अपने लिए..... अपने ही बने --- विभीषण !!

जिस रावण को मार दिया गया और स्वीकार कर लिया कि समाज से एक प्रतिमात्मक बुराई का अंत हो गया पर क्या हमने कभी इन बातों पर विचार किया कि राक्षस का भाई भी तो राक्षस ही होगा। पहले भी लंका में रावण का राज था और बाद में राक्षस का राज रहा। मतलब अगर राम की शरण में रावण आ जाता तो रावण राज भी करता और जिन्दा भी रहता। मन में एक ख्याल आया कि "कही राजनीति में इसी लिए तो रावण जिन्दा नहीं रह गए क्योकि उन्हों ने राम की शरण ले ली"।

एक प्रश्न अभी भी मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि रावण के बाद विभीषण ने लंका कैसे चलाया होगा? क्या हर राक्षस एक जैसा नहीं होता या राक्षस कोई भी हो और कुछ भी हो लेकिन अगर वो हमें नुकसान नहीं पंहुचा रहा तो कुछ भी होता रहे हमें क्या ? वैसे क्या आप रावण के साथ है या विभीषण के साथ, क्योकि राम को किसी का साथ नहीं, हमको उनका साथ चाहिए क्योकि राम राज्य की आकांक्षा हमको है।

मुझे नहीं पता कि विश्रवा का सबसे छोटा बेटा विभीषण सचमुच राम भक्त था या फिर अपने बड़े भाई की शक्ति से जलता था, लेकिन इतना सुना है कि उसी ने रावण की नाभि का राज राम को बताया था।

जिस राम ने मानवीय मूल्यों को स्थापित करने के लिए त्रेता में आसुरी शक्तियों के प्रतीक रावण के विरुद्ध युद्ध लड़ा था उसी देश में उसी राम के नाम पर मात्र सत्ता के निमित्त मर्यादाओं की भी सीमाएं लांघी जाने लगे तो विचारणीय यक्ष प्रश्न निश्चित ही खड़ा हो जाता है।

विभीषण के मदद से जिस रावण को पहली बार मारा गया था, वह धरती का सबसे मायावी राक्षस माना जाता था। लेकिन मैं जिस रावण का बात कर रहा हूँ, वह उससे भी अधिक मायावी, उससे भी चतुर, उससे भी ज्यादा ज्ञानी और उससे भी अधिक अपराजेय है।

भारत में वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए लगता है कि श्रीराम से अतिशय प्रेम के कारण अप्रत्यक्षत: विभीषण की आत्मा भारत में ही भटकती रही। राम के बैकुंठवासी होने के पश्चात भी।  तब से लेकर अबतक  विभीषण की आत्मा कई रूपों में शरीर ग्रहण करती रही पर उसे धनुषधारी मर्यादा पुरुषोत्तम राम पूरे देश में जडवत तो जरुर मिले पर, चैतन्य रूप में आज तक नहीं मिल पाये। और बेचारा विभीषण  शरीर-दर-शरीर अबतक चोले बदलता रहा साथ ही वंशवृद्धि भी करता रहा।

कृष्ण काल में कंस, दुर्योधन आदि के रूप में सर उठाने के प्रयास भी बखूबी होते रहे पर हमेशा कृष्ण द्वारा उनके सर भी कुचले जाते रहे।

पर, दुर्भाग्यवश वर्तमान युग में धर्म की स्थापना के लिए कोई भी अभी तक अवतरित नहीं हो पाया है और त्रेता के विभीषण की वंशवृद्धि भी निरंतर अबाधगति से जारी है। जिसे वर्तमान के विकसित परिदृश्य में शब्दान्तरण, नामान्तरण कर गद्दार, पदलोलुप, धनलोलुप, दुश्चरित्र नेता, मीर कासीम और जयचंद के नाम से व्याख्यायित करने की एक परम्परा सी चल पड़ी है।

जैसे रावण के राज्य में निवास करते हुए विभीषण मानवीय मूल्यों के नाम पर आधुनिक विकास और सिद्धान्तों से लिप्सावश सहमत होते हुए (विभीषण के लिए) विदेशी भारत के पराक्रमी राम से दोस्ती गाँठ कर लंका को राख की ढेरी में तब्दील ही नहीं कराया बल्कि रावण जैसे स्वाभिमानी भाई को मरवाया और लंका का सर्वनाश कराकर खुद सत्ता पर काबिज हो गया।

ऐसा ही बहुत कुछ तो वर्तमान भारत में भी घटित हो रहा है। सुविधायुक्त विकास के चकाचौंध के पक्षधर विभीषण अपने वंशानुगत संस्कारवश दुश्मनों से भी हाथ मिलाने से बाज नहीं आते दीखते। माना की तब विभीषण, मीर कासीम और जयचंद आदि के भी कुछ निजी स्वार्थ थे, मंशा थी, लोभ था राजा बनने की और आज तो और भी तीव्र लिप्सा अधिक स्पष्ट दृष्टिगोचर है। जब, सम्प्रदाय के नाम पर, जाति के नाम पर, अर्थ और पदलोलुपतावश अधार्मिक और राष्ट्रद्रोही उकसावे भरे व्याख्यान आये दिन देखने-सुनने को मिल ही जाते हैं।

सत्तालोलुप अभिनेतानुमा नेता बखूबी अभिनय कर रहे हैं। इतिहास उठाकर देखें तो आजादी के आन्दोलन के बाद से ही धनलोलुप, पदलोलुप और सत्तालोलुपों के सामान्य दिनचर्या आदतन रही है और आगे भी बदस्तूर जारी रहेगी।

एक छोटी सी कहानी के साथ अपनी लेखनी को विराम देता हूँ --
            जब भगवान राम लंका विजय के उपरान्त अयोध्या लौटे तो सरयू नदी के तट पर अपार जन समूह को देखकर थोड़ा विचलित भी हुए क्योंकि उन्होंने तो सभी को 14 वर्ष पूर्व जंगल जाने से पूर्व वापस अयोध्या लौट जाने की प्रार्थना भी की थी। पर ये क्या ? काफी लोग अब भी गंगा के किनारे डेरा जमाए हुए हैं। पूछने पर पता चला कि प्रभु आपने तो कहा था- “अयोध्या के नर-नारियों वापस लौट जायँ। ” मगर, हमारे लिए तो कोई आदेश नहीं था आपकी ओर से, फिर हमलोग तो आपके दास ठहरे। तब से लेकर अबतक हम सभी आपके लौटने की व्यग्रता से प्रतीक्षा में हैं और अब आप आ गये तो हमलोग भी वापस लौट चलेंगे।
               करुणासागर राम द्रवीभूत होते हुए बोले – “तुम्हारी चौदह वर्ष की प्रतीक्षित साधना से प्रसन्न होकर वरदान देता हूँ कि – कलयुग में तुम्हारा ही राज होगा।”

शायद, ये भी एक प्रमुख कारण रहा हो कि आजादी के बाद कोई भी राजनैतिक निर्णय स्वार्थयुक्त और ढुलमुल रहा और विभीषण, जयचंदों की जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती ही रही।

जय बोलो विभीषण-जयचंदों जैसे गद्दार की।
            विजयादशमी की हार्दिक शुभकामना।

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