूनों पर दस्तखत किए हैं और उनकी संगति में प्रकृति और पर्यावरण संबंधी कानूनों
को बदला है।
अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा
करने के लिहाज से संविधान के 253 अनुच्छेद में प्रावधान है। बाद में 1972 की
स्टोकहोम कॉफ्रेंस की सिफारिशों को संसद ने 42 वें संविधान संशोधन के जरिए लागू
किया। हमारे संविधान के अनुच्छेद 48A में राज्यों को
जिम्मेदारी दी गयी है कि वे पर्यावरण को सुधारें,वन, जंगलात और पशुओं का संरक्षण करें। अनुच्छेद 51[A][g]में
नागरिकों के इस संदर्भ में दायित्वों का उल्लेख किया गया है।
इसके अलावा 1974 का जल कानून,
1981 का वायु कानून, 1986 का पर्यावरण संरक्षण कानून
स्टाकहोम कन्वेंशन की संगति में बनाए गए। इसी तरह समुद्री पर्यावरण से संबंधित
अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को भारत स्वीकार कर चुका है और हमारे यहां इसके अनुरूप कई कानून
हैं।
संसार में अभी तक जितनी भी पीढ़ियां
गुजरी हैं, सभी ने प्रकृति को संपत्ति के रुप में अपने वंशजों को
विरासत में छोड़ने की कोशिश की है। इस प्रश्न पर बहुत कम विचार किया गया है कि
क्या ऐसे मूल्य, इरादे और लक्ष्य मौजूद हैं, जो भावी पीढी के मूल्यों, इरादों तथा लक्ष्यों के
अनुकूल हों। अपने कार्यों के औचित्य और भावी पीढी की कृतज्ञता में लोगों का अटल
विश्वास था। परन्तु, सभ्यता की विशाल इमारत का निर्माण करते
हुए काफी देर तक उस अपार हानि से अनभिज्ञ रहे, जिसे मानव
जाति को उठाना पड़ा।
मार्क्स ने लिखा कि '' निजी संपत्ति ने हमें इतना जड़मति और एकांगी बना दिया कि कोई वस्तु सिर्फ
तभी हमारी होती है जब वह हमारे पास हो, जब वह पूंजी की तरह
अस्तित्वमान हो, अथवा जब वह प्रत्यक्षत: कब्जे में हो,
खाई-पी, पहनी हो – दुसरे शब्दों में, जब वह हमारे द्वारा प्रयुक्त की जाती है।''
प्राकृतिक ध्वंस को देखना हो तो कुछ
मोटे आंकड़ों पर गौर करना समीचीन होगा। मसलन बॉधों, हाइड्रो इलैक्टि्क
क्षेत्र, कृषि प्रकल्पों, खान-उत्खनन, सुपर थर्मल पॉवर, परमाणु उर्जा संस्थानों, मत्स्य पालन, औद्योगिक कॉम्प्लेक्सों, सैन्य-केन्द्रों, हथियार परीक्षण स्थलों, रेल मार्गों एवं सड़कों के विस्तार, अभयारण्यों एवं
पार्कों, हथकरघा उद्योग आदि क्षेत्रों में नई तकनीकी के प्रयोग
ने पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव छोड़ा है। संबंधित इलाकों के बाशिंदो को अपने घर
-द्वार एवं जमीन-जायदाद से बेदखल होना पड़ा है।
एक अनुमान के अनुसार 1951-1985 के बीच
में बेदखल होने वालों की संख्या दो करोड़ दस लाख थी। विकासमूलक प्रकल्पों के नाम
पर जो कार्यक्रम लागू किए गए उनसे एक करोड़ 85 लाख लोग विस्थापित हुए। विस्थापितों
में आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा थी।
आदिवासियों में लागू किए गए 110
प्रकल्पों के सर्वे से पता चला कि इनसे 16.94 लाख लोग बेदखल हुए। इनमें तकरीबन
8.14 लाख आदिवासी थे। प्रत्यक्ष बेदखली के साथ-साथ इन लोगों को भाषाई एवं
सांस्कृतिक कष्टों को झेलना पड़ा।
विश्व बैंक के दो अधिकारियों कार्टर
ब्रांडों और किरशन हीमेन ने ''दि कॉस्ट ऑफ इनेक्शन : वेल्यूइंग
दि इकॉनोमी बाइड कॉस्ट ऑफ इनवायरमेंटल डिग्रेडेशन इन इंडिया'' नामक कृति में पर्यावरण से होने वाली क्षति का अनुमान लगाने की कोशिश की
है। लेखकों के अनुसार पर्यावरण से 34,000 करोड़ रुपये यानि 9.7 विलियन डॉलर की
