अन्तराष्ट्रीय छात्र दिवस !!
पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ ने डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के
जन्मदिवस को(15 अक्टूबर) को विश्व छात्र दिवस के रूप में घोषित कर उन्हें यथोचित
सम्मान प्रदान किया है क्यूंकि डॉ कलाम एक बेहतरीन शिक्षक भी थे और उन्हें बच्चों
की सदैव चिंता रहती थी। डॉ कलाम सदैव बच्चों को
प्रोत्साहित करते रहते थे।
डॉ कलाम के विचारों की तुलिका पकड़ कर मैं कुछ अलग लिखने की चेष्टा कर
रहा हूँ। लिखने के क्रम में शायद मैं आज भटक जाऊं या
शायद तारतम्य न बिठा सकूँ क्यूंकि मैं खुद अपने मन के साथ एक तारतम्य नहीं बिठा पा
रहा हूँ आज जो होनी चाहिए। बहुत कुछ आज संभवतः
खुद के निजी अनुभव के आधार पर उन बच्चों के साथ जुड़ना चाहूँगा जो समाज के उस तंज
को झेल न सके क्यों बच्चे हतासा की स्थिति में होते हैं या कौन से वे बच्चे होते
हैं जो हतासा की स्थिति में अवसाद की चरम स्थिति तक पहुँच जाते हैं और बड़े ही
आसानी से मौत को गले लगा लेते हैं बिना कुछ यह विचार किये हुए कि अपने पीछे वे
अपने जन्म देने वालों को कौन सी पीड़ा में जलने के लिए छोड़ जाते हैं। इन
सबके लिए कौन वाकई में जिम्मेवार है। अभिभावक या समाज या स्वयं
पीड़ित बच्चे की कुंठा।
मैं इस आलेख को इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैं इसकी
योग्यता रखता हूं बल्कि इसीलिए लिख रहा हूं क्योंकि ऐसे विषयों पर लिखने की जिनकी
नैतिक जिम्मेवारी थी पता नहीं क्यों वे लोग मौन है ।
मैंने देखा है कि प्रायः हिंदी भाषा में पढ़े हुए छात्र ज्यादा निराश दिखते
है । मैंअपनी पीढ़ी की बात कर रहा हूँ न कि पिछली पीढ़ी की, जो
यह लोग तर्क देते हैं कि हमलोग भी तो हिंदी माध्यम से ही पढ़े थे पर यह बोलते वक्त
वे यह भूल जाते हैं कि उनके समय और हम लोगों के समय की शिक्षा के स्तर में काफी
अंतर/ गिरावट आ चुकी थी और आज की वर्तमान समय में हिंदी माध्यम से पढ़े बच्चो की
स्थिति तो बहुत ही चिंताजनक है ।
आये दिनों ख़बरों में बहुत शुर्खियों के साथ खबर प्रसारित होता रहता
है कि अमुक छात्र परीक्षा परिणाम के डर से आत्म हत्या कर लिया, अमुक मेडिकल कॉलेज
के तीसरे वर्ष का छात्र जहर खा लिया, अभियांत्रिकी कॉलेज का छात्र छत से कूद
गया.......... । खबर सुनते है हम एक अफ़सोस
के साथ संवेदना प्रकट करते हैं कि बेवकूफ था, कायर लोग मौत को गले लगते हैं.......
और हम उस छात्र को सदा-सदा के लिए भूल जाते हैं, पर कभी उसकी मानसिक परिस्थितिओं
पर हम सोचने के लिए कुछ पल के लिए अपने भीतर झांकना नहीं चाहते हैं ।
क्या कभी हम उसके उस मनोविज्ञान को समझना चाहते है क्यों उसने आत्म
हत्या कर लिया होगा जबकि वह इतने अच्छे संस्थान में पढ़ रहा था । जबहम
गहरे अध्ययन में जायेंगे तो ज्यादातर छात्र हमें हिंदी भाषी ही मिलेंगे या अरक्षित
श्रेणी के ही ज्यादातर मिलेंगे(अपवाद हर जगह उपलब्ध हैं) जो अपने मेहनत के बल पर/
सरकारी नीतिओं के चलते इन संस्थानों में पहुँच तो गए पर तारतम्य न बिठा सके नए
माहौल से। भाषा के कारण या परिवेश के कारण दहशत होती है और
कभी-कभी विषय के चलते भी। बहुत से ऐसे
छात्र होते जो सीधे
ग्रामीण परिवेश से निकल कर यहाँ आते हैं, जिनके घर कच्चे होते हैं, उनके
सामने एक आधुनिक और अनजान भव्यइमारत दैत्य की तरह खड़ी होती
है जो दहशत पैदा करने लगती है मन में। लंबे और सुनसान गलियारे हमें
एहसास करते हैं कि हम यहाँ अकेले है। इमारतों के भीतर
गुज़रते हुए हमारे भीतर डर बैठ जाता है। सबके भीतर नहीं बल्कि मुमकिन है कि कई
लोगों के भीतर बैठता है। कुछ लोग जल्दी उबर जाते हैं कुछ लोग कभी भी नहीं उबार पाते हैं इस माहौल से।
जब नए संस्थान में पहुंचते हैं ,हम पूर्णतया अजनबी होते है।दोस्त नए होते हैं । टीचर एक अलग ही भाषा में
दक्ष मिलते हैं। अलग अल ग भाषा, कुछपरिवेश, आर्थिक स्थिति के
नए छात्र हॉस्टल में मिलते हैं।जहाँ कुछ पॉप एवं रॉक स्टार और फ्यूज़न संगीत के शौखिन होते है तो वही कुछ
