भक्ति काल बनाम अंधभक्ति काल !!
भाषा साहित्य के इतिहास में 1275 से 1700 ई के काल को भक्तिकाल माना जाता है साथ ही साथ हिंदी साहित्य का यह सबसे स्वर्णिम युग रहा है। इस
काल का साहित्य
अपने पूर्ववर्ती एवं परवर्ती साहित्य
से निश्चित रूप उत्कृष्ट रहा है । आदिकाल में कविता वीर और श्रृंगार रस प्रधान थी। कवि राज महलों पर आश्रित हुआ करते थे। अपने पालकों का गुणगान ही उनका लक्ष्य था। जीवन के अन्य क्षेत्रों
की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। दूसरे, आदिकालीन
साहित्य की प्रामाणिकता
संदिग्ध है । भक्तिकाल के उत्तरवर्ती साहित्य
में अधिकांश साहित्य
अश्लील शृंगार है, जो जीवन की प्रेरणा
नहीं । रीतिकालीन
कविता स्वान्त: सुखाय अथवा जनहिताय
न होकर सामन्त:
सुखाय है। इसके विपरीत्त भक्ति साहित्य राजाश्रय
से दूर भक्ति की मस्ती में स्वान्त:
सुखाय व जनहिताय
है । समाज का प्रेरणा
स्रोत है।
"जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे प्रसिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अंत:करणों से निकलकर देश के
कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यत: भक्तियुग कहते हैं।
निश्चय ही वह हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग था। तुलसीदास, सूरदास, नंददास, मीरा, रसखान, हितहरिवंश, कबीर इनमें से किसी पर भी
संसार का कोई साहित्य गर्व कर सकता है।“
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि में -
समूचे भारतीय इतिहास में ये अपने ढ़ग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति
साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।
ज़्यादा वक़्त नहीं गुज़रा इस हक़ीक़त को गुज़रे जब एक काल खंड के महापुरूषों को पढ़ कर कई नस्लें तैयार हुई,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी ने इस विरासत को सहेजे कई युग निर्माताओ को तैयार किया। लेकिन अंधभक्ति एव फरेब की एक ऐसी आंधी
चली की सब धराशायी हो गया। देश की मौजूदा राजनीतिक हालात के उथल-पुथल को हम सब बड़ी
बारिकी से देख रहे हैं। यूं
तो ये सब नया नहीं है लेकिन जो नया है वो कई कोरे सवालों को जन्म दे रहा है, यक्ष
प्रश्न ये कि सही और ग़लत के फासले को तय करने का पैमाना क्या हो? किसी पर भरोसे के
परख का तरीका क्या हो? झूठ के पर कुतरने का हुनर क्या हो? और सच को बेदाग़ रखने की
हिमाकत क्या हो?
दरअसल मौजूदा वक़्त में सबसे बड़ी जिस विडम्बना से
हम सब जूझ रहे हैं वो ये कि दो विचारधाराओं की लड़ाई में सच गुम हो रहा है और झूठ
को बल मिल रहा है। दो धड़े में बंटी विचारधाराएँ जन सरोकार से इतर संकीर्णता के तरफ़
कदम बढ़ा रही है। बदलते दौर में हम किसी-न-किसी के अनुयायी या सरल भाषा में कहें कि
अंधभक्ति के शिकार हो रहे है। और
यही सारे फसाद की जड़ है, न हममें सच सुनने की ताक़त है न झूठ के दामन को छोड़ने का
निश्चय। तर्क
को कुतर्क से काटने का हुनर हम में बख़ूबी है। लेकिन जो हम जानते हैं समझते हैं
उसके उलट जो वास्तविकता है उससे मुंह फेरने की बीमारी नई है।
फिर वही सवाल सामने खड़ा होता है आखिर ये कैसे तय
हो कि कौन भरोसेमंद है। ज़रा गौर कीजिये आये दिन की परिस्थितियों पर, हालात ये
कि किसी ने सरकार के कामकाज को सराहा, उसे
लाभकारी बताया या फिर समानांतर चलने की कोशिश की तो उसे दलाल, भक्त, सत्ता लोभी
जैसे उपाधियों से हमें नवाजने में ज़रा भी देरी नहीं होती वहीं दूसरी तरफ़ आवाज़ अगर
सत्ता के ख़िलाफ़त में बुलंद हो, खामियों को गिनाए, हक़ की बात करे फिर हम देशद्रोह
जैसे संगीन आरोप लगाते
भी नहीं चूकते.. अब तक जिनको पढ़ना, देखना, सुनना भला लगता था, है भी आज उनलोगों के
छवि के चीथड़े उड़ते देख लगता है कि अबतक हम भरम में थे या फिर वो गुमराह।
अगर हम भक्ति करेंगे तो हमें कबीर, रहीम, तुलसी, विवेकानंद
जैसे संत मिले और आज जब अंधभक्ति का दौर चल पड़ा है तब हमें आशाराम, राम रहीम,
...... एवं कुछ आत्म्मुग्ध राजनीतिज्ञों का ही अध्ययन करना पड़ रहा है।
हमें समझना होगा कि अंग्रेजों-मुगलों के अलावा एक और गुलामी
से छुटकारा पाना अभी बचा हुआ है और वह है अंधभक्ति ।
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