हठधर्मी और हुज्जत से हटकर चलती है- नैतिकता!!
सब तरफ देख कर चलना, सम्यक प्रकार से चलना, सच्चे मन से व्यवहार करना, सोच-समझ कर बोलना, बच-बचाकर कदम बढ़ाना। हमें बचपन से ऐसे आचरण की शिक्षा दी जाती है। आचरण का मतलब है जल-जमीन-आसमान में फैले प्रदूषण से बच कर चलना। प्रदूषण क्रोध के धुआं का। प्रदूषण मन की मनमानी का। प्रदूषण माया की छाया का। प्रदूषण संग्रह के आग्रह का।
ज्ञान के साथ जो आचरण किया जाता है वह आचार है। ज्ञान का अर्थ है सिद्धांत और व्यवहार की जानकारी। यह जानकारी जितनी सही होगी, उतना ही सही आचरण भी होगा। ज्ञान के सही होने का सबूत है विवेक, जिसे अरबी में जमीर कहते हैं। विवेक का अर्थ है सही और गलत की पहचान।
सही-गलत की या उचित-अनुचित की पहचान जितनी सही होगी, उतना ही यथार्थ होगा ज्ञान। जितना यथार्थ ज्ञान होगा, उतना ही यथार्थ होगा आचरण। जितना यथार्थ आचरण होगा, उतनी ही यथार्थ होगी आचारसंहिता। इसी 'सही और गलत की पहचान' के स्थान पर अब एक नया शब्द चला है नैतिकता। नैतिकता वह गुण है, जिसका जन्म विवेक उर्फ जमीर से होता है, जो कागज पर आकर कानून कहलाने लगता है और जो हमें भ्रष्टाचार से रोकता है।
नैतिकता कानून की कठोरता और न्याय की नजाकत से न्यारी होती है, बहसबाजी और पक्षपात से अछूती रहती है, हठधर्मी और हुज्जत से हटकर चलती है। नैतिकता आती है स्वयं की प्रेरणा से, अनकही- अनदेखी भावना से, अंतरात्मा से, रूहानियत से, इन्ट्यूशन से।
नैतिकता कानून की कठोरता और न्याय की नजाकत से न्यारी होती है, बहसबाजी और पक्षपात से अछूती रहती है, हठधर्मी और हुज्जत से हटकर चलती है। नैतिकता आती है स्वयं की प्रेरणा से, अनकही- अनदेखी भावना से, अंतरात्मा से, रूहानियत से, इन्ट्यूशन से।
नैतिकता किसी धर्म की पाबंद नहीं होती, जबकि प्रत्येक धर्म नैतिकता का पाबंद होता है। दुनिया के प्रत्येक धर्म में जो एकमात्र चीज समान रूप से मौजूद है, वह है नैतिकता।
नैतिकता का धर्म से वही संबंध है जो गन्ने का चीनी से। धरती की कोख से लाग-लपेट के बिना उपजा गन्ना बनावट-सजावट से दूर तथा ताजगी-तरावट से भरपूर होता है। आदमी की अंतरात्मा से झूठ फरेब के बिना उपजी नैतिकता भी बनावट-सजावट से दूर होती है और मस्तिष्क को ताजा रखती है। गन्ना चूसने के लिए आपके दांत ही काफी हैं, नैतिकता के लिए आपके हाथ ही काफी हैं। गन्ने की भांति नैतिकता को भी जात-पांत से सरोकार नहीं, पराए से परहेज नहीं, विदेश से द्वेष नहीं।
नैतिकता को इतना सब्र नहीं होता कि वह चीनी की तरह मशीनी प्रक्रिया से गुजरे। वह तो अंतरात्मा की आवाज है, जिसे सुनते ही टूटे पैर जुड़ जाते हैं, कटे हाथ उग जाते हैं कि आधी रात को भी आदमी दौड़ पड़ता है। परोपकार के लिए अड़ जाता है -असल की रक्षा और नकल की काट के लिए, रो पड़ता है दूसरे के दुख में और हंस पड़ता है दूसरे के सुख में। वास्तव में यह आवाज, यह पुकार उन संस्कारों से पैदा होती है, जो माता-पिता से मिले होते हैं।
नैतिकता अनहद नाद है। व्यवहार में नैतिकता का वही स्थान है जो शरीर में सांस का होता है। अमीर-गरीब, मालिक-मजदूर, नेता-जनता, आस्तिक-नास्तिक, ज्ञानी-अज्ञानी, बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सबका मूल्यांकन यदि किसी एक ही पैमाने पर हो सकता है तो उसका नाम है नैतिकता।
राजनीति का नैतिकता से वही संबंध है, जो नदी का जल से होता है। नदी तभी तक सार्थक है, जब तक उसमें जल प्रवाहित हो रहा हो, प्रदूषण से दूर, उपभोग के लिए भरपूर। नैतिकता से ही राजनीति की सार्थकता है।
जीवन में संस्कारों की बड़ी उपयोगिता है, जो अच्छे विचारों से अंकुरित होते हैं। हर व्यक्ति संस्कारों का पुतला है। वह अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता -अच्छे निमित्त पाकर अच्छा बनता है और बुरे निमित्त पाकर बुरा बनता है। सुसंस्कारों या कुसंस्कारों से ही वह स्वयं को सुखी या दुखी बनाता है। इसी दुनिया में ज्ञान का प्रकाश भी है और अज्ञान का अंधेरा भी। मनुष्य उसमें से क्या चुनना चाहता है, यह उसके अपने संकल्प पर निर्भर है। आचरण यदि नैतिक होगा तो व्यक्ति सुखी और निराकुल जीवन जी सकेगा।
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