लोकगीतों को सुनते सुनते वहां तक का सफर तय किये हुए होते है। हालाँकि अब परिस्थितिया
बदली हैं, अब हिंदी गानों की लोकप्रियता के चलते हॉस्टलों के भीतर तमाम तरह के छात्रों के कमरे से हिन्दी गानों की आवाज़ सुनायी पड़ने लगी है।
हिन्दी माध्यम और किसी भी विषय के कमज़ोर छात्रों के तनाव में टूटने
की ख़बर से मन विचलित हो जाता है। लगता है कि उनकी जगह मैं ख़ुद टूट गया हूं। ऐसा
इसलिए लगता है कि मैं कमज़ोरी की आशंकाओं से गुज़रा हूं।
हमें हिन्दी को लेकर इतना अपराध बोध नहीं होना चाहिए। अंग्रेज़ी
डराती जरुर है मगर वो ऐसी है नहीं। लेखकों ने ऐसी शब्दावली का इस्तमाल किया है जो हमारे
परिवेश के अनुसार एक तरह की अंग्रेज़ी ही है। बहुत से शब्द अब सिर्फ एक किताब से
दूसरी किताब की यात्रा कर रहे हैं। लोगों ने उन शब्दों को या शब्दों ने उन लोगों
को छोड़ दिया है। भाषा हमसे हमारी लापरवाही का बदला लेती है। ये समस्या सिर्फ
हिन्दी माध्यम छात्रों की नहीं है। सभी भाषाई माध्यम के छात्र इस संकट से गुज़र
रहे हैं। भाषा को हमने खिलौना बना दिया है। भाषा का हमलोग मजाक उड़ाते हैं एक दिन
वही भाषा हमें मजाक का पात्र बना देती।
भाषा भी हत्या करती है। भाषा भी आत्महत्या करने को मजबूर करती है। हमें इस तथ्य को
स्वीकार करना होगा। इसलिए भाषा के लिए श्रम कीजिए। पसीना बहेगा तो विश्वास बढ़ेगा।
अंग्रेज़ी नहीं आती है तो पहले अपनी हिन्दी को साध लीजिए। जैसे ही हम
एक भाषा में सक्षम होने लगेंगे हमें
अंग्रेज़ी भी मुश्किल नहीं लगेगी। भाषा के लिए अभ्यास करना होगा। साहित्य का सहारा
लेना होगा। कविताओं का गहन अध्ययन करना होगा क्यूंकि वहां शब्दों की बेहतरीन प्रतिमान गढ़े जाते हैं। शब्दों से न जाने संवेदनाओं की कैसी कैसी इमारतें खड़ी
कर दी जाती है और क्रूरता के ताकतवर से
ताकतवर महलों को गिरा दिया जाता है। यदि हम हिन्दी में ही बेहतर नहीं होगे तो हम अपने विषय
में गहराई से नहीं सोच सकते हैं। समस्या यह है कि हम अपनी ही मातृभाषा में कमज़ोर
होते हैं। इसे निजी तौर पर और सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने में किसी तरह की कोई
हिचक नहीं होनी चाहिए।
यदि हम अपनी
कमजोरी से भागेंगे तो एक दिन
हमें खुद की ख़ुदकुशी का ख्याल आने लगेगा, अवसाद घेर लेगा। भाषा वरदान में नहीं मिलती है। जीवन से मिलती
है और इसे जीवन भर सीखना पड़ता है।
अतः हिंदी भाषी छात्रों, मैं
आपको हिंदी की फर्जी संभावनाओं से भ्रमित नहीं करूँगा। अंग्रेज़ी
तो सीखनी ही होगी। यदि कोई यह कहे कि इसके
बिना काम चल जाएगा तो उस व्यक्ति पर विश्वाश मत करो । इसके बिना तुम्हारी ज़िंदगी
मे काम नहीं चलेगा इसलिए अंग्रेज़ी सीखना ही होगा हमें। सीखी जा सकती है। मगर अच्छी अंग्रेज़ी
तभी आएगी जब आपकी हिन्दी अच्छी होगी। भाषा बेहतर नहीं होगी तो हम कभी मज़बूत नहीं
होंगे। हम जैसे ही हिन्दी में सक्षम होंगें, अंग्रेजी बगल में बैठने लगेगी। कुछ लोग जल्दी सीख जाते हैं, कुछ लोगों को जीवन लग जाता
है। शब्दकोश पलट लेने में कोई बुराई नहीं है।
आपका अधिकार है कि आप अपने लिए भी एक चुनाव करें। वो चुनाव है एक
ज़िंदगी का। हिन्दी माध्यम के हैं तो क्या हुआ ? गणित में कमज़ोर हैं तो क्या हुआ ? जान क्यों देना है ? जानना है। सीखना है। अवसाद या
डिप्रेशन सिर्फ आपकी समस्या नहीं है। ये हिन्दी अंग्रेज़ी की समस्या नहीं है।
हमारे आस पास का ये जीवन ही ऐसा है। हम सब डिप्रेशन के शिकार हैं। आत्महत्या मत
करो। हमें अपनी असफलता पर सार्थक संवाद करनी होगी। बल्कि सभी संस्थाओं में फेलियर
फेस्टिवल होना चाहिए। जहां हम अपनी असफलताओं पर हंस सकें। उन पर बात कर सकें।
आइये हम सब मिल कर शिद्दत से मिलकर इस विषय पर सोचें और भ्रमित युवाओं की मदद करे , तब ही डॉ कलाम के लिए समर्पित अन्तराष्ट्रीय छात्र दिवस की सार्थकता पूर्ण हो पायेगी।
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