क्षति का अनुमान है।
हवा-पानी के प्रदूषण से 24,000 करोड़
रुपये की क्षति हुई। भूमि के नष्ट होने एवं जंगलों के काटे जाने से 9,450 करोड़
रुपये की क्षति हुई। अकेले कृषि क्षेत्र में जमीन के क्षय से उत्पादकता में 4 से
6.3 फीसदी की गिरावट आई जिसका मूल्य 8,400 करोड़ रुपये आंका गया।
अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर की 1973 में
प्रकाशित किताब "स्माल इज ब्यूटीफुल" में उन्होंने बड़े-बड़े उद्योगों
की बजाय छोटे उद्योगों की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा था। उनका सुझाव था कि
प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम उपयोग और ज्यादा से ज्यादा उत्पादन होना चाहिए।
शूमाकर का मानना था कि प्रदूषण को झेलने की प्रकृति की भी एक सीमा होती है।
यूनाइटेड स्टेट्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन
ऑन क्लाइमेट चेंज की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 1951 में भारतीयों के पास प्रति
व्यक्ति 5177 क्यूबिक मीटर पानी की उपलब्धता थी। यहाँ पानी की कमी महज 70 साल में
करीब एक तिहाई हो गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर कार्बन उत्सर्जन मौजूदा दर
से ही जारी रहा तो 2030 तक भारत के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2.0
डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है। इससे मिट्टी की नमी में कमी तो आएगी ही, धरती पर मौजूदा जल की उपलब्धता में भी कमी आएगी। इस शोध में शामिल
सार्वजनिक क्षेत्र के 17 संस्थानों के 200 वैज्ञानिकों की राय है कि इससे खेती की
पैदावार में कमी आएगी और इसका सबसे ज्यादा असर मौसमी सब्जियों और फलों पर पड़ेगा। भविष्य
में आज के मुकाबले ना सिर्फ अनाज बल्कि फल और सब्जियों की ज्यादा जरूरत पड़ेगी।
लिहाजा तब उत्पादन बढ़ाना होगा लेकिन मौसम की मार की वजह से ये घटता ही नजर आ रहा
है।
आज धरती के वातावरण को जब हम देखते हैं
तो एक अजीब सा अहसास होता है। ऐसे लगता है कि हम प्रकृति से कोसों दूर चले गए हैं, हमारे जहन में प्रकृति के लिए कोई प्रेम नहीं रहा, अब
हम भौतिक साधनों के इतने गुलाम बन गए हैं कि प्रकृति के करीब रहकर जीवन जीने की
कल्पना ही नहीं कर सकते। बस यहीं से घुटन और टूटन शुरू होती है और आज जिस कगार पर हम
खड़े हैं वह आने वाले समय में निश्चित रूप से मानवीय अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी
है। हमारे पूर्वजों ने जीवन जीने की जो पद्धति हमें सिखाई थी हम उसे तो भूल ही गए,
अब हम वातानुकूलित वातावरण को तरजीह दे रहे हैं और यह भूल गए हैं कि
इस वातानुकूलित वातावरण के लिए भी तो प्रकृति का साथ चाहिए, वर्ना
हमारे सारे प्रयास निष्फल सिद्ध होंगे और हो भी रहे हैं। हमनें प्रकृति को भूलकर
जब जीवन जीने की सोची तो इसने भी हमें भुलाना शुरू कर दिया और आये दिन प्रकृति के
कोपों का भाजन हमें करना पड़ता है।
प्राचीन भारतीय मनीषियों की अगर
दुनिया में आज साख है तो उसकी वजह यही है कि उसे अपनी भावी पीढ़ियों और समाज की
चिंता थी और उसे बचाने के लिए उसने पहले ही उपाय कर रखे थे। बेहतर होगा कि हम आज
ही कड़े कदम उठाएँ, नहीं तो हमारी भावी पीढ़ियों के साथ जो गुजरेगा,
उसके लिए वे हमें कभी माफ नहीं कर पाएँगी।
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