हम पर्दे पर ईश्वर से ब्लैकमेलिंग क्यों करते हैं ?
इधर कई फिल्मों और टीवी सीरियलों में यह देखने को मिलता है कि जीन्स-स्कर्ट पहन कर हीरो के साथ नाचने- गाने वाली हीरोइन परिवार पर आए किसी संकट को देख कर तुरंत साड़ी पहन कर मंदिर पहुंचती है और ईश्वर से उस संकट को खत्म करने के लिए तर्कपूर्ण संवाद बोलती है। या फिर उन्हें ललकारती हुई पूछती है कि उसका यह व्यवहार कहां तक उचित है?
बहुत पहले एक फिल्म में हीरो, ईश्वर की मूर्ति के सामने खड़ा हो कर कहता है कि भगवान, मेरे आने से खुश तो तुम बहुत हुए होगे, क्योंकि मैं नास्तिक हूं। लेकिन फिलहाल तुम मुझे इस मुसीबत से बचा लो। वह सीन और वे संवाद बेहद पॉप्युलर हुए थे और लोग आज भी उन्हें याद करते हैं।
फिल्म में दिखाया गया था कि हीरो की इस जोरदार अपील के बाद भगवान मान गए और उसके नास्तिक होने की बात भूल कर हीरो की इच्छा पूरी कर दी। इसके बाद हीरो दौड़ कर मंदिर में वापस आया, औपचारिक ढंग से मूर्ति के आगे जल्दी से हाथ जोड़े और फिर जीत की ख़ुशी मनाने के लिए अपने साथियों की टोली में शामिल हो गया।
फिल्म में दिखाया गया था कि हीरो की इस जोरदार अपील के बाद भगवान मान गए और उसके नास्तिक होने की बात भूल कर हीरो की इच्छा पूरी कर दी। इसके बाद हीरो दौड़ कर मंदिर में वापस आया, औपचारिक ढंग से मूर्ति के आगे जल्दी से हाथ जोड़े और फिर जीत की ख़ुशी मनाने के लिए अपने साथियों की टोली में शामिल हो गया।
ऐसे फिल्मी दृश्यों के चित्रण से समाज में क्या संदेश जाता है? संदेश यह जाता है कि ईश्वर पर दबाव बनाओ और चंद मिनटों में ही आपकी प्रार्थना सुन ली जाएगी। हमारे ऋषि-मुनि ईश्वर का वरदान पाने के लिए कई सालों तक निरंतर प्रार्थना करते थे, तब कहीं जा कर उनकी इच्छाएं पूरी होती थीं। ऐसी तपस्या के लिए निरंतरता, समर्पण और धैर्य की आवश्यकता होती है।
यह सच है कि प्रार्थना में जबरदस्त शक्ति होती है, लेकिन वह विनम्रता, ईमानदारी और अहंकारमुक्त हो कर ही की जा सकती है। प्रार्थना का फल पाने के लिए हमारे भीतर उस ईश्वर के प्रति आस्था भी होनी चाहिए। वह ईश्वर के प्रति हमारे प्रेम, सम्मान और विश्वास को दर्शाती है। वह हमें उसकी विराट शक्ति से जोड़ती है।
कहा जाता है कि ईश्वर की प्रार्थना या उपासना के लिए हृदय से किया गया प्रयास सदा सफल होता है। लेकिन हमारी फिल्मों और टीवी सीरियलों में बिलकुल इसके विपरीत दिखाया जाता है। मंदिर में हीरो या हीरोइन की प्रार्थना का तरीका धमकी भरा या ब्लैकमेलिंग वाला होता है। इसमें उससे सौदेबाजी भी की जाती है। हे ईश्वर, यदि तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की तो आगे से मैं तुम्हारी पूजा नहीं करूंगा या करूंगी। और अगर इच्छा पूरी हुई तो मैं तुम्हें अमुक भेंट अपिर्त करूंगा।
संतों का मत है कि प्रार्थना ईश्वर से संवाद करने का माध्यम है। इसकी मार्फत हम अपनी बात उस तक पहुंचाते हैं। यह केवल शब्द विशेष का उच्चारण नहीं है। प्रार्थना एक स्वच्छ, शांत और ध्यान की अवस्था है। इसमें दो राय नहीं कि वह हमें संबल देती है। हमें पवित्र बनाती है। प्रार्थना से हम सीखते हैं कि कैसे ईश्वर से ऊर्जा प्राप्त की जाए।
ईश्वर का गुणगान और प्रशंसा भी प्रार्थना का एक रूप है। यह साबित करती है कि एक आलौकिक सत्ता जरूर है जो इस संसार को संचालित करती है। इसलिए हम उसके आगे अपना दुखड़ा रोते हैं और समस्या का समाधान करने या सही मार्ग दिखाने का निवेदन करते हैं। लेकिन ईश्वर की दृष्टि में सभी एक सामान हैं, वह किसी एक व्यक्ति विशेष की याचिका सबसे पहले कैसे स्वीकार करेगा। भोजन त्याग देने या पूजा- अर्चना का बहिष्कार करने की धमकी से आप विशेष श्रेणी के याचक नहीं बन जाते। किसी श्रद्धालु के रूठने पर ईश्वर कभी उस पर यह दबाव नहीं बनाते कि नहीं, मेरा महत्व और अस्तित्व स्वीकार करो। मेरी शक्तियों को मानो। ऐसा कभी न सोचें कि आपकी धमकियों के बाद मूर्ति से एक फूल नीचे गिरा कर ईश्वर यह संकेत दे देंगे कि आपकी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई है।